भगवान उवाच-
सखा सुनो बोले भगवान ,
गोपनीय परम विज्ञान ,
जिसे जान दुख से संसार
कर जाता भवसागर पार।
विज्ञान युक्त है यह ज्ञान ,
विद्याओं का राजा जान ,
गोपनीयों का नृप भी जानो ,
अति उत्तम पवित्र है मानो ,
भौतिक सुख का पादप जानो ,
प्रत्यक्ष फलवाला है मानो ,
धर्म युक्त यह है अविनाशी ,
सुगम सरल यह ज्ञान की राशि ।
इसमें जो विश्वास न करते ,
ऐसा जन मुझे नहीं समझते ,
श्रृद्धाहीन जन मुझे न पाए ,
जन्म-मरण चक्र में फस जाए।
अव्यक्त रूप मेरा
व्याप्त है पूर्ण जगत में ,
और व्याप्त मैं अप्रकट में ,
सभी भूत हैं मुझ में स्थित ,
नहीं किसी में मैं हूं स्थित ,
योग शक्ति से जनक कहाता ,
पालनकर्त्ता में मैं आता ।
नभ से जन्मा चंचल वायु ,
नभ में स्थित रहता जैसे ,
मेरे से जन्में सब प्राणी ,
मुझमें स्थित रहते वैसे ।
कल्प अंत में सभी
लीन हो जाते मुझमें ,
कल्प आदि में सभी
जन्म है मुझसे पाते ,
बंद वक्र पर सभी
बिंदु ज्यों फिर कर आते ,
उसी तरह से सभी भूत
हैं आते-जाते ।
पूर्ण प्रकृति मेरे अंदर
स्वभाव से रचता जानो ,
भूतों का समूह जो दिखता
उनका कर्त्ता भी तू मानो ,
मेरी इच्छा से विनाश ,
मेरी इच्छा के सब दास ।
किसी कर्म का लोभ आकर्षण
मुझे न बांधे ऐसा जानो ,
रहूं तटस्थ मैं इन कर्मों में ,
सब जाने और तुम भी जानो।
मेरी अध्यक्षता में प्रकृति
रचती जड़ को व जंगम को ,
इस प्रकार से वृहद जगत
पाता रहता है अपने ढंग को।
(जगंम = चेतन , सजीव )
नहीं मूढ़ है मुझको माने ,
परम भाव नहीं मेरा जाने ,
कलह मचाए द्वन्द लड़ाए ,
रोकूं तो उपहास उड़ाए।
व्यर्थ की आशा व्यर्थ कर्म व
व्यर्थ ज्ञान के अज्ञानी जन ,
आसुरी राक्षसी मोहनी मन को
धारण कर घूमे इनका तन।
दैवी प्रकृति में आश्रित जन
भजते मुझको आदि मान ,
अविनाशी भी माने मुझको
मोह मुक्त हो ऐसा जान ।
दृढ़ संकल्प के साथ नित्य ए
मेरी महिमा कीर्तन करते ,
भक्ति भाव से पूर्ण समर्पित
होकर के ए जीते मरते ।
द्वैत भाव ,एकांत भाव
या अन्य भाव से,
अथवा पूर्ण जगत में
तुमको दिखती पूजा ,
ज्ञानी लोग या अन्य लोग
जो यज्ञ हैं करते ,
सभी उपासना है मेरी
नहीं और है दूजा ।
मैं हूं यज्ञ ,मंत्र हूं मैं ही ,
मैं ही अग्नि हवन क्रिया ,
क्रतु ,स्वधा ,औषधि भी मैं ही ,
सर्वमंगला सर्वप्रिया ।
ऋग , यजुर व साम भी मैं ही,
ओम और ओंकार अहम् ,
माता-पिता और आश्रय दाता ,
पिता के पिता भी स्वयम् ।
मैं ही लक्ष्य ,पालक व साक्षी
शरण, आश्रय धाम परम ,
ईश्वर , मित्र , बीज व सृष्टि ,
प्रलय ,भूमि व हूं अव्ययम्।
तपता मैं हूं सूरज बनकर,
बरसूं वर्षा बनकर भू पर ,
अमृत-मृत्यु मुझे ही जानो,
सत् -असत् मैं ही हूं मानो ।
सोमप व वेदज्ञ गुणी जन
यज्ञों द्वारा पूजे जानो ,
पाप मुक्त हो इंद्रलोक में
स्वर्ग सुख है भोगे मानो ।
वृहद स्वर्ग का भोग को करके
क्षीण पुण्य पर पृथ्वी पाते ,
धर्म ,अर्थ और काम कर्म कर,
पुण्य पूर्ण कर फिर वहां जाते ,
तीन धर्म मनु ने बनाया ,
गत , आगत , कामकामा कहाया ।
( कामकामा = भौतिक भोग इत्यादि,
गत = मृत्यु , आगत = जन्म )
अनन्य भाव से मेरा चिंतन
व पूजा करता है जो जन ,
आवश्यकता उनकी और सुरक्षा
नित्य निरंतर करता यह तन।
श्रद्धा पूर्वक अन्य देवता
को जो पूजे ,
वास्तव में मेरी पूजा
वह ही है करता ,
विधि-विधान उस पूजा का
है नहीं जानता,
इस प्रकार से समय नष्ट
वह अपना करता।
मुझे सभी यज्ञों का भोक्ता
व स्वामी मानो ,
मेरे दिव्य स्वरुप को अर्जुन
तत्त्व से जानो ,
जो जाने नहीं नीचे गिरता ,
प्राप्त पुनर्जन्म नहीं करता ।
देवता पूजता जो है व्यक्ति ,
देवलोक को प्राप्त है करता ,
पितर पूजन करने वाला
पितृलोक में वास है करता,
भूत जो पूजे भूत में जाता ,
मेरा भक्त है मुझ में आता ,
पुनर्जन्म नहीं है वह पाता ,
भवसागर के पार हो जाता ।
पुष्प पत्र फल जल इत्यादि
भक्ति पूर्वक जो है लाता ,
शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेम से
अर्पण करता तब मैं खाता ।
अपना कर्म दान तप भोजन ,
हवन वगैरह सुन धनंजय!
मुझको अर्पित कर निश्चित हो,
युद्ध करो और प्राप्त करो जय ।
इस प्रकार तू कर्म के बंधन ,
शुभ अशुभ फल भय आदि से
मुक्त हो मेरे लोक आओगे ,
परम सुख फल को पाओगे ।
सभी भूतों में व्याप्त हूं मैं
एक भाव से ,
ना कोई प्रिय , नहीं अप्रिय है
लगता मुझको ,
जो कोई भक्ति पूर्वक चाहत
करता मेरी ,
प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर के
मिलता उसको ।
पक्षपात ना करूं किसी से ,
नहीं किसी से करता बैर ,
समभाव मैं रखूं सभी से ,
भक्तों का मैं करता खैर ।
भक्ति पूर्वक सेवे मुझको ,
प्रकट रूप में मिलता उनको ,
मेरी भक्ति जिन्हें न भाए ,
उनके पास नहीं हम जाएं ।
पाप कर्म ,जघन्य कर्म के
भी कर्त्ता गर ,
मेरी भक्ति में रत रहता
नित्य निरंतर ,
अपने अडिग संकल्प के कारण
भजता मुझको बनके चारण ,
ऐसा को भी साधु जानो ,
मेरी भक्ति की महिमा मानो।
धर्मात्मा में वह है आता ,
परम शांति को पा जाता ,
मेरा भक्त न नष्ट है होता ,
परमानंद में है वह सोता ।
वैश्य , शुद्र , नीच या त्रिया ,
मेरे शरण धाम में आकर ,
परम गति को प्राप्त है करता ,
वसता परमधाम में जाकर।
राजर्षि ,भक्त व ब्राह्मण
धर्मात्मा की बात ही क्या है ?
अतः पार्थ इन पर चिंतन कर ,
मेरा नित्य भजन कीर्तन कर ।
अपना मन मुझमें अर्पण कर ,
भक्त बनो पूजा तर्पण कर ,
नम्र बनो और नमस्कार कर ,
मेरे कण कण से तू प्यार कर ,
मुझको निश्चित प्राप्त करेगा ,
नहीं किसी से कभी डरेगा ।
*************समाप्त*************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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