मंगलवार, 17 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 7 )


अर्जुन को ज्ञान और विज्ञान का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 7
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान विज्ञान के विषय में उपदेश दिए हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सुनो पार्थ अब ज्ञान विज्ञान ,
हर लेता जो सब अज्ञान ,
योगाभ्यास से मन कर स्थिर
मेरी भावना को निश्चय ,
बिन संशय तू जानो कैसे
उसका देता हूं परिचय  ?

आगे बोले फिर भगवान
सुनो ज्ञान और विज्ञान ,
जिसे जान नर हो सज्ञान ,
हर ले ए मन का अज्ञान ,
इसे जान कुछ भी नहीं शेष ,
बच जाता नहीं कुछ अवशेष ।

मेरी चाहत करे अनेक ,
नहीं तत्त्व से जाने एक ,
मनुज हजारों करते यत्न ,
नहीं यथार्थ उनका प्रयत्न ,
मुझे तत्त्व से जाने जो ,
सही रूप पहचाने वो ।

पृथ्वी ,जल ,बुद्धि ,वायु व
मन ,अग्नि , अहं ,आकाश ,
आठ विभक्त प्रकृति मेरी ,
जिस पर विज्ञ करे विश्वास ।

अपरा जड़ ए आठ कहाते ,
इनसे अलग सुन उसे बताते ,
पूर्ण जगत धारण है जिनसे ,
जीव और सुन आठो ए ,
पराशक्ति कहते हैं उसको
और चेतना कहते हैं जिसको ।
( अपरा= लौकिक , भौतिक )

इन दो प्रकृतियों के कारण
संपूर्ण भूत होता  उत्पन्न ,
अतः प्रभव व प्रलय में हूं ,
सभी कार्य मुझसे संपन्न ।
( प्रभव= उत्त्पत्ति )

मोती गुंथे धागा में जैसे ,
गुंथे मुझसे सब हैं वैसे ,
इसके सिवा न कारण दूजा ,
समझा ए जो मेरी पूजा।

नभ में शब्द ,जल में रस  हूं,
सोम सूर्य में हूं प्रकाश ,
वेदों में ओंकार भी मैं हूं ,
पुरुषों में पुरुषत्व विकास ।

पृथ्वी में पवित्र गंध मैं ,
पृथ्वी का मैं तेज अनल ,
सब भूतों का जीवन जानो ,
तपियों में मैं तप का बल ।

बीज सनातन सब भूतों का ,
तेजस्वियों का तेज अनल ,
बुद्धमानों की बुद्धि में हूं ,
सुन अर्जुन मत हो विकल ।

कामना ,इच्छा ,आशक्ति हीन
बलवानों का बल हूं जानो ,
धर्म शास्त्र के अनुकूल अर्जुन ,
भूतों में मैं काम हूं जानो ।

सतो रजो तमो गुण भाव
मुझसे है उत्पन्न तू जान ,
सब कुछ मेरे है आधीन ,
किंतु मुझे स्वतंत्र तू मान ।

सात्त्विक राजस तामस भाव
से मोहित प्राणी समुदाय ,
इन गुणों से परे न माने ,
मुझ अविनाशी को ना जाने ।

त्रिगुणमयी अद्भुत इस माया
में फंस जाती सबकी काया ,
मेरे शरण में जो आ जाए ,
इस माया से पार हो जाए।

निपट मूर्ख अधम मनुज व
माया ज्ञान हर ली है जिनका ,
असुर प्रकृति में रत जन जो ,
न बसता हूं मन में उनका ।

जिज्ञासु , आर्त और ज्ञानी ,
अर्थार्थी सुन स्वाभिमानी ,
मन में करके खूब विचार
मुझको भजते हैं यह चार ।

इन चारों में मुझको जो भाता ,
ज्ञानी भक्त है उत्तम आता ,
क्योंकि तत्त्व वह माने मेरा ,
रहता नम्र बना वह चेरा ।

और तीन उदार स्वरूप ,
पर ज्ञानी है मेरा रूप ,
मेरे मन और बुद्धि ज्ञान
में ज्ञानी है स्थित जान ।

बहुत जन्म जन्मों के बाद
जिसे ज्ञान करता आबाद ,
ऐसा दुर्लभ जन भी आ
मुझ वासुदेव को भजता पा।

भोग कामना के कारण ,
अन्य देवता पूजते जान ,
अपने अपने मन को मान ,
अपनाते भिन्न विधि-विधान ।

जिसके मन में श्रद्धा आए ,
जैसा देवता पूजना चाहे ,
उसके मन में कर निवास ,
उस देवता प्रति दूं विश्वास।

इस श्रद्धा विश्वास के कारण ,
सब अपना देवता के चारण ,
अपना मन इच्छा फल पाते ,
सब मेरे प्रसाद से आते ।

पर यह फल नहीं टिक पाता ,
अंत समय है ज्योंहि आता ,
लौट उस देवता पास है जाता ,
ऐसा जन देवलोक को पाता ,
मेरे भक्त मुझे जैसे भजते ,
अंत में मुझको प्राप्त हैं करते।

बुद्धिहीन पुरुष अनजान ,
मुझे माने भू जन सामान ,
सच्चिदानंद घन अविनाशी
निराकार परम विश्वासी ,
मेरी प्रकृति को नहीं जाने,
साधारण जन सा ही माने।

योगमाया अच्छादित अपनी
नहीं प्रकट हर जगह है तन ,
अविनाशी अजन्मा मुझको
नहीं देखता मूर्ख जन ।

भूत ,भविष्य और वर्तमान
के भूतों को जानूं जान ,
इनमें न कोई पुरुष सुजान
जो मुझको पहचाने मान ।

इच्छा द्वेष घृणा उत्पन्न ,
सुख-दुख , मोह से संपन्न ,
पूर्ण जगत जीव विकल ,
खोज रहे सब सुंदर फल ।

पूर्व जन्म और इस जन्म में
पुण्य कर्म किए जो तात ,
मोह मुक्त और पाप कर्म से
छूट चुका जिनका संताप ,
मेरी भक्ति ए जन करते,
दृढ निश्चयी भक्त ए भजते ।

जरा मृत्यु से चाहे मुक्ति
ऐसा जन करे मेरी भक्ति ,
ब्रह्म अध्यात्म और पुण्य कर्म जाने,
मेरे ज्ञान और मुझको माने।

अधिदैव ,अधियज्ञ , अधिभूत
सहित जाने मुझे सपूत ,
अंत समय जब उसका आए ,
मेरे लोक को स्वयं आ जाए।
( अधिदैव,अधियज्ञ, अधिभूत अगले अध्याय 8 में बृहद वर्णित है। )

***************समाप्त********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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सोमवार, 16 मई 2022

मन

शांत मन से योग रत लड़की


 

प्रसन्न मन व्यक्ति


कविता
शीर्षक - मन
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

सभी कार्य और सभी कर्म,
सभी क्रियाएं ,सभी धर्म,
सभी यत्न , सभी प्रयत्न,
सभी श्रम , सभी कार्यक्रम ।

विभिन्न कलाएं , सब विद्याएं ,
अतुल ज्ञान , सभी विज्ञान ,
सभी ग्रंथ , सभी वेद पुराण,
विज्ञ , चतुरजन या सज्ञान ।

बाइबल , गीता और कुरान ,
ब्रह्म ज्ञान अथवा ब्रह्मांड ,
भूत, भविष्य और वर्तमान ,
पंडित ,ऋषि या विद्वान ।

इस ब्रह्मांड का एक एक कण ,
धारा पर रत एक एक क्षण ,
सब बातों का एक कथन ,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न ।

अगर न तन में रहता मन ,
जगत विचरता शून्य बन ,
दूजा पेट, प्रथम है मन ,
कर्म रत इस कारण तन ।

विश्व आकर्षण यही मन ,
इसकी सेवा हेतु धन ,
जैसे ही मर जाता मन ,
व्याधि से घिर जाता तन।

योगी होता ध्यान मग्न ,
एक बिंदु पर रहता मन ,
गहरी शांति पाता जन ,
ईश्वर में जब रमता मन ।

मन हेतु सब कार्यकलाप,
गीत ताल संगीत आलाप ,
चमक-दमक सब भोजन अन्न ,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न ।

नियमित क्रिया कार्यकलाप ,
जो है पूरा करता तात ,
नियंत्रित है उसका मन ,
कहलाते ये सज्ञ सज्जन ।

नहीं ज्ञान का है दर्शन ,
अनियमित है उनका मन ,
नहीं नियंत्रित जिसका मन ,
कहलाते ये मूर्ख जन ।

घूमते ए जन पागल बन ,
रचते कलह कालिमा रण ,
शांत है करता सिर्फ मरण ,
ऐसा पागल कलुषित जन।

अच्छी बातें सीख नहीं पाते ,
शांत पुरुष से कलह मचाते ,
इन्हें काल सिखलाता फन ,
सब बातों का एक कथन,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न।

*********समाप्त***********

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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रविवार, 15 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 6 )


आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 6
इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश दिये हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
कर्म फल का आश्रय न ले ,
और कर्म करे सुजान ,
संन्यासी योगी कहलाता,
ऐसा अर्जुन तू यह जान ,
मात्र अग्नि के त्याग से कोई ,
न संन्यासी बनता जैसे ,
न क्रियाओं के त्याग से
योगी कहलाता जन वैसे ।

जिसको कहते हैं संन्यास ,
योग वही है ऐसा जान ,
बिन इच्छा को त्यागे कोई
योगी नहीं हो सकता मान ।

नव साधक अष्टांग योगी हेतु
निष्काम कर्म साधन कहलाता ,
सब भौतिक कार्यों का त्याग से ,
योगी सिद्ध नर है बन जाता ।

भौतिक सब इच्छाओं को त्याग
इंद्रियों तृप्ति हेतु कार्य न करता,
न सकाम कार्यों में प्रवृत्त जो
योगारूढ़ प्रभु में विचरता ।

मन के कारण अधोगति
और मन के कारण हो उद्धार,
मन है मित्र और मन ही शत्रु ,
जैसा मन वैसा विचार ,
अतः मनुज को चाहिए जैसा
रखे नियंत्रण मन पर वैसा ।

जिसने मन पर किया वश ,
उनके लिए मन है मित्र ,
जिसने मन पर किया न वश ,
उनके लिए मन बना अमित्र ।

सर्दी -गर्मी , सुख -दुख आदि ,
मान और अपमान ,
इनमें दृढ़ बना जो जन है ,
उनको योगी मान ,
परमात्मा में उनका ध्यान ,
इसके सिवा न दूजा ज्ञान।

ज्ञान और विज्ञान से तृप्त जन ,
शुद्ध स्वच्छ है जिनका तन-मन ,
इंद्रियों पर जिसको वश ,
अपने ऊपर जिसको कस ,
सोना- मिट्टी  एक समान
और रत्नों पर भी नहीं ध्यान ,
सब कहते हैं ऐसा तन,
कहलाता है योगी जन ।

पापी ,वैरी , द्वेषी आदि
बंधु , मित्र , सुहृदय इत्यादि ,
उदासीन , मध्यस्थ , अभिमानी
के संग भी सम है जो प्राणी ,
श्रेष्ठ नर है वह कहलाता ,
योगी में गिना जन जाता।

इंद्रियों और मन पर तन पे ,
करे नियंत्रण जो जन  वश में ,
आकांक्षाओं और संग्रह से
रखे दूरी ,अकेलापन में
परमात्मा में ध्यान लगाए ,
ऐसा जन योगी कहलाए ।

योगाभ्यास का सुनो बयान ,
योगी चुनता जगह एकांत ,
कुश बिछा रखे मृगछाला ,
उन पर वस्त्र मुलायम डाला ,
आसन बहुत न ऊंचा नीचा ,
जगह पवित्र में है यह बिछा

उस पर बैठकर योगी तन
स्थिर करता अपना मन ,
इंद्रियों पर करता वश ,
अंतःकरण को करता कस ,
एक बिंदु पर रखे मन ,
इनको कहते योगी जन ।

तन ,गर्दन और सिर को ,
एक सीध में रखता योगी,
और नाक के अग्र भाग को
देखें आंखें  स्थिर हो ,
और न दूजा चीज उसे
देती दिखलाई
यही तरीका योग का
सब ने सिखलाई।

इस प्रकार वह मन को रोककर
और भयहीन होकर ,
विषयी जीवन से पूर्णतया
मुक्ति लेकर,
मन में मेरा चिंतन लाए ,
अपना परम लक्ष्य बनाए ।

जिस योगी का मन हो नियंत्रित ,
और मन मुझ में है रमता ,
परमानंद परम शांति को ,
सहज सरल में पा जाता वो ।

अति भोजन या नहीं भोजन ,
अति शयन या नहीं शयन ,
से नहीं योग की होती सिद्धि ,
ऐसा सोचे अज्ञ कुवुद्धि।

नियत कर्म और नियमित भोजन ,
नियमित आहार- बिहार ,
नियमित सोना , नियमित जागना,
नियमित सभी व्यवहार ,
ऐसा नियम जिसे है भाता ,
योगी जन वह नर कहलाता।

मानसिक कार्यकलापों पे कस ,
सभी भौतिक इच्छाओं पर वश ,
अध्यात्म में मन को लगाता ,
ऐसा नर योगी कहलाता।

हवा रहित स्थान में दीपक
हिलता-डुलता है नहीं जैसे ,
परमात्मा के ध्यान में योगी
अपना मन को रखता वैसे ।

योग के अभ्यास से
आत्म शक्ति आ जाती ,
परमात्मा के ध्यान से
बुद्धि शुद्ध हो जाती ,
उपरोक्त अभ्यास से
संतुष्टि मिल जाती ,
अंत समय आ जाता
तो मुक्ति मिल जाती ।

इंद्रियों से परे अति सूक्ष्म विशुद्ध
परमानंद आनंद को जो अपनाता है ,
जिस रूप से या जैसे जो भी पाता है,
सिद्ध सज्ञ नर वह योगी कहलाता है।

परम आत्मा की प्राप्ति
लाभ बड़ा कहलाया है ,
इसके सिवा लाभ न दूजा
जिसको कोई पाया है,
इस लाभ को जिसने पाया ,
कोई संकट नहीं सताया ।

दुख रूपी संसार है भोग ,
इसे छुड़ाता वह है योग ,
धैर्य और उत्साह के साथ
जो करता वह बनता नाथ ,
परम शांति पाए वो
इसको अपनाए नर सो।

संकल्प और श्रद्धा के साथ
योगाभ्यास में लगता जो ,
जो न कभी अपने पथ से
संकट पाकर विचलित हो,
भांति-भांति की इच्छाओं को
मन से त्याग है करता जो ,
सभी ज्ञान इंद्रियों पर
वश में रखता है जो नर ।

धीरे-धीरे दृढ़ता से
एक बिंदु पर रखे मन ,
अपने मन को आत्मा में
स्थित करता है जो जन ,
इसके सिवा न सोचे जो ,
योगी बन जाता है वो ।

चंचल मन नहीं रहता स्थिर ,
यत्र तत्र यह करता विचरण ,
इन्हें रोक जो वश में लाए,
सिद्ध पुरुष में गिना जाए।

शांत चित्त और मन हो जिसका ,
रजोगुण नहीं जिसे लुभाए ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म संग वह
एकी भाव से सुख को पाए ।

पाप रहित मानव निरंतर
परमात्मा में सब कुछ पाता ,
परम ब्रह्म संग रहे आनंदित ,
अनंत आनंद आत्मा में आता ।

सभी भूत स्थित आत्मा में ,
एकी भाव से देखने वाला ,
अपने को पाए सब मन में ,
सभी मन को अपने तन में।

सब भूतों को आत्म रूप में
मुझे देखता है साधक जो ,
उसके लिए अदृश्य नहीं मैं ,
नहीं अदृश्य मेरे लिए वो ।

परमात्मा और मुझे नहीं
माने जो दूजा ,
भक्ति पूर्वक जो करता
है मेरी पूजा ,
सदा है स्थित रहता मुझ में
ऐसा ही जन ,
विचलित कभी नहीं होता
इस योगी का मन ।

अपनी भांति सब भूतों को
जो है देखे ,
सुख और दुख में भी जो
सम है पेखे ,
परम श्रेष्ठ ऐसा योगी जन
है कहलाता,
सुनो पार्थ यह तत्त्व सदा
सब सज्ञ सुनाता ।

अर्जुन उवाच-
मधुसूदन से बोला पार्थ ,
कृपा कर प्रभु सुने आप ,
बतलाया जो योग दर्पण ,
समझ ना पाया मेरा मन ,
क्योंकि चंचल होता मन,
स्थिर नहीं कर पाता जन।

मन है चंचल, मन है हठी ,
मन बहुत बलवान ,
वश में करना ऐसा मन को
बड़ा कठिन भगवान ,
वश वायु  कर सकता नर ,
पर मन वश करना दुष्कर ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से ब़ोले भगवान -
मन चंचल है निश्चित जान ,
मुश्किल से यह वश में आता ,
दुष्ट मूर्ख नहीं वश कर पाता ,
अभ्यास वैराग्य से इस पर ,
सज्ञ विज्ञ है विजय बनाता ।

जिनका मन वश में नहीं जानो,
उनको योग कठिन है मानो ,
जिनका मन वश में है जानो ,
उनको योग सहज है मानो ,
ऐसा मेरा मत है जानो ,
अपने को अर्जुन पहचानो ।

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - कृपा निधान!
इस संशय का करें निदान ,
योग में श्रद्धा रखता जो ,
पर संन्यासी नहीं है वो ,
अंतकाल जब उसका आया ,
योग से मन को विचलित पाया ,
ऐसा जन क्या गति को पाए ?
कृपा कर श्रीमान बताएं ।

छिन्न-भिन्न मेघों की भांति
नष्ट हो जाता है क्या यह जन ?
अथवा भगवत् प्राप्ति करता
ऐसा जन मानस  का तन ।

अर्जुन  बोला- हे श्रीमान !
उपरोक्त का करें निदान ,
आप सिवा नहीं दूजा नर ,
इन प्रश्नों का दे उत्तर ।

भगवान उवाच -
कल्याण का करता कार्य ,
नहीं नाश वह पाता आर्य ,
लोक और परलोक कहीं ,
जहां कहीं भी रहे सही ,
अतः भलाई का यह प्यारा ,
नहीं बुराई से है हारा ।

योग भ्रष्ट भी योगी जन ,
स्वर्ग लोक पा जाता जान ,
बहुत वर्ष तक करके भोग ,
पुनः जन्म है लेता मान ,
सदाचारी समृद्ध धनवान
के घर जन्म है लेता जान।

नहीं नीच कुल को है पाता ,
सज्ञ विज्ञ के घर है आता ,
अज्ञों के हेतु दुर्लभ ,
पर योगियों के लिए सुलभ ।

पुनर्जन्म के पुण्यों से
पुनः योग संस्कार है पाता ,
पहले से भी बढ़कर वो ,
धर्म मार्ग में मन को लगाता ।

पूर्व जन्म के चेतना ज्ञान
स्वत: उसे आकर्षित करता ,
शास्त्र नियम नहीं उस पर लगता ,
परे शास्त्र से कार्य वो करता ।

पर सत्  कर्मक  इसी जन्म में ,
सब पापों से मुक्त हो जाता ,
पूर्व जन्म के पुण्यों के बल
परम गति को है पा जाता ।

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी
शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ ,
कर्म सकाम करने वालों से
योगी हरदम होता है जेष्ठ,
अतः पार्थ तू योगी बन ,
स्थिर कर तू अपना मन ।

योगियों में भी श्रद्धावान
जो योगी मुझको भजता जान ,
ऐसा जन है मुझको भाता ,
मेरा परम भक्त कहलाता।

****************समाप्त****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 14 मई 2022

आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि की रचना की


आदिशक्ति 


महेश ,आदिशक्ति , विष्णु और ब्रह्मा ( बाएं से दाएं )


कविता
शीर्षक- आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि उत्पन्न की
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

पराग सदृश एक तेजस्वी का 
गुणोगान है इस भू पर ,
सबका  गुरु है यह गुणी
जिन्हें कहते कुछ शिवशंकर ,
त्रिनेत्र , मृत्युंजय आदि ,
कैलाशपति और शंभू भी ,
रामनाथ , गंगाधर जिनको भी
कहते हैं कभी-कभी ।

प्रभा युक्त इस चंद्रशेखर की
जन्म कथा बतलाता हूं ,
पौराणिक कथाओं के संग
वैज्ञानिक बात  दिखता हूं ,
महाप्रलय हो जाने पर
जब सब कुछ नष्ट हो जाता है,
विस्तृत भू ,चंद्र ,सूर्य
न जाने कहां खो जाता है।

एक शक्ति सिर्फ बच जाती है ,
जो आदिशक्ति कहलाती है,
इसी शक्ति के हेतु से
फिर नव सृष्टि बन जाती है ,
द्वय नवीन वस्तुओं का
जब मेल परस्पर होता है,
दोनों की क्रिया प्रतिक्रिया
एक नई वस्तु जन्माती है ।

जब चलता पवन है मंद मंद
कैसा मनमोहक होता है ,
अपनी शीतलता दान कर
यह मर्म हमारा छूता है ,
क्षुधित व्याघ्र सा यही कभी
विकराल रूप जब करता है ,
बड़े-बड़े पादप तक को भी
समूल नष्ट यह करता है।
( पादप= पेड़ )

ग्रीष्म ऋतु में प्रायः हम
एक ऐसी घटना पाते हैं ,
मंद वायु को कभी कभी
हम चक्रवात में पाते हैं ,
हल्दी एवं चूना का कभी
मेल परस्पर होता है ,
मिलने के चंद पलो बाद
लाल रंग मिल जाता है।

दूध दही का जनक रहा,
इससे भिज्ञ सारा जग है ,
बीज का ही पुत्र
कहलाता इस भू पर नग है ,
पतझड़ ऋतु में तरु के पत्ते
समग्र गिर जाते हैं ,
नर कंकाल सा सिर्फ तरु के
ढांचा मात्र बच जाते हैं।
( नग = पेड़-पौधा )

विगत दिनों की यादों में
ये अश्रु धारा बिखराते हैं ,
इसके कुछ ही दिनों बाद
एक नव घटना हम पाते हैं ,
सुंदर-सुंदर मुलायम कोपलें
आ जाते तब ,
मस्त हाथी सा झूमने लगते ,
अपनी दशा देख द्रुह अब ।
( द्रुह= पेड़ )

शाल्मली का लाल पुष्प
कितना चारुमय  होता है ,
इसकी मनमोहकता में
समग्र खग खो जाते हैं ,
प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
कुछ दिनों में बन रूई श्वेत ,
खग समूह को फल की आशा
को कर देता  मटियामेट ।
( शाल्मली = सेमर का पेड़ )

प्रतिक्रिया के कारण ही
यह खेल तमाशा होता है ,
नया रूप प्रकृति में
इसके कारण ही आता है ,
आदिशक्ति अभेदी है ,
अखंडित है निराकारी ,
प्रतिक्रिया के कारण यह
कभी  हो जाती है साकारी ।

इसी आदिशक्ति ने पहले
ब्रह्मा को था जन्माया ,
सृष्टि हेतु शादी अपने साथ
करने को फरमाया ,
माता के संग ऐसा प्रस्ताव को
ब्रह्मा ने अस्वीकार किया ,
इसके बदले मौत भली है
उन्होंने स्वीकार किया ।

नकारात्मक उत्तर कारण
ब्रह्मा स्वर्ग सिधारे थे ,
विष्णु जन्मे तत्पश्चात थे
प्यारे और दुलारे थे ,
प्रश्न वही शादी करने को
फिर उसने दोहराया था ,
कर्म निष्ठ  मर्यादा श्रेष्ठ
विष्णु को फिर  भरमाया था ।

नकारात्मक उत्तर से तब
विष्णु स्वर्ग सिधारे थे ,
तेजपुंज कैलाशपति
इसके ही बाद पधारे थे ,
प्रश्न वही पाणिग्रहण
इनके समक्ष भी आया था,
निम्नलिखित ढंग से तब
शिव शंभू ने सुलझाया था।
( पाणिग्रहण = विवाह )

तू जननी मैं सुत तेरा
कैसा यह पावन है नाता ,
इस रूप में यह क्रिया
तुम ही सोचो क्या हो सकता ?
दो शर्त्तों को मानो तो
यह सृष्टि  हो सकती है  ,
अपना पावन यह रूप तज
दूसरा रूप ले सकती है ।

स्वर्गीय भ्राता जिंदा हो
दूसरी शर्त है यह मेरी ,
सृष्टि करने हेतु  बस
इतनी कृपा है तेरी ,
सकारात्मक उत्तर से
इस धर्म कथा का हुआं अंत ,
आदिशक्ति बदली दुलहन में
और शिव शंभू बन गए कंत।

**********समाप्त****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शुक्रवार, 13 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( भाग 5 )

कर्म और कर्म संन्यास का उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 5
इस अध्याय में कर्म और कर्म संन्यास के विषय में अर्जुन को उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग को ,
दोनों ही बतलाते आप,
दोनों में से हो एक उचित ,
कल्याण हेतु बताएं तात।

भगवान उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग
दोनों जन के हितकारी है ,
कर्म संन्यास से कर्मयोग ,
सुगम परम उपकारी है ।

नहीं किसी से करे आकांक्षा ,
नहीं किसी से रखता द्वेष ,
कर्म योगी सदा संन्यासी ,
राग,द्वेष,द्वन्द रहे न शेष ,
सुख पूर्वक जीवन है पाता ,
सब बंधन से मुक्त हो जाता।

कर्म और संन्यास योग
है अलग-अलग नहीं विज्ञ बताते ,
एक ही फल के दाता दोनों,
अतः दोनों ही एक कहाते ।

सांख्य ( ज्ञान )योगी और कर्म योगी  ,
फल एक ही पाता ,
अतः दोनों को जो एक देखे ,
वह सही में देख है पाता ।

बिना कर्म योग , संन्यास
मानव का कर देता नाश ,
चौथापन ज्योंहि है आता,
कर्मयोग संन्यास कहाता,
परब्रह्म को प्राप्त हो जाता,
कर्मठ हरदम पूजा जाता।

जिसका मन है अपने वश में ,
योग युक्त विशुद्ध है आत्मा ,
जितेंद्रिय कहाता जो जन ,
भाए सर्वभूत परमात्मा ,
ऐसा कर्मठ कहीं लिप्त न होता ,
कहीं व्यर्थ में समय न खोता ।

पश्य, श्रवण, स्पर्श, गमन कर ,
भोजन , श्वास व नींद भी लेकर ,
त्याग, ग्रहण, बोलना आदि
सूंघना, लेन-देन इत्यादि ,
आंख मूंदना और खोलना  ,
सब इंद्रियों का रत रहना ,
इन सब को अकर्त्ता माने ,
तत्त्वविद इन्हें दुनिया जाने।

संग आसक्ति त्याग कर्म करे ,
परमात्मा में कर विश्वास,
लिप्त पाप से हो नहीं वैसे,
पद्म पत्र पर जल हो जैसे।

आसक्ति को त्याग मनुज जो ,
कर्म करे कर्म योगी कहाए ,
कर्म करे वह तन से मन से ,
बुद्धि से व इंद्रियों से ,
आत्म शुद्धि और शांति पाए ,
सभी ग्रंथ इसको बतलाए।

कर्म फल का भय जो त्यागे ,
शांति पूर्वक मुझमें राजे ,
कर्मफल का भय सताए,
आसक्ति में बंधता जाए ,
काम कामना के ही कारण ,
आसक्ति नर करता धारण।

नौ द्वार से बना शरीर,
अंदर बसता मन अजीर्ण ,
सभी कर्म का भोग है करके ,
भोग तज संन्यास में रम के ,
बिना किए कुछ सुखी है रहता,
ऐसा जन दुखी नहीं रहता।

प्रभु सब कुछ सृजन करके ,
प्रकृति को दिए भगवान ,
नहीं कर्म करने को कहते,
फिर भी कर्म करे इंसान ,
जीव अपने स्वभाव के कारण ,
कर्म क्रिया को करता धारण ,
प्रकृति गुण स्वभाव बनाता ,
जो जन जैसा वैसा भाता।

नहीं किसी के पाप पुण्य का
प्रभु होते उत्तरदाई ,
अज्ञान है दुख का सागर ,
ज्ञान सभी कहते सुखदाई ,
अज्ञान और मोह के कारण
ज्ञान बना रहता है चारण ।

ज्ञान है जैसे मानव पाता ,
अविद्या का नाश हो जाता ,
ज्ञान से सब कुछ प्रकट हो जाता ,
दिव्य दृष्टि उसको मिल जाता ,
दिन में सूरज जैसे आता ,
ज्ञान है वैसा ज्योति लाता ।

मन बुद्धि श्रद्धा से जो जन ,
प्रभु परायण बन जाता है ,
पूर्ण ज्ञान तब प्राप्त है करता ,
अविद्या सब छूट जाता है ,
मुक्ति पथ पर गमन है करता ,
रजगुण तमगुण चारण बनता ।

विद्या विनय पूर्ण यह व्यक्ति ,
समदर्शी गुण अपनाता है ,
ब्राह्मण गौ हाथी और कुत्ता ,
चंडालों में सम पाता है ।

जिसका मन सम भाव में स्थित,
जीता जीवित जग है जानो ,
परम पिता प्रभु गुण भी यही ,
अतः इन्हें परम ही मानो।

प्रिय न  जिनको हर्षित करता,
ना अप्रिय करे उद्विग्न,
ब्रह्मविद निर्मोही स्थिर
बुद्धिमान न होता खिन्न ,
परमात्मा संग नित्य विराजे ,
एकीभाव से ब्रह्म में राजे ।

बाह्य आसक्ति न जिन्हें लुभाए ,
भौतिक आकर्षण न खींच पाए ,
अपना मन आत्मा ही भाए ,
परब्रह्म को वह पा जाए ,
अक्षय आनंद का है यह सार ,
परमसुख का यह संसार ।

जो सुख मिलता इंद्रियों से ,
उसका आदि अंत है होता ,
इस अनित्य सुख में अर्जुन
विज्ञ रम कर समय ना खोता ।

काम क्रोध मन को उकसाए ,
इंद्रियों में वेग है लाए ,
दुर्जन इस में आग लगाए ,
आम पुरुष इसे रोक न पाए,
जो है रोका सही कहाए ,
साधक योगी वह कहलाए ।

अंतरात्मा में सुख पाता ,
अंतर्मुखी है वह कहलाता ,
अंतरात्मा में जो रमता,
अंतर्मुखी जग है कहता ,
आत्मा में ही ज्ञान है पाता ,
आत्मज्ञानी है वह कहलाता ,
परमात्मा संग ज्ञान है पाता,
सांख्य योगी है वह कहलाता ,
अंत समय जब उसका आता ,
शांत ब्रह्म को वह पा जाता।

सभी पाप नष्ट है जिनका ,
ज्ञान सभी संदेह हटाया ,
सभी जीवो के हित में रत जो ,
  स्थिर मन से स्थित ब्रह्म को ,
ब्रह्म वेत्ता जन यह कहलाता ,
ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त हो जाता।

जीत चुका भौतिक इच्छाएं ,
काम क्रोध नहीं उसको आए ,
आत्म संयमी वह बन जाता ,
परम शांत ब्रह्म को पा जाता ।

इंद्रिय विषयों को बाहर धर के ,
दृष्टि भृकुटी के बीच करके,
प्राण अपान रोके नाक के अंदर ,
इंद्रिया बुद्धि मन वश कर,
इच्छा भय क्रोध रहित हो जाता ,
मुक्त होकर वह मोक्ष पा जाता ,
यह अवस्था सदा रहे गर
परमानंद रहे उसके अंदर ।

सभी यज्ञ तपो का भोक्ता ,
सब ईश्वर का भी मैं ईश्वर ,
सब लोकों का भी मैं मालिक ,
सब देवों का मैं परमेश्वर ,
सभी जीवों का मैं उपकारी ,
मेरा कथन माने सुखकारी ,
मुझे तत्त्व से जाने जो जन ,
परम शांति पाता वह मन ।

***************समाप्त*******************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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गुरुवार, 12 मई 2022

दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास


इंडिया गेट दिल्ली

आज की दिल्ली मैप


कविता
शीर्षक - दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

दिल्ली भारत की राजधानी ,
सभी धर्म के बसते प्राणी ,
कैसे बना था यह राज ,
जिसको कहते दिल्ली आज ?

गंगा तीर बसे कुछ  शूर ,
राज बना हस्तिनापुर ,
फूट पड़ी हुआ विभाग ,
जमुना तट जागा सुभाग ,
इंद्रप्रस्थ बसा सुराज ,
इसे ही कहते दिल्ली आज।

समय चाक के सब हैं चालक ,
बूढ़ा में ढल जाता बालक ,
प्रजा मरती , मरता पालक ,
इंद्रप्रस्थ का डूबा तारक ।

इंद्रप्रस्थ की मिटी आन ,
समय बिता उगा चौहान ,
पृथ्वीराज का दिल दिलेर ,
दिल्ली का यह राजा शेर ,

इसी बीच आया तूफान ,
गोरी से आया अफगान ,
दिल्ली की फिर गई शान ,
हिंदू मिटे , चढ़ा कुरान ।

दिल्ली सल्तनत महान ,
समय बिता बना बेजान ,
मुगलों ने किया अब राज ,
आया फिरंगी छिना ताज ।

कोलकाता में राज बसाया ,
फिर दिल्ली में राज ले आया ,
था सन उन्नीस सौ एग्यारह ,
शुभ दिन दिसंबर बारह ।

दिल्ली फिर बनी राजधानी ,
खुश हुए यहां के प्राणी ,
बड़ा बड़ा आचार बनाया ,
फिरंगी विचार बनाया ।

राजाओं सुल्तानों को भी
नतमस्तक कर खार बनाया ,
अंग्रेजों की देन बहुत है,
पर नहीं प्यार दुलार बनाया।

चारों तरफ था भ्रष्टाचार ,
गोरों की चलती अपार ,
पीस रही थी यह सरकार ,
मचा हुआ था हाहाकार।

थे डरे हुए राजा सम्राट ,
खोज रहे थे एक विराट ,
गांधी का बाजा सितार ,
चमक उठा किरणों का तार।

एक एकता एकाकार
में बल है जाने संसार ,
फूट फर्क फिक्र फटेहाल ,
निर्बल कर करता बेहाल ।

हुई एकता हुए स्वतंत्र ,
दिल्ली का हुआ पुनर्जन्म ,
दिल्ली फिर बनी राजधानी ,
हर्ष मनाए मिल सब प्राणी ।

खत्म हुई यह दिल्ली कहानी ,
जिसे सुनाया मैं जुबानी ,
देशवासियों देकर ध्यान
स्वतंत्रता का करो सम्मान।

राणा ने खा घास की रोटी
स्वतंत्रता अपनाई थी ,
वर्षों ‌जंगल में गुजार कर
परतंत्रता ठुकराई थी।

घड़ी रहेगी खूब मस्तानी ,
नहीं करोगे जब नादानी ,
नहीं करो अब आनाकानी ,
याद रखो यह बात जुबानी।

दिल्ली पर मेरा यह उपहार ,
करो नहीं इससे इनकार ,
"पशुपति " का  यह उद्गार ,
कृपा कर करो स्वीकार ।

जिस दिन एकता होगी खत्म ,,
फिर मिट जाएंगे सब हम ,
एकता से सब सिद्ध हो काज ,
इसे ही कहते दिल्ली आज ।।

***************समाप्त*****************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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बुधवार, 11 मई 2022

चरित्र ( कविता )

चरित्र के धनी कवींद्र गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर


कविता
शीर्षक - चरित्र
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

शक्ति और सौंदर्य क्या है ?
क्या है नियम और कानून ?
सभ्यता किस स्त्रोत से आई ?
आया ज्ञान कहां से बन ?

शांति किसकी दासी बनी है ?
विद्वता किसका है धन ?
राजनीति का मूल कहां है ?
सफलता का क्या साधन ?

कोमलता , गंभीरता आदि सब ,
बनी रही किनकी सहचरी ?
आत्मबल का सखा कौन है ?
दृढ़ता किनकी अनुचरी ?

कायरता किनकी है चेटी ?
निर्भयता किनकी है बेटी ?
किनका खेत धर्म निर्मित है ?
न्याय युक्त है किनकी खेती ?

इनका नाम तो लेने में
ह्रदय में होता है अनबन ,
अल्प ,लघु व चंद वर्ण की
चरित्रता का है वह तन ।

चरित्रवान का इस जगत में
मान-मर्यादा सब कुछ है ,
सफलता इनकी दासी है ,
ज्ञान इन्हीं का चक्षु है ।

किंतु यह सोचनीय बात है ,
चरित्र रहा न आज नर में ,
सफलता का जनक रहा जो ,
गिरा हुआ है घर-घर में ।

राजनीति का शोर विश्व में
आजकल है मचा हुआ ,
किंतु क्या यह तुच्छ जगत है
किसी कष्ट से बचा हुआ ?

राजनीति तो दिप्त अनल है ,
उसको क्या हम छू सकते ?
छूने को तो छू सकते ,
पर अपना हाथ जला सकते ।

राजनीति अपनाना है तो 
चरित्र हिम का लो औजार ,
नौका  रहित व्यक्ति कैसे
जा सकता है सागर के पार ?

आधुनिक मानव केवल
बल विक्रम को अपनाते हैं ,
मूल बिंदु है छिपा कहां
इसको वे जान न पाते हैं ?

परिणाम इसका होता है
दुख भुगतना पड़ता है ,
अनजाने में सर्प का काटा
मानव क्या नहीं मरता है ?

भारत को गुलाम होने में
क्या कारण था वह देखें ?
भारत को स्वतंत्र होने में
क्या कारण था यह पेखें ?

गांधी क्या थे और गोरांग सब ?
क्या था इनका मूलाधार ?
जितने देश आज उन्नत है,
क्या है उनका असल आधार ?

अतः ए निष्कर्ष निकलता ,
हमें चरित्र युक्त होना है ,
चरित्र खोकर क्या इस जगत में
अपने को नहीं खोना है ?

अनल बुझाने के हेतु
कुछ कण अंबु का आता है ,
आग लगाने के हेतु
लकड़ी को लाया जाता है ।

शांति की दंडी को क्षैतिज
चरित्र मात्र कर सकता है ,
राजनीति , कानून वगैरह
मंद यहां पड़ जाता है ।

अतः यदि हम चरित्रवान हो
राजनीति को अपनाएं ,
न्याय के संग कानून ,नियम को
निष्पक्ष बनके आजमाएं ।

दुनिया की समग्र कठिनता
निष्कंटक मार्ग बनाएगी ,
ठोकर देने पर भी शांति
दूर नहीं जा पाएगी ।

बिना चरित्र के राजनीति
कभी सफल नहीं हो पाएगी,
धागा बिन लंबी माला
पुष्पों से क्या बन जाएगी ?

अतः चरित्रता माता है
  और सभी इसकी संतान ,
क्या ऐसा है कभी हुआ कि
बिन माता जन्मी  संतान ?

************समाप्त****"*******

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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मंगलवार, 10 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय - 4 )


अर्जुन को ज्ञान , कर्म और संन्यास का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

गीता काव्यानुवाद

अध्याय- 4
इस अध्याय में अर्जुन को ज्ञान कर्म संन्यास आदि का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन से बोले भगवान ,
इस योग की महिमा महान ,
सूर्य प्रथम जिनको सुनाया,
स्व सूत मनु को वे बतलाया ,
मनु स्व सूतों को बतलाया ,
पुत्र इक्ष्वाकु को समझाया ।

परंपरा से प्राप्त इस योग को ,
राजऋषियों ने तब  जाना ,
बहुत काल तक लुप्त रहा यह ,
सब विज्ञों ने ऐसा माना ।

प्रिय सखा तू भक्त है मेरा ,
इस हेतु यह योग बताया ,
इस रहस्य को है समझाया ,
मुक्ति मार्ग को है दिखलाया
गोपनीय यह इसको मानो ,
गुप्त रखो मन में यह ठानो।


अर्जुन बोला - हे श्रीमान !
एक प्रश्न और कृपानिधान ,
सूरज का जन्म बहुत पुराना ,
कल्प आदि में कहे जमाना ,
इस युग में है जन्मे आप ,
नहीं समझ में आती बात,
सूर्य से कैसे कहे आप,
कृपा कर बतलाएं नाथ ।

अर्जुन से तब बोले- नाथ ,
इसका उत्तर सुन तू पार्थ ,
तेरा मेरा जन्म अनेक ,
इस युग में उनमें से एक ,
अपने पूर्व जन्म को तू ,
नहीं जानता अर्जुन तू ,
अपने पूर्व जन्म को अर्जुन ,
अच्छी तरह जानता , सुन ।

अजन्मा ,अविनाशी मैं,
सभी जीवों का मैं हूं नाथ ,
योगमाया से हो प्रकट ,
सब जीवों का देता साथ ,
अपनी प्रकृति कर अधीन ,
जन्म लेता , होता विलीन ।

जब जब होती धर्म की हानि ,
बढ़े अधर्म  जभी इस भू पर ,
तब तब जन्म है होता मेरा ,
जिससे विजय करे सु कु  पर।
अथवा
जब-जब धर्म की होती हानि,
और अधर्म है भू पर बढ़ता ,
धर्म उत्थान के हेतु अर्जुन ,
वैसी आत्मा सृजन करता ।

पाप कर्म के नाश के हेतु ,
साधु जन उधार करन को। ,
युग-युग में मैं प्रकट हुआ हूं ,
आश्रय दिया  और धर्म को।

मेरा जन्म कर्म सुन अर्जुन,
दिव्य अलौकिक है तू जान ,
तत्त्व से लेता जान है जो जन ,
पूनर्जन्म नहीं होता मान ,
मेरे लोक को वह पा जाता ,
मुझे प्राप्त कर वह तर जाता।

राग भय और क्रोध से मुक्ति ,
पाकर के पहले भी बहुत जन ,
मेरे शरण और दिव्य प्रेम को ,
प्राप्त किया है उनका तन मन।

मुझको जो भजता है जैसा ,
मैं भी उनको मिलता वैसा ,
सब अपनाते मेरा मार्ग ,
और न भू पर कोई मार्ग ।

मनुज लोक में रहने वाला ,
कर्म फल को चाहने वाला,
देवों को पूजते ऐसा जन ,
शीघ्र फल चाहे उनका मन।

गुण और कर्म के अनुसार,
चारों वर्ण रचा हूं यार ,
मुझे ही जानो सबका कर्त्ता ,
वास्तव में मैं हूं अकर्त्ता ।

नहीं कर्म के फल में स्पृहा है मेरी ,
अत: कर्म नहीं मुझे लिप्त सम्मोहित करता ,
मुझे तत्त्वों से जान समझ लेता है कोई ,
उसे कर्म भी नहीं लिप्त या मोहित करता।
( स्पृहा = चाहत )

इसी ज्ञान के ही अनुसार ,
पूर्वकाल के वासी यार ,
मुक्ति  अभिलाषी जन- मन ,
कर्म किया है उनका तन ।
पूर्वजों के ही अनुसार ,
कर्म करो नहीं कर तकरार ।

क्या है कर्म और अकर्म ?
इसे बताता है सुधर्म ,
इसे समझना बहुत गहन,
भ्रमित हो जाता बुद्धिजन ,
अर्जुन पुनः मैं उसे सुनाता ,
जिसे सुन सब मुक्त हो जाता।

क्या है कर्म ,विकर्म ,अकर्म ,
इन्हें समझना मानव धर्म ,
इसे समझ जो जाता है,
विज्ञ वही कहलाता है ।
( विकर्म = वर्जित कर्म , अकर्म = निष्क्रियता )

कर्म ,अकर्म , विकर्म जो जाने ,
कहे कृष्ण वही सज्जन है ,
इन तीनों को हरदम समझो ,
क्योंकि कर्म की गति गहन है।

कर्म में देखें जो अकर्म ,
और अकर्म में देखे कर्म ,
मनुज़ो में वह विज्ञ कहाता ,
सभी कर्म स्वयं सिद्ध हो जाता।
अथवा
कर्मों में अकर्म जो देखे,
या अकर्म में देखे कर्म ,
सभी कर्म के कर्त्ता ए नर ,
विज्ञ मनुज का यही धर्म ।

लोभ लालच हीन जिसका ह्रदय ,
ज्ञान युक्त कर्म हो जिनका ,
शास्त्र सम्मत सुकर्म हो जिनका ,
पंडित सा मन होता उनका ।

कर्म फलों की सब आसक्ति,
जिन्हें नहीं है विचलित करती ,
सदा तुष्ट रहता उनका मन,
और स्वतंत्र रहता है ए जन ,
सभी कर्म के कर्त्ता यह तन ,
फिर भी अकर्त्ता है यह जन ।

जिनका मन बुद्धि है संयमित ,
स्वामित्व धन संपत्ति को त्यागा ,
तन निर्वाह के लिए कर्म करे ,
उनसे दूर पाप है भागा ।

अपने लाभ से तुष्ट है जो जन ,
मन: द्वन्द ईर्ष्या से मुक्त मन ,
सिद्धि असिद्धि में सम जो ,
कर्म नहीं बांधे उनका तन ,
कर्म करें फिर भी अकर्त्ता,
कर्म योगी संसार है कहता ।

देह अभिमान हीन  जिनका तन ,
भौतिक गुण से मुक्त है जो जन ,
दिव्य ज्ञान  में स्थित है मन ,
ब्रह्म ही बन जाता उनका धन ,
उनका कर्म ब्रह्मलीन  होता ,
ऐसा जन नहीं पापी होता ।

ब्रह्म यज्ञ और हवन ब्रह्म हो,
आहुति व कर्म ब्रह्म हो ,
इस सब का भी फल ब्रह्म है,
पुनीत पावन इनका मर्म है।

कुछ जन यज्ञों के ही द्वारा ,
देवों की है पूजा करते ,
परम ब्रह्म रूपी अग्नि में ,
और कुछ आहुति करते ।

अपने मन पर करके वश,
श्रोत्र आदि पर लाते कस ,
कुछ योगी लाते हैं वश ,
शब्द आदि पर करते कस ।

इंद्रियों का कार्यकलाप ,
प्राणों का भी सभी आलाप ,
आत्म संयम से रोके जो ,
ज्ञान योग कहलाता वो ।

बहुत द्रव्य से करते यज्ञ ,
तप यज्ञ करते कुछ सज्ञ,
योग यज्ञ करते कुछ ध्यानी ,
स्वाध्याय यज्ञ करते हैं ज्ञानी ।

अपान वायु में प्राण वायु को
हवन है करते कुछ विज्ञानी ,
प्राण वायु में अपान वायु को
भस्म हैं करते कुछ ध्यानी ।
( अपान = निम्नगामी )

नियमित आहार के कर्त्ता
प्राणायाम परायण जन ,
प्राण और अपान आयु रोक ,
करे प्राण को आत्म हवन ,
यज्ञों द्वारा यह सब साधक ,
पापों का नाश हैं करते ,
यज्ञ विज्ञ कहलाते हैं ये ,
नहीं किसी भय से ए डरते।

यज्ञ फल अमृत को पीकर ,
परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाते ,
पुनर्जन्म से मुक्ति पाकर ,
पुनः नहीं धारा पर आते ,
बिना यज्ञ के ऐसा जन जब ,
इस जीवन में रह नहीं सकते ,
पुनर्जन्म ले ऐसा जन तब
यज्ञ बिना कैसे रह सकते।

ए सब यज्ञ वेद है कहता ,
सज्ञ विज्ञ है जिसको करता ,
मन से ,कर्म से ,इंद्रियों से ,
जान तत्त्व से तू भी कर ,
कर्म बंधन से मुक्त तू होगा,
नहीं किसी भय से तू डर ।

द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ
होता सर्वोत्तम जानो ,
सभी कर्म का अंत सुनो ,
ज्ञान में है होता मानो।

नमन विनय सेवा जिज्ञासा
से विज्ञ प्रसन्न हो जाते ,
अकड़ छोड़ जो प्रश्न है करता ,
उसका उत्तर हैं बतलाते ,
और विशेष में इन ज्ञानों को ,
इन विज्ञों से समझो जाकर ,
सब संशय मिट जाता  अर्जुन,
ऐसा साधु संगत पाकर।

मोह नाश सब है हो जाता ,
इन ज्ञानों के कारण अर्जुन ,
स्व आत्मा पहचानेगा तू
मुझको तत्त्व से जानेगा तू ,
सब पाओगे अपने मन में,
अपने को तू मेरे तन में।

सभी प्राणियों से भी ज्यादा
अपने को गर पापी मानो ,
ज्ञान रूपी नौका पाकर के
तर जाओगे ऐसा जानो।

प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला से
सभी ईंधन जलते हैं जैसे ,
सभी कर्मफल भय सुन अर्जुन ,
ज्ञान अग्नि में जलते वैसे ।

सुनो वीर अर्जुन महान ,
ना कुछ पावन ज्ञान समान ,
कर्म योग में रमता जो तन ,
स्व आत्मा में पता वह जन ।

श्रद्धालु है ज्ञान को पाते ,
इंद्रियों पर वश तब लाते ,
जितेंद्रिय बन सुख पाते ,
परम शांति में रम जाते ।

अविश्वासी श्रद्धाहीन
अज्ञ नहीं पाते हैं सुख को ,
इस लोक और परलोक में
खोजते रहते हैं वो दुख को ,
संदेह ही उनका आचार ,
उनका कर्म है भ्रष्टाचार।

दिव्य ज्ञान से संशय को
नाश किया है जो विद्वान ,
कर्म फलों पर ध्यान न देकर
परब्रह्म भजता सुजान ,
कर्म न बांधे ऐसा मन ,
कहलाता है विज्ञ सजन ।

अतः हे अर्जुन! तू दो ध्यान ,
ज्ञान से जीतो मन अज्ञान ,
मन संशय को करके नाश ,
कर्म योग पर कर विश्वास ,
युद्ध के लिए हो तैयार ,
न दुविधा में पड़ तू यार।

*********अध्याय- 4 समाप्त *************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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सोमवार, 9 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 3 )

 

ज्ञान और कर्म में श्रेष्ठ कौन अर्जुन का प्रश्र और श्रीकृष्ण का उत्तर

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 3
इस अध्याय में अर्जुन के प्रश्न ज्ञान और कर्म में कौन श्रेष्ठ है  का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया है। इस अध्याय को कर्म योग भी कहते हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
कर्म से बुद्धि ( ज्ञान ) गर है श्रेष्ठ ,
फिर क्यों कर्म करे भगवान ,
फिर क्यों दारूण कर्म क्षेत्र में ,
मुझे ढकेलते हैं श्रीमान ।

बहुत अर्थयुक्त इन बातों से ,
भ्रम युक्त है मेरी बुद्धि ,
अतः आप स्पष्ट बताएं ,
जिससे पाऊं मैं सुबुद्धि।

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन सज्ञान ,
आत्मज्ञान का दो प्रकार ,
पहले ही कह चुका हूं यार ,
ज्ञान से पाते सांख्य योगी ,
कर्म से पाते कर्मयोगी।

कर्म से विमुख हो कोई,
नहीं कर्म से मुक्ति पाया ,
ना सन्यास को अपनाकर
कोई सिद्ध पुरुष कहलाया।

न जन कोई किसी काल में ,
बिना कर्म क्षणभर रह सकता ,
प्रकृति गुण से सब मंडित ,
अतः विवश हो कर्म है करता ।

इंद्रियों को बलपूर्वक रोके ,
मन से विषयों को ना हटाए ,
मिथ्याचारी दम्भी वह है ,
ऐसा जन मुझको नहीं भाए ।

मन से इंद्रियों पर वश कर ,
कर्म करे मुझको वह भाए ,
नहीं लोभ लालच है जिसको,
कर्म नहीं उसको भरमाए ।

शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर ,
क्योंकि कर्म है श्रेष्ठ कहाता ,
तन निर्वाह के हेतु अर्जुन ,
कर्म सभी से उत्तम आता ।

यज्ञ कर्म ही मानव मुक्ति ,
दूजा कर्म कर्म का बंधन ,
फल की चिंता कर्म का बंधन,
चिंता रहित कर्म अबंधन ,
कहा कृष्ण सुनो हे अर्जुन!
फल-भय रहित कर्म अबंधन ।

कल्प आदि में यज्ञ सहित
प्रजा रचे प्रजापति ,
प्रजा से बोले श्रीमान ,
यज्ञ करो तुम सब विद्वान ,
सब बुद्धि , भोग व धन ,
देगा यज्ञ सुनो सब जन ।

यज्ञ उन्नत करता सब देव ,
देव उन्नत करता सब जन ,
एक दूजे को करो उन्नत ,
प्रेम पूर्वक रहो सब जन ।

देवता जब होंगे उन्नत ,
इच्छित भोग करें प्रदान ,
इन भोगों का कुछ अंश ,
नहीं पुनः जो करता दान ,
बिना दान स्वयं भोग जाता,
चोर नीच जन वह कहलाता ।

यज्ञ से बचा हुआ जो अन्न
को खाए है उत्तम जन ,
मन: दोष पापों को हरता ,
मन में मधुर शांति भरता ,
सिर्फ पेट पाले जो जन ,
सब कहते  उसे अधम ।

प्राणी की उत्पत्ति अन्न से ,
अन्न पे आश्रित है सब प्राणी ,
वृष्टि करती अन्न उत्पादन ,
यज्ञ पे आश्रित है सब दानी ,
नियत कर्मों से यज्ञ है होता ,
इसे सुनो तू अर्जुन ज्ञानी।

वेदों से उत्पति कर्म की ,
ऐसा कहते हैं विज्ञानी ,
परमब्रह्म अक्षर से अर्जुन ,
जन्मा वेद सुनो तू ध्यानी ,
परम ब्रह्म शाश्र्वत ईश्वर को
यज्ञों में स्थित तू जानो ,
अतः कर्म कर यही धर्म है ,
धर्म न दूजा है यह मानो ।

परंपरागत प्रचलित कर्मों को
नहीं करता जो ,
कर्म हीन कर्तव्य च्युत वह
है नहीं सज्जन सो,
इंद्रिय भोग हेतु कर्म को करता ,
स्वार्थ में जीता ,स्वार्थ में मरता ,

अतः तू अर्जुन सुन यह बात ,
जिसे बताता हूं मैं तात!
आत्मा में ही करे रमन ,
आत्मा में ही तृप्त जो जन ,
आत्मा से संतुष्ट है जो
सभी कर्म से मुक्त है वो।

ऐसा जन तू सुन सुजान ,
नहीं कर्म पर देता ध्यान ,
नहीं स्वार्थ से है संबंध ,
आत्मायोग में रहता बद्ध ,
ऐसा जन निर्लिप्त कहाता ,
सभी ग्रंथ ऐसा  बतलाता।

बिन आसक्ति होकर तू ,
कर्म करो यह नीति सु ,
अनासक्त जो करता कर्म ,
प्राप्त है करता परमब्रह्म ।

जनक आदि भी ज्ञानी जन ,
बिना आसक्ति किए थे कर्म ,
परम सिद्ध कहलाते आज ,
पुरुषों में बने सिरताज ,
जनहित में तू करो कर्म ,
और न दूजा तेरा धर्म ।

श्रेष्ठ पुरुष जो जो हैं करते ,
अन्य पुरुष उसको अपनाते ,
जो आदर्श वह प्रस्तुत करते ,
वो आदर्श नियम बन जाते ।

ना कुछ करना मुझे शेष है ,
न अप्राप्त कुछ अर्जुन मुझको ,
फिर भी कर्म को करता हूं मैं ,
ताकि करें सभी जन उसको ।

गर मैं कर्म करूं नहीं अर्जुन ,
सब अकर्मक बन जाएंगे ,
सभी मार्ग अपनाते मेरा ,
बिन कर्मों के मर जाएंगे ।

यह संसार हमें दोषी मानेगा ,
नष्ट भ्रष्ट समाज हमें भोगी जानेगा ,
वर्णसंकरों  से समाज संपूर्ण हो जाए ,
क्योंकि मेरा कर्म सभी जन मन को भाए ।

आसक्त अज्ञानी जन
चाहे कर्म हैं करते जैसा ,
निर्लिप्त ज्ञानी जन
छेड़ें नहीं कर्म को वैसा ,
क्योंकि अज्ञानी जड़ होते ,
अनुचित इनका घर होते ।

हठी को हठ से नहीं तोड़ो ,
नहीं मूर्खता पर ही छोड़ो ,
उचित कर्म और विनम्र हो ,
ज्ञानी जन उनका मन मोड़ो।

प्रकृति के गुणों द्वारा ही ,
सभी कर्म को जन है करता ,
जिसका मन अहंकार युक्त है ,
अपने ही को कहता कर्त्ता ।

गुण विभाग और कर्म विभाग
के तत्त्व जो जाने ,
सभी धर्म और सभी ग्रंथ
इन्हें ज्ञानी माने ,
इन्हें आसक्ति ना भरमाती ,
ना कोई माया नाच नाचाती ।

प्रकृति गुणों कर्मों में
लिप्त हैं रहते भू के प्राणी ,
अतः यह कर्तव्य है बनता
न विचलित करें इनको ज्ञानी ।

अपने सभी कर्मों  को मुझ पर
छोड़ पार्थ तू युद्ध करो ,
आशाहीन संतापहीन निर्मम
मन करके तू वध करो ,
मुझ पर तू विश्वास करो ,
दुर्योधनों को नाश करो ।

श्रद्धा युक्त अदोष दृष्टि से
इस मत को जो माने मन ,
सभी कर्मों से मुक्ति पाकर
पाप मुक्त तर जाते जन ।

मुझ में दोषारोपण करते
अज्ञानी मन ,
इन मतों के साथ न चलते ,
ए मूर्ख जन ,
भ्रम युक्त मोहित मन इनका,
कलह क्लेश कर्म है जिनका ,
नष्ट भ्रष्ट ऐसा जन होते ,
अंत में अपना कर्म पर रोते ।

सभी प्राणी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करते कर्म ,
ज्ञानी  भी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करें सुकर्म
हठी इसमें विघ्न ले आते ,
अपने को नेता बतलाते ।

सभी इंद्रियों के विषयों में
राग द्वेष स्थित है जानो ,
ज्ञानी इनके वश नहीं होते ,
ऐसा मेरा मत है मानो ,
राग द्वेष से न कल्याण ,
ए हैं विघ्न व शत्रु महान ।

अपना धर्म गर गुण रहित हो ,
दूसरे के सुधर्म से उत्तम ,
अपने धर्म में मर जाना भी,
पर धर्म से है सर्वोत्तम ,
अपना धर्म कल्याण का कर्त्ता ,
पर का धर्म भय है भरता ।

अर्जुन उवाच-
कहा पार्थ - सुने भगवान ,
जन क्यों करता पाप महान ?
उससे कौन कराता पाप ?
मुझे बताएं प्रभु आप ।

श्रीकृष्ण उवाच -
काम कामना जनक क्रोध का ,
रजोगुण इन सबका दाता ,
नहीं तृप्ति होती है इनसे ,
महानाश नर इनसे पाता ।

धूम्र से अग्नि , मैल से दर्पण ,
झिल्ली गर्भ को ढकती जैसे ,
ज्ञान को काम क्रोध है ढककर ,
नर में बैठे रहते वैसे ।

काम रूपी भीषण अग्नि में ,
ज्ञानरूपी आत्मा जल जाती ,
मन अशांत नर का हो जाता,
अच्छी बातें समझ नहीं आती।

मन इन्द्रियां बुद्धि अर्जुन ,
इनके बास का स्थल जानो ,
इन उपरोक्तों के कारण से
ज्ञान आच्छादित ऐसा मानो,
  जीव आत्मा को मोहित करता ,
जिससे मानव भ्रम में पड़ता ।

पहले इंद्रियां तू वश कर ,
जिससे नाश नहीं हो ज्ञान ,
पापी काम को जीतो मन से,
जिससे विजय करे विज्ञान ।

जड़ से काम इंद्रियां श्रेष्ठ है ,
मन इनसे होता है जेष्ठ ,
मन से बुद्धि होती उत्तम ,
पर आत्मा सब में सर्वोत्तम ।

सूक्ष्म आत्मा को बुद्धि से ,
जानो पार्थ , बनो विद्वान ,
मन को वश करो बुद्धि से ,
दूर करो अपना अज्ञान ,
नहीं काम से हारो अर्जुन ,
पहले काम को मारो अर्जुन ।

**********अध्याय-3 समाप्त ****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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रविवार, 8 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय २ )

 

शोकाकुल अर्जुन को युद्ध करने का उपदेश देते श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय २
शोक आकुल अर्जुन को युद्ध करने हेतु भगवान कृष्ण का उपदेश जिसे कुछ रचनाकार सांख्य योग भी कहते हैं इस अध्याय में वर्णित है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

संजय उवाच -
संजय बोला- सुने नृप महान ,
व्याकुल हैं अर्जुन सुजान,
शोक युक्त आंसू से तर,
करुणा युक्त दिखे नजर ,
ऐसा अर्जुन से श्रीमान !
यह बोले केशव भगवान ।

समझ न आती हे अर्जुन !
मोह कहां से आया बन ,
इस समय में तू मोहित ,
नहीं विजय हेतु है हित ,
नहीं श्रेष्ठ जन द्वारा मान्य,
नहीं स्वर्ग हेतू सुजान ,
नहीं यश कृति ले आए ,
उल्टे नर अपयश को पाए ।

अतः हे अर्जुन ! सुन दे ध्यान,
कायरता का कर नहीं मान ,
मन की दुर्बलता कर त्याग ,
युद्ध करो ,मत सोओ , जाग ।

केशव से बोला तब पार्थ ,
सुने प्रभु , सुने हे नाथ !
पितामह ,आचार्य से युद्ध ,
कैसे लडूंगा बन के क्रुद्ध ,
पूजनीय ये दोनों नाथ ,
सदा नवाया इन पर माथ ।

इन गुरुओं को न मैं मार ,
भीख मांगने को तैयार ,
रुधिर से सने हुए यह भोग ,
अर्थ , कामना ,काम का रोग ,
नहीं चाहता हूं माधव ,
नहीं चाहता हूं यादव ।

नहीं समझ आती माधव ,
शांति श्रेष्ठ या युद्ध यादव ,
हम जीते या वे जीते ,
यह भी समझ नहीं पाते ,
धृतराष्ट्र पुत्रों को माधव ,
नहीं मारना चाहूं यादव।

कायरता दोष से मैं मोहित ,
धर्म समझ नहीं आता मुझको ,
क्या है उचित और अनुचित ,
मंगलमय बतलाए उसको ,
मैं हूं शिष्य उबारे मुझको,
शरणागत हूं तारे मुझको।

इस भू का निष्कलंक राज व
धन्य-धान्य से युक्त समृद्धि ,
इंद्रासन भी अगर मिल जाए ,
सभी शोक में करते वृद्धि ,
नजर न आता कोई साधन ,
जिससे शांत बने मेरा मन ।

संजय बोला- हे नृप ! महान ,
आगे यह है हाल सुजान ,
नहीं लडूंगा मैं  गोविंद ,
नहीं लडूंगा हे अरविंद !

संजय बोला- हे  महाराज !
सुने आगे का यह हाल ,
समर बीच शोक से आकुल ,
अर्जुन बैठे हैं व्याकुल ,
विहस प्रसन्न मुख से श्रीमान ,
अर्जुन से बोले भगवान ।

अर्जुन से बोले- भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन महान ,
शोक योग्य जो है नहीं जन ,
फिर आकुल क्यों तेरा मन ?
जो भी होते हैं विद्वान ,
नहीं शोक करते सुजान  ,
नहीं जीवित हेतु आकुल ,
नहीं भूत हेतु व्याकुल।

नहीं कोई काल कि जिसमें
तू नहीं था ,
नहीं है कोई काल कि जिसमें
मैं नहीं था ,
ना कोई है काल कि जिसमें
ए नृप नहीं थे,
ना है आगे काल कि हम सब
न रहेंगे ।

बाल अवस्था ,युवा अवस्था ,
वृद्ध अवस्था तन में जैसे ,
भिन्न-भिन्न शरीर को आत्मा ,
मरने पर है पाता वैसे ,
धीर पुरुष इसे सहज में लेते ,
अधीर सम्मोहित मोहित होते ।

सर्दी-गर्मी , सुख-दुख का ,
विषय और इंद्रियां कारण ,
उत्पत्ति-विनाश ,अनित्य-क्षणिक
जिसको विज्ञ हैं करते धारण।
अतः इसे अनित्य जानकर ,
सहन करो इसे नित्य मानकर ।

इंद्रियां और विषय-वासना ,
सुख-दुख का प्रभाव न होता ,
शांत चित्त निर्लिप्त बना वह ,
मोक्ष योग्य नर वह है होता ।

असत् वस्तु की सत्ता ना होती ,
सत् का ना होता अभाव ,
तत्त्वज्ञानी इसे तत्त्व से देखे ,
अज्ञानी का उल्टा भाव।

नाश रहित आत्मा तू जान ,
पूर्ण जगत सर्वत्र तू मान ,
इस अविनाशी के विनाश को ,
नहीं कोई समर्थ है जान ।

अविनाशी , अप्रेमय , शाश्वत
आत्मा के सब भौतिक तन
नाशवान है जानो अर्जुन ,
अतः युद्ध में रतकर मन।
(अप्रेमय = न मापने योग्य )

मूरख जन प्रायः अर्जुन सुन ,
इसका वध और मरा समझते ,
अमर अवध यह ब्रह्मांश है ,
वास्तव में वे नहीं जानते ।

नहीं जन्म ले ,नहीं मरण हो ,
ना पैदा होता , नहीं मरता,
नित्य सनातन अज पुरातन ,
मरता तन पर यह नहीं मरता।

नाश रहित नित्य अजन्मा ,
व अव्यय जो  इसको माने ,
नहीं मार सकता ,मरवाता ,
इसी तत्त्व को है जो जाने ।

जीर्ण वस्त्र को छोड़कर जन तन ,
नया वस्त्र को धरता जैसे ,
जीर्ण शरीर को त्याग जीवात्मा ,
नया देह में जाता वैसे ।

शस्त्र न काटे ,जल न गलाए ,
नहीं जलाती इसको आग ,
नहीं सुखाए इसको वायु ,
नहीं किसी का लगता दाग ।

यह आत्मा अच्छेद्य ,अशोष्य ,
अदाह्य , स्थिर  और अचल ,
सर्वव्यापी और नित्य सनातन ,
अघुलनशील और निर्मल ।

यह आत्मा अव्यक्त ,अचिंत्य ,
मल रहित और निर्मल जानो ,
जैसा वर्णन ऊपर आया ,
उसको भली-भांति पहचानो ,
अतः शोक नहीं कर तू भाई,
शोक बहुत ही है दुखदाई ।

अगर इस आत्मा को तुम अर्जुन,
सदा जन्मने वाला माने ,
इसकी मृत्यु भी होती है
ऐसा तेरा मन है जाने ,
तो भी शोक नहीं कर भाई ,
शोक बहुत ही है दुखदाई।

जो जन्में मृत्यु है निश्चित ,
मरे हुए का जन्म है निश्चित ,
अपरिहार्य यह विषय तू जानो ,
इस पर शोक व्यर्थ है मानो।
( अपरिहार्य = अवश्यंभावी )

जन्म से पहले सब प्रकट नहीं ,
मरने पर भी सब अप्रकट ,
जन्म मरण के बीच ही अर्जुन,
सभी प्राणी रहता है प्रकट ,
जब ऐसी स्थिति है यार ,
इस पर चिंता है बेकार।

कुछ इसको आश्चर्य से देखें ,
कुछ इसको आश्चर्य से सुने ,
कुछ तत्त्व से कहते इसको ,
कुछ सुनकर न माने इसको।

नित्य अवध सदा यह आत्मा ,
जो है रहता सब के तन में ,
सब भूतों के लिए अतः तू
शोक नहीं कर अपने मन में।

तू है क्षत्री युद्ध धर्म है ,
और न दूजा कर्म है तेरा,
अतः नहीं भयभीत हो अर्जुन ,
नहीं शोक का कर्म है तेरा ।

ऐसा युद्ध के अवसर पाते ,
भाग्यवान क्षत्री सुन अर्जुन ,
सुलभ स्वर्ग उनको होता है,
अतः इसे लड़ो सुन अर्जुन।

धर्म युक्त इस युद्ध को ,
तू यदि नहीं करेगा ,
धर्म और कृति को खोकर ,
बहुत बड़ा पाप करेगा।

बहुत काल तक कथन करेंगे ,
अपयश तेरा भू के सब जन ,
अपयश मृत्यु सा है उनको ,
जो है मानित सम्मानित जन।

युद्ध नहीं करने से अर्जुन ,
कायर में गिना जाएगा ,
जिनकी नजरों में शूरवीर है,
उन नजरों से गिर जाएगा ,
सभी तुझे कायर कहेंगे ,
निर्बल नर तुझे बतलाएगें ।

बैरी जन निंदा करेंगे ,
अकथनीय वचन कहेंगे ,
जिससे तू दुख प्राप्त करेगा ,
अपनी शांति नष्ट करेगा।

अत: युद्ध कर हे तू अर्जुन !
मरने पर भी स्वर्ग धरेगा ,
अगर जीता संग्राम तू अर्जुन ,
धारा के तू राज्य करेगा ।

जय- पराजय , लाभ -हानि व
सुख- दुख को तू ,
एक समान समझकर के अब
युद्ध करो तू ,
इस प्रकार पापी जन में तू
नहीं आएगा ,
पराक्रमी शूरवीर उत्तम जन में
गिना जाएगा ।

ज्ञान योग का विषय बताया,
कर्म योग का अब सुन अर्जुन ,
गर इस पर तू ध्यान करेगा ,
कर्म का बंधन नहीं धरेगा ।

इस कर्म योग प्रयास में ,
नहीं ह्रास नहीं हानि होती ,
अल्प प्रगति भी मंगलमय ,
सभी भय से रक्षा करती ।

दृढ़ प्रतिज्ञ होते कर्मयोगी ,
लक्ष्य भी उनका निश्चित होता ,
ज्ञानहीन का लक्ष्य अस्थिर ,
कर्म अनिश्चित उनका होता ,
जब पाते अवसर वो जैसा ,
कर्म मर्म बदलते वैसे ।
         अथवा
स्थिर बुद्धि व्यवसायी की ,
कर्मक भी कहा यह जाता ,
इनका लक्ष्य भी एक है होता,
नहीं समय यह व्यर्थ में खोता ,
अकर्मक व अव्यवसायी का ,
कोई नहीं लक्ष्य है होता ,
अस्थिर चंचल वह है रहता ,
सदा कलह व द्वेश है करता।

अलंकारिक वेद शब्दो में ,
अज्ञानी है भटका करते ,
स्वर्ग की प्राप्ति हेतु अच्छे जन,
प्रभुसत्ता हेतु कर्म हैं करते ,
इंद्रिय तृप्ति, ऐश्वर्य इत्यादि
हेतु जो जीवन गंवाते ,
अपने को सर्वज्ञ बताते ,
अंत आने पर है पछताते ।
अस्थिर जन इनको जानो ,
त्याज हैं ए ऐसा तू मानो ।

इंद्रिय भोग ,भौतिक ऐश्वर्य में ,
अत्याधिक लिप्त जो होते ,
इसके मोह में भटका करते ,
परम ब्रह्म को प्राप्त न करते ।

प्रकृति के तीनों गुणों का ,
वेदो में वर्णन है जानो ,
इन तीनों से ऊपर उठकर
अभय बनो सत्य पहचानो ,
लाभ सुरक्षा की चिंताओं
से अपने को मुक्त बनाओ,
द्वैत- अद्वैत का अंतर जानो ,
आत्म परायणता को पहचानो।
( द्वैत अद्वैत = ज्ञान अज्ञान )

बड़ा जलाशय के रहने पर,
कूप भी उपयोगी है जैसे ,
ब्रह्म को तत्व से जानने वाला,
वेदों को भी जाने वैसे ।

सिर्फ कर्म अधिकार तुम्हारा ,
कर्म-फल चिंतक है हारा ,
कर्म-फल भय करे अकर्मक,
हारा नहीं है कोई कर्मक ।

पहले आसक्ति को त्यागो ,
सिद्धि असिद्धि में हो सम  ,
कर्म योगी बन कर्म करोगे ,
समत्व योग का पद पाओगे ।

गर्हित कर्म से दूर रहो तुम ,
गर्हित कर्म त्याज है जानो ,
ज्ञान योग का आश्रय लेकर
किया कर्म को उत्तम मानो,
सिर्फ कर्म फल की आशा में ,
उत्कट इच्छा अभिलाषा में ,
बिना विचारे जो करता है,
नीच कृपण का पद धरता है ।
( गर्हित = निंदनीय )

सम बुद्धि से युक्त  विज्ञ जन ,
इसी लोक में मुक्त हो जाता ,
पाप-पुण्य ,उत्तम व अधम
कर्म नहीं उसको भरमाता ,
अतः समत्व योग है उत्तम ,
अपनाओ यह है सर्वोत्तम ।

बुद्धि युक्त ज्ञानी जन अर्जुन ,
कर्मफल पर ध्यान न देते ,
कर्म को करते, कर्म में जीते ,
जन्म बंधन से मुक्ति पाते ,
निश्चित परम पद पा जाते ,
सभी शास्त्र ए सीख  सिखाते ।

मोह रूपी दलदल को अर्जुन ,
ज्योंहि बुद्धि पार करेगी ,
भूत भविष्य परलोक की
सब भोगों को भूल जाएगी,
बैरागी खुद बन जाओगे,
नहीं कर्म पर पछताओगे ।

नाना ढंग के वचनों द्वारा
विचलित हुई है जो बुद्धि ,
परमात्मा में स्थिर होगी
सज्ञ कहेंगे तुमको योगी ।

केशव से तब पूछा पार्थ
स्थिर बुद्धि क्या है नाथ ?
लक्षण स्थिर बुद्धि क्या ?
कृपा कर इसे करें बयां ,
स्थिर बुद्धि जन बोलते कैसे ?
स्थिर बुद्धि जन चलते कैसे ?
कैसे बैठते समाधिस्थ हो ?
परमात्मा को भेजते कैसे ?

अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर ए ज्ञान महान ,
मन कामना को त्यागे जो ,
स्थिर प्रज्ञ कहलाता  वो ,
अपने आप में जो संतुष्ट ,
आत्मा से आत्मा में तुष्ट ,
सभी काल यह ज्ञान बताता ,
स्थिर जन है यह कहलाता ।

दुख आने पर ना घबराए ,
सुख पाने पर न इतराए ,
राग क्रोध भयहीन है जो ,
स्थिर जन कहलाता सो ।

शुभ में खुशी ,न अशुभ में द्वेष ,
निर्लिप्त सा रखता भेष ,
सब में ए जन उत्तम आता,
स्थिर ज्ञानी ए कहलाता।

सब अंगों को समेट के कछुआ ,
आसपास से स्थिर जैसे,
इंद्रियों को विषयों से दूर
मानव कर लेता जब वैसे ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाता,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता ।

इंद्रिय भोग से निवृत्त होकर
इसकी इच्छा तब भी रहती ,
जिससे मानव मुक्त न होता,
आसक्ति आकर है धरती ,
अध्यात्म मुक्ति दिलाता ,
परमात्मा का पथ दिखलाता ।

आसक्ति अविनाशी अर्जुन ,
इंद्रियां इस हेतु प्रबल ,
वेगवान इतनी है अर्जुन ,
रोक नहीं सकता कोई बल ,
जिससे मन को हर ले जाती ,
ज्ञानी को भी यह भरमाती।

सब इंद्रियों को वश करके ,
मुझको समाहित चित्त जपता ,
इंद्रजीत वह ध्यान में बैठे
अपने मन को स्थिर करता ,
स्थिर बुद्धि वह कहलाता ,
ऐसा ही सब शास्त्र बताता।

विषयों का चिंतन मोह आसक्ति ,
आसक्ति कर्म कामना उपजाता ,
क्रोध भयंकर प्रकट है होता ,
कामना में जब विघ्न है आता ।

क्रोध से मूढ़ बुद्धि है आती ,
इससे स्मृति खो जाती ,
जिससे भ्रम में नर पड़ जाता ,
बुद्धि ज्ञान नष्ट हो जाता ।

अंतःकरण जिनके अधीन ,
राग द्वेष से है वह हीन ,
मन प्रसन्नता प्राप्त है करता ,
सदा आनंद में विचरण करता ।

अंतःकरण प्रसन्न जब होता ,
सब दुखों का हो अभाव,
बुद्धि शुद्ध निर्मल बन जाती,
जिस जन का ऐसा सुभाव ,
परम ब्रह्म को खुद पा जाता ,
सभी विज्ञ यह भेद बताता ।

मन इंद्रियां अजीत जिनका ,
स्थिर बुद्धि है नहीं पाते ,
अंतः करण भावहीन होता ,
ऐसा जन नहीं शांति पाते ,
शांतिहीन कभी सुख नहीं पाए ,
सभी विज्ञ यह भेद बताए ।

जल पर जाती सुंदर नौका ,
वायु दूर बहा ले जाती ,
विषय युक्त गर एक भी इंद्री ,
मन को विचलित है कर जाती ,
मानव मन जब व्यग्र हो जाता ,
अपनी बुद्धि को खो जाता ।

विषयों से इंद्रियां जिनका
दूर है , मन निग्रह है उनका ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाते ,
सभी विज्ञ यह भेद बताते।

सोता जब सब जीव जगत का,
संयमी जागे रहते इसमें ,
जागे जब सब जीव जगत का ,
संयमी सोते रहते उसमें ।

नाना नदियों से जल पाकर ,
सागर स्थिर रहता जैसे ,
इच्छाओं के प्रचंड प्रहार से
विज्ञ अविचलित रहते वैसे ,
परम शांति को पाते ये जन ,
न अशांति टिक पाती मन ।

कामना हीन और इच्छा हीन
और अहंकार से वंचित जो जन ,
ममता न प्रभाव दिखाती ,
परम शांति को पाए सो मन ।

आध्यात्मिक जीवन का यह पथ
ईश्वरीय भी है कहलाता ,
नहीं मोह प्रभावित करता
जो इस मार्ग को है पा जाता ,
जीवन का अंतिम जब आता,
इस पथ से जो मानव जाता ,
परमानंद को प्राप्त हो जाता ,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता।

*******अध्याय दूसरा समाप्त ************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 7 मई 2022

गुणी पुरुषों का लक्षण





इंजीनियर पशुपति की नजर में गुणी पुरुष


कविता
गुणी पुरुषों के लक्षण
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

गुणी पुरुषों का देश नहीं ,
आज कहीं बसे , कल कहीं चले ,
विद्या आदर विश्वास मिले ,
ये बिना बुलाए वहां चले।

जहां नहीं उपरोक्त बातें,
ए बिना कहे वहां से टले,
जहां पर घोर अपमान मिले,
बिन आग के स्वयं जले ।

जहां करूणा सौहार्द मिले,
ए मोम बनें वहां पर गले,
जहां सज्जन विद्वान मिले,
बिना भोजन वहां पे पले।

जहां सौंदर्य मधुरता हो,
बिन साधन वहां पे फले,
जहां सभ्यता अनुशासन,
ए अपना नियम भी बदले।

जहां दुष्ट , शठ , धूर्त , चोर,
वहां नहला पे बने दहले ,
जहां अंतरंग मित्रता हो ,
वहां ए जाते हैं पहले।

दीनों हेतु ए दीनबंधु ,
जनकल्याण धर्म इनका ,
परोपकार दिनचर्या है ,
अपना फिक्र नहीं जिनका।

उन्नत समाज बनता इनसे ,
ए हैं रक्षक मानवता का ,
अनुसंधान सब इनकी देन,
ए वैरी हैं दानवता का।

इनका आदर और सम्मान,
करना चाहिए हम जन को ,
सब विकसित है इनके कारण,
नहीं जा पाये पतन को।
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इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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