चाणक्य नीति का रचनाकार महर्षि चाणक्य |
चाणक्य नीति
अध्याय - १
काव्यानुवाद
रचनाकार -इन्जीनियर पशुपति नाथ प्रसाद
अध्याय - 1
करता नमन मैं विष्णु प्रभु को ,
सिर मैं झुकाता हूँ त्रिलोकी को ।
राजनीति बतलाता हूँ भू को ,
उद्धृत है सब शास्त्रों से जो ।
योग्य-अयोग्य शुभाशुभ कर्म में ,
शास्त्र ज्ञान से अंतर पाये ।
अर्थशास्त्र का ज्ञान हो जिनको ,
उत्तम नर में गिना जाये ।
लोक भलाई जिसमें है वह बात कहूँगा ,
समझ जिसे मूरख नर भी सर्वज्ञ कहाये ।
जिस कुपात्र के गर्दन पर गर सिर नहीं है ,
ज्ञान कहाँ से उसके सिर में जमने पाये ।
मूरख को उपदेश न देते ,
दुष्टों को नहीं पालन पोषण ।
नहीं साथ रहते दुष्ट के ,
अपनाते ये पंडित सा जन ।
भार्या दुष्टा , शठ से यारी ,
नौकर नकचढा हो जिनका ।
बसता घर में सर्फ जहाँ पे ,
मरा हुआ जीवन है उनका ।
धन का संग्रह बहुत जरूरी ,
अति दुर्दिन में करता रक्षा ।
धन से बढकर त्रिया रक्षा ,
सर्वोत्तम है आत्म सुरक्षा ।
बड़े 2 के पास भी आपत्ति आ जाती है ,
लक्ष्मी तजती , संचित धन भी नष्ट हो जाये ।
अजब विरंची की माया यह सब कुछ करती ,
दुर्दिन हेतु अत: हमेशा धन को बचायें ।
जहाँ निरादर , न जीविका हो ,
न लाभ विद्या , न भाई -बंधु ।
वहाँ कदापि क्षण नहीं रहना ,
रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।
जहाँ न राजा , न वैद्य सरिता ,
विप्र नहीं वेदपाठी जहाँ पे ।
धनी नहीं जन , जहाँ न ये सब ,
एक दिवस नहीं रहना वहाँ पे ।
न परलोक का भय , नहीं लज्जा ,
नहीं त्याग , सम्मान नहीं है ।
नहीं राजभय , नहीं शीतलता ,
बसने योग्य स्थान नहीं है ।
दुख में परखें भाई -बंधु ,
सेवक सेवा के आने पर ।
संकट में हो मित्र परीक्षा ,
पत्नि वैभव के जाने पर ।
बंघु वही जो साथ निभाये ,
दुख में आतुर जब होता मन ।
श्मशान , दुर्भिक्ष इत्यादि ,
संकट जब रचते शत्रु जन ।
संकट आये राजाकृत ,
बने सहायक वही मित्र ।
जो निश्चित को छोड़ जगत में ,
अनिश्चित की ओर दौड़ता ।
निश्चित बन जाता अनिश्चित ,
अनिश्चित कब का है निश्चित ।
कुरूपा गुणी कन्या संग ,
ब्याह अगर हो वह सर्वोत्तम ।
नीच अवगुणी सुरूपा संग ,
ब्याह कभी भी न है उत्तम ।
त्रिया , राजकुल के लोगों पर ,
नदी , शस्त्र जो रखता है जन ।
नख-सींग वाले जीवों पर ,
कभी न आस्था रखना हे जन !
विष से अमृत , नीच से विद्या ,
अगर मिले यह भी है उत्तम ।
सोना भी अशुद्ध जगह का ,
ले लेना नीति सर्वोत्तम ।
दुष्ट कुल की त्रिया रत्न भी ,
अपनाने में पाप नहीं है ।
विद्यायुक्त कुशल नारी को ,
अपनाने में शाप नहीं है ।
भोजन दूना करती नारी है पुरुषों से ,
लज्जा चौगुनी , साहस छ: गुना होता ।
बाहर से उनकी आँखों में काम न दिखता ,
काम का वेग मगर उनमें अठगुना होता ।
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