मंगलवार, 12 जुलाई 2022

चाणक्य नीति काव्यानुवाद ( अध्याय 1 )

 

चाणक्य नीति का रचनाकार महर्षि चाणक्य 



               चाणक्य नीति

                अध्याय - १

                  काव्यानुवाद

 रचनाकार -इन्जीनियर पशुपति नाथ प्रसाद


                         अध्याय - 1

करता नमन मैं विष्णु प्रभु को ,

सिर मैं झुकाता हूँ त्रिलोकी को ।

राजनीति बतलाता हूँ भू को ,

उद्धृत है सब शास्त्रों से जो ।


योग्य-अयोग्य शुभाशुभ कर्म में ,

शास्त्र ज्ञान से अंतर पाये ।

अर्थशास्त्र का ज्ञान हो जिनको ,

उत्तम नर में गिना जाये ।


लोक भलाई जिसमें है वह बात कहूँगा ,

समझ जिसे मूरख नर भी सर्वज्ञ कहाये ।

जिस कुपात्र के गर्दन पर गर सिर नहीं है ,

ज्ञान कहाँ से उसके सिर में जमने पाये ।


मूरख को उपदेश न देते ,

दुष्टों को नहीं पालन पोषण ।

नहीं साथ रहते दुष्ट के ,

अपनाते ये पंडित सा जन ।


भार्या दुष्टा , शठ से यारी ,

नौकर नकचढा हो जिनका ।

बसता घर में सर्फ जहाँ पे ,

मरा हुआ जीवन है उनका ।


धन का संग्रह बहुत जरूरी ,

अति दुर्दिन में करता रक्षा ।

धन से बढकर त्रिया रक्षा ,

सर्वोत्तम है आत्म सुरक्षा ।


बड़े 2 के पास भी आपत्ति आ जाती है ,

लक्ष्मी तजती , संचित धन भी नष्ट हो जाये ।

अजब विरंची की माया यह सब कुछ करती ,

दुर्दिन हेतु अत: हमेशा धन को बचायें ।


जहाँ निरादर , न जीविका हो ,

न लाभ विद्या , न भाई -बंधु ।

वहाँ कदापि क्षण नहीं रहना ,

रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।


जहाँ न राजा , न वैद्य  सरिता ,

विप्र नहीं वेदपाठी जहाँ पे ।

धनी नहीं जन , जहाँ न ये सब ,

एक दिवस नहीं रहना वहाँ पे ।


न परलोक का भय , नहीं लज्जा ,

नहीं त्याग , सम्मान नहीं है ।

नहीं राजभय , नहीं शीतलता ,

बसने योग्य स्थान नहीं है ।


दुख में परखें भाई -बंधु ,

सेवक सेवा के आने पर ।

संकट में हो मित्र परीक्षा ,

पत्नि वैभव के जाने पर ।


बंघु वही जो साथ निभाये ,

दुख में आतुर जब होता मन ।

श्मशान , दुर्भिक्ष इत्यादि ,

संकट जब रचते शत्रु जन ।

संकट आये राजाकृत ,

बने सहायक वही मित्र ।


जो निश्चित को छोड़ जगत में ,

अनिश्चित की ओर दौड़ता ।

निश्चित बन जाता अनिश्चित ,

अनिश्चित कब का है निश्चित ।


कुरूपा गुणी कन्या संग ,

ब्याह अगर हो वह सर्वोत्तम ।

नीच अवगुणी सुरूपा संग ,

ब्याह कभी भी न है उत्तम ।


त्रिया , राजकुल के लोगों पर ,

नदी , शस्त्र जो रखता है जन ।

नख-सींग वाले जीवों पर ,

कभी न आस्था रखना हे जन !


विष से अमृत , नीच से विद्या  ,

अगर मिले यह भी है उत्तम ।

सोना भी अशुद्ध जगह का ,

ले लेना नीति सर्वोत्तम ।

दुष्ट कुल की त्रिया रत्न भी ,

अपनाने में पाप नहीं है ।

विद्यायुक्त कुशल नारी को ,

अपनाने में शाप नहीं है ।


भोजन दूना करती नारी है पुरुषों से ,

लज्जा चौगुनी , साहस छ: गुना होता ।

बाहर से उनकी आँखों में काम न दिखता ,

काम का वेग मगर उनमें अठगुना होता ।


नोट : - पूरा चाणक्य नीति काव्यानुवाद पढ़ने के लिए वाट्सएप 919351904104 पर संपर्क करें। या http://Www.nayigoonj.com पर क्लिक करें।


          ** समाप्त **


  

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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