शुक्रवार, 13 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( भाग 5 )

कर्म और कर्म संन्यास का उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 5
इस अध्याय में कर्म और कर्म संन्यास के विषय में अर्जुन को उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग को ,
दोनों ही बतलाते आप,
दोनों में से हो एक उचित ,
कल्याण हेतु बताएं तात।

भगवान उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग
दोनों जन के हितकारी है ,
कर्म संन्यास से कर्मयोग ,
सुगम परम उपकारी है ।

नहीं किसी से करे आकांक्षा ,
नहीं किसी से रखता द्वेष ,
कर्म योगी सदा संन्यासी ,
राग,द्वेष,द्वन्द रहे न शेष ,
सुख पूर्वक जीवन है पाता ,
सब बंधन से मुक्त हो जाता।

कर्म और संन्यास योग
है अलग-अलग नहीं विज्ञ बताते ,
एक ही फल के दाता दोनों,
अतः दोनों ही एक कहाते ।

सांख्य ( ज्ञान )योगी और कर्म योगी  ,
फल एक ही पाता ,
अतः दोनों को जो एक देखे ,
वह सही में देख है पाता ।

बिना कर्म योग , संन्यास
मानव का कर देता नाश ,
चौथापन ज्योंहि है आता,
कर्मयोग संन्यास कहाता,
परब्रह्म को प्राप्त हो जाता,
कर्मठ हरदम पूजा जाता।

जिसका मन है अपने वश में ,
योग युक्त विशुद्ध है आत्मा ,
जितेंद्रिय कहाता जो जन ,
भाए सर्वभूत परमात्मा ,
ऐसा कर्मठ कहीं लिप्त न होता ,
कहीं व्यर्थ में समय न खोता ।

पश्य, श्रवण, स्पर्श, गमन कर ,
भोजन , श्वास व नींद भी लेकर ,
त्याग, ग्रहण, बोलना आदि
सूंघना, लेन-देन इत्यादि ,
आंख मूंदना और खोलना  ,
सब इंद्रियों का रत रहना ,
इन सब को अकर्त्ता माने ,
तत्त्वविद इन्हें दुनिया जाने।

संग आसक्ति त्याग कर्म करे ,
परमात्मा में कर विश्वास,
लिप्त पाप से हो नहीं वैसे,
पद्म पत्र पर जल हो जैसे।

आसक्ति को त्याग मनुज जो ,
कर्म करे कर्म योगी कहाए ,
कर्म करे वह तन से मन से ,
बुद्धि से व इंद्रियों से ,
आत्म शुद्धि और शांति पाए ,
सभी ग्रंथ इसको बतलाए।

कर्म फल का भय जो त्यागे ,
शांति पूर्वक मुझमें राजे ,
कर्मफल का भय सताए,
आसक्ति में बंधता जाए ,
काम कामना के ही कारण ,
आसक्ति नर करता धारण।

नौ द्वार से बना शरीर,
अंदर बसता मन अजीर्ण ,
सभी कर्म का भोग है करके ,
भोग तज संन्यास में रम के ,
बिना किए कुछ सुखी है रहता,
ऐसा जन दुखी नहीं रहता।

प्रभु सब कुछ सृजन करके ,
प्रकृति को दिए भगवान ,
नहीं कर्म करने को कहते,
फिर भी कर्म करे इंसान ,
जीव अपने स्वभाव के कारण ,
कर्म क्रिया को करता धारण ,
प्रकृति गुण स्वभाव बनाता ,
जो जन जैसा वैसा भाता।

नहीं किसी के पाप पुण्य का
प्रभु होते उत्तरदाई ,
अज्ञान है दुख का सागर ,
ज्ञान सभी कहते सुखदाई ,
अज्ञान और मोह के कारण
ज्ञान बना रहता है चारण ।

ज्ञान है जैसे मानव पाता ,
अविद्या का नाश हो जाता ,
ज्ञान से सब कुछ प्रकट हो जाता ,
दिव्य दृष्टि उसको मिल जाता ,
दिन में सूरज जैसे आता ,
ज्ञान है वैसा ज्योति लाता ।

मन बुद्धि श्रद्धा से जो जन ,
प्रभु परायण बन जाता है ,
पूर्ण ज्ञान तब प्राप्त है करता ,
अविद्या सब छूट जाता है ,
मुक्ति पथ पर गमन है करता ,
रजगुण तमगुण चारण बनता ।

विद्या विनय पूर्ण यह व्यक्ति ,
समदर्शी गुण अपनाता है ,
ब्राह्मण गौ हाथी और कुत्ता ,
चंडालों में सम पाता है ।

जिसका मन सम भाव में स्थित,
जीता जीवित जग है जानो ,
परम पिता प्रभु गुण भी यही ,
अतः इन्हें परम ही मानो।

प्रिय न  जिनको हर्षित करता,
ना अप्रिय करे उद्विग्न,
ब्रह्मविद निर्मोही स्थिर
बुद्धिमान न होता खिन्न ,
परमात्मा संग नित्य विराजे ,
एकीभाव से ब्रह्म में राजे ।

बाह्य आसक्ति न जिन्हें लुभाए ,
भौतिक आकर्षण न खींच पाए ,
अपना मन आत्मा ही भाए ,
परब्रह्म को वह पा जाए ,
अक्षय आनंद का है यह सार ,
परमसुख का यह संसार ।

जो सुख मिलता इंद्रियों से ,
उसका आदि अंत है होता ,
इस अनित्य सुख में अर्जुन
विज्ञ रम कर समय ना खोता ।

काम क्रोध मन को उकसाए ,
इंद्रियों में वेग है लाए ,
दुर्जन इस में आग लगाए ,
आम पुरुष इसे रोक न पाए,
जो है रोका सही कहाए ,
साधक योगी वह कहलाए ।

अंतरात्मा में सुख पाता ,
अंतर्मुखी है वह कहलाता ,
अंतरात्मा में जो रमता,
अंतर्मुखी जग है कहता ,
आत्मा में ही ज्ञान है पाता ,
आत्मज्ञानी है वह कहलाता ,
परमात्मा संग ज्ञान है पाता,
सांख्य योगी है वह कहलाता ,
अंत समय जब उसका आता ,
शांत ब्रह्म को वह पा जाता।

सभी पाप नष्ट है जिनका ,
ज्ञान सभी संदेह हटाया ,
सभी जीवो के हित में रत जो ,
  स्थिर मन से स्थित ब्रह्म को ,
ब्रह्म वेत्ता जन यह कहलाता ,
ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त हो जाता।

जीत चुका भौतिक इच्छाएं ,
काम क्रोध नहीं उसको आए ,
आत्म संयमी वह बन जाता ,
परम शांत ब्रह्म को पा जाता ।

इंद्रिय विषयों को बाहर धर के ,
दृष्टि भृकुटी के बीच करके,
प्राण अपान रोके नाक के अंदर ,
इंद्रिया बुद्धि मन वश कर,
इच्छा भय क्रोध रहित हो जाता ,
मुक्त होकर वह मोक्ष पा जाता ,
यह अवस्था सदा रहे गर
परमानंद रहे उसके अंदर ।

सभी यज्ञ तपो का भोक्ता ,
सब ईश्वर का भी मैं ईश्वर ,
सब लोकों का भी मैं मालिक ,
सब देवों का मैं परमेश्वर ,
सभी जीवों का मैं उपकारी ,
मेरा कथन माने सुखकारी ,
मुझे तत्त्व से जाने जो जन ,
परम शांति पाता वह मन ।

***************समाप्त*******************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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Pashupati57.blogspot.com  ( इस  पर click करके आप मेरी  और सभी रचनाएं पढ़ सकते हैं।)

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