रविवार, 22 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 12 )

       अर्जुन को भक्ति की महिमा का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण


कविता 

गीता काव्यानुवाद

अध्याय 12

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्ति की श्रेष्ठता का उपदेश दिए हैं।


रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


अर्जुन उवाच-
भक्ति पूर्वक भजे आप सा
सगुण ब्रह्म ईश्वर साकार ,
और जो दूजा भजे ज्ञान रूप
अविनाशी ब्रह्म नि:आकार ,
इन सज्ञों में श्रेष्ठ कौन है ?
इन विज्ञों में जेष्ठ कौन है ?

भगवान उवाच-
मुझमें मन को करके स्थिर
भजे भक्त वह श्रेष्ठ कहाए ,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को
भजता वह नर जेष्ठ कहाए ।

निराकार अविनाशी अचल
सदा एकरस रहने वाला ,
सर्वव्यापी नित्य व अक्षर
मन बुद्धि से परे विलक्षण ।

भजता जो नर ऐसे ब्रह्म को ,
ऐसा नर भी पाए मुझको ,
ऐसा नर भी श्रेष्ठ कहाए ,
निर्गुण भजकर मुझको पाए ।

उपर्युक्त इस निर्गुण ब्रह्म को
समझ ना पाए सब देहधारी ,
कठिन श्रम व कठिन तप से
सिर्फ समझते विज्ञ आचारी ।

मेरे परायण रहने वाले सभी भक्तजन,
सब कर्मों को मुझ में अर्पित करके जपते ,
ध्यान योग अनन्य भाव से नित्य निरंतर,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को है वे भजते।

जिनका चित्त मुझ में रमता है ,
जिनके मन को मैं हूं भाता ,
मृत्युलोक इस भवसागर से
उन भक्तों को पार लगाता।

तन मन बुद्धि गर अर्पित कर
मेरे मन में वास करेगा,
इसमें कुछ संदेह नहीं है ,
मुझमें ही निवास करेगा।

अपना मन मुझमें स्थिर गर
तू स्थापित ना कर सकता ,
अभ्यास योग से इच्छा कर
उससे भी मैं प्राप्त हो सकता ।

उपर्युक्त अभ्यास योग में
भी तू गर समर्थ नहीं है ,
मेरे परम कर्म को कर तू
उसमें तू असमर्थ नहीं है ,
मेरे निमित्त कर्म जो करता ,
मुझे प्राप्त कर सिद्ध हो बढ़ता।

उपरोक्त कर्म करने में
भी अक्षम है पार्थ अगर तू ,
मन बुद्धि पर विजय प्राप्त कर
फल-चिंता हीन कर्म करो तू।

लक्ष्य हीन व दिशा हीन
अभ्यास कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है ,
बिना ध्यान के ज्ञान न फलता
अतः ज्ञान से ध्यान जेष्ठ है ,
कर्म-फल भय त्याग न जब तक ,
मन में आता ध्यान न तब तक ,
अत: ध्यान से श्रेष्ठ कहाए,
त्याग कर्म फल जेष्ठ काहाए ,
कर्म-फल का भय नहीं जिनमें
परम शांति रमती उनमें ।

द्वेष भाव से हीन दयालु
मित्र भाव रखता जो सबसे ,
निरहंकारी क्षमावान हो
माया ममता निष्फल जिसपे ,
सुख-दुख में सम जो कहलाए ,
ऐसा ही नर मुझको भाए ।

तुष्ट निरंतर जो योगी हो ,
दृढ़ निश्चय है जिनके मन में ,
मन बुद्धि है जिनका रमता
भक्ति भाव से मेरे तन में ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता।

जिनका कर्म नहीं किसी
जीव को कभी सताए,
किसी जीव के कर्मों से
जो भय नहीं खाए,
हर्ष अमर्ष भय व्याकुलता
जिन पर निष्फल ,
ऐसा स्थिर ऐसा त्यागी
ऐसा कर्मठ मुझको भाए।

रहता शुद्ध जो तन से मन से
पक्षपात नहीं करे किसी से ,
निस्वार्थी परित्यागी जन यह
मेरी प्रीति रहे इसी से ,
नहीं दुख जिनको दहलाए ,
कठिन समय में भी मुस्काए,
शुभ कर्म का जनक कहाए
ऐसा विज्ञ ही मुझको भाए ।

हर्ष द्वेष शोक कामना
न जिन पर प्रभाव दिखाए ,
शुभ अशुभ का असर न जिन पर ,
परित्यागी है जो कहलाए ,
भक्तियुक्त ह्रदय है जिनका
ऐसा ही नर मुझको भाए।

शत्रु- मित्र ,अपमान-मान में
रहे एक सा जो नर नारी ,
सुख- दुख ,गर्मी व सर्दी
न विचलित करते जिस प्राणी ,
संग आसक्ति में नहीं खोता ,
मित्र हमारा ए नर होता ।

सर्वतुष्ट व मौनी चिंतक
स्तुति निंदा में जो अविचल ,
स्थिर मति व भक्तिमान जो
गृह माया से है जो अविकल ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता ।

उपरोक्त धर्ममय अमृत
उपदेश को पालन करता ,
श्रद्धापूर्वक परम भक्त बन
मुझ में जिसका मन है वसता,
ऐसा ही नर स्वजन हमारा ,
परम सखा यह मुझको प्यारा।

************समाप्त********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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