कुछ संगत बनाती सफल आदमी,
कुछ संगत बनाती असल आदमी।
चारु संगत बनाती
अभयआदमी ,
चारु संगत दिलाती है
जय आदमी।
दुष्ट संगत से होता है क्षय आदमी ,
दुष्ट संगत से होता है भय आदमी।
दुष्ट संगत बनती गिरल आदमी,
दुष्ट संगत से लड़ता विरल आदमी।
दुष्ट संगत समाज का
कोढ़ आदमी ,
चारु संगत है इसका
तोड़ आदमी।
दुष्ट संगत में जाते गिरल आदमी,
चारु संगत सजाते विरल आदमी।
चारु संगत बड़ा ही विरल आदमी,
खोज पाते केवल हैं असल आदमी।
दुष्ट संगत बड़ा ही
सरल आदमी,
जो पाते हैं बनते
गिरल आदमी।
दुष्ट संगत से बचना धर्म आदमी,
धर्म कहता यही है कर्म आदमी।
शठता ही मनुज में शर्म आदमी ,
शठ कारण ही होता भ्रम आदमी।
शठ संगत जगत का
नर्क आदमी,
पाया उसका बेड़ा है
ग़र्क आदमी।
शठ हरदम उगलता गरल आदमी,
शठ हरदम निगलता मरल आदमी।
शठ देखने में लगता सरल आदमी,
शठ अपने को कहता विरल आदमी।
शठ हरदम तलाशे
सरल आदमी,
शठ पर चाबुक लगाए
असल आदमी।
शठ करता है हरदम नकल आदमी,
शठ नाशे मनुज का अक्ल आदमी।
शठता दुष्टता की बहन आदमी,
जनति ए हमेशा जलन आदमी।
दुष्ट कहता है शठ का
अनुज आदमी,
ए दोनो ही खाएं
मनुज आदमी।
विषधर से भयंकर यही आदमी ,
अपनी बुद्धि से बचता सही आदमी।
शठ कारण ही बनता नियम आदमी ,
डंड डर से ही शठ है विनय आदमी।
सभी पूछते हैं शठ है
कौन आदमी ?
मैं तुम या वह जो
मौन आदमी ।
शठ हर युग में होते अलग आदमी ,
जिन्हें देखते ही मुड़े बगल आदमी।
कर्म जिनके उठाए कसक आदमी ,
कर्म जिनके बनाए नर्क आदमी।
मन जिनसे जाए
कड़क आदमी ,
मन जिनसे जाए
भड़क आदमी।
देखते मन में उठे तड़क आदमी,
देखते मन में उठे हड़क आदमी।
सभी तन के अंदर युगल आदमी,
शठ में शठता है ज्यादा उगल आदमी।
जिनके कर्मों को करता
अमल आदमी,
उनके अंदर सज्जनता
भरल आदमी।
कलियुग में शठ भी सफल आदमी,
पर रहता हमेशा नकल आदमी।
शठ निंदित कलह का कलश आदमी,
शठ जिंदा जगत का निरस आदमी।
शठ तीता करैला का
रस आदमी,
शठ के जाने से होता
सरस आदमी।
शठ की बोली लगाए जलन आदमी,
शठ की चुप्पी से होता लल्लन आदमी।
पर शठ भी है जरूरी आदमी,
वरना कैसे नापाते गुणी आदमी।
जब तक जगत में
रहे आदमी,
शठ होगा हमेशा
नहीं आदमी।
काल कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
माल कारण बने कुछ कुटिल आदमी।
हठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
ठाट कारण बने कुछ कुटिल आदमी।
हाट कुछ को बनाते
कुटिल आदमी,
बाट कुछ को बनाते
कुटिल आदमी।
पाठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
गांठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी।
बात है यह असल शठ कुटिल आदमी,
कर्म इनका बनाए जटिल आदमी।
कर्म सूरज का प्रथम
उदय आदमी,
कर्म यही केवल एक
अभय आदमी।
कर्म रहता सदा यह नियत आदमी।
जग होता कर्म के विवश आदमी।
कर्म यही बनाता दिवस आदमी ,
कर्म यही नियति का रहस्य आदमी।
कर्म यही केवल एक
असल आदमी,
शेष करतब है इसका
नकल आदमी।
कर्म दूसरा धारा का अचल आदमी,
कर्म नियति का केवल असल आदमी।
अस्त सूरज का कर्मों का शेष आदमी,
रात बनता है तब फिर विशेष आदमी।
कर्म बादल का अजब
गजब आदमी,
इस करतब के कारण
जीवन आदमी।
कर्म वायु के कारण बदन आदमी,
इसके कारण ही शीतल सदन आदमी।
कुछ करतब बनाए मदन आदमी,
कुछ करतब है लाते जलन आदमी।
नित्य नियति सिखाती
सबक आदमी,
काल इसमें सहायक
नियत आदमी।
कर्म खुद ही सिखाए कर्म आदमी,
क्रम खुद ही बनाए कर्म आदमी।
********* क्रमशः ******************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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