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शोकाकुल अर्जुन को युद्ध करने का उपदेश देते श्रीकृष्ण |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय २
शोक आकुल अर्जुन को युद्ध करने हेतु भगवान कृष्ण का उपदेश जिसे कुछ रचनाकार सांख्य योग भी कहते हैं इस अध्याय में वर्णित है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
संजय उवाच -
संजय बोला- सुने नृप महान ,
व्याकुल हैं अर्जुन सुजान,
शोक युक्त आंसू से तर,
करुणा युक्त दिखे नजर ,
ऐसा अर्जुन से श्रीमान !
यह बोले केशव भगवान ।
समझ न आती हे अर्जुन !
मोह कहां से आया बन ,
इस समय में तू मोहित ,
नहीं विजय हेतु है हित ,
नहीं श्रेष्ठ जन द्वारा मान्य,
नहीं स्वर्ग हेतू सुजान ,
नहीं यश कृति ले आए ,
उल्टे नर अपयश को पाए ।
अतः हे अर्जुन ! सुन दे ध्यान,
कायरता का कर नहीं मान ,
मन की दुर्बलता कर त्याग ,
युद्ध करो ,मत सोओ , जाग ।
केशव से बोला तब पार्थ ,
सुने प्रभु , सुने हे नाथ !
पितामह ,आचार्य से युद्ध ,
कैसे लडूंगा बन के क्रुद्ध ,
पूजनीय ये दोनों नाथ ,
सदा नवाया इन पर माथ ।
इन गुरुओं को न मैं मार ,
भीख मांगने को तैयार ,
रुधिर से सने हुए यह भोग ,
अर्थ , कामना ,काम का रोग ,
नहीं चाहता हूं माधव ,
नहीं चाहता हूं यादव ।
नहीं समझ आती माधव ,
शांति श्रेष्ठ या युद्ध यादव ,
हम जीते या वे जीते ,
यह भी समझ नहीं पाते ,
धृतराष्ट्र पुत्रों को माधव ,
नहीं मारना चाहूं यादव।
कायरता दोष से मैं मोहित ,
धर्म समझ नहीं आता मुझको ,
क्या है उचित और अनुचित ,
मंगलमय बतलाए उसको ,
मैं हूं शिष्य उबारे मुझको,
शरणागत हूं तारे मुझको।
इस भू का निष्कलंक राज व
धन्य-धान्य से युक्त समृद्धि ,
इंद्रासन भी अगर मिल जाए ,
सभी शोक में करते वृद्धि ,
नजर न आता कोई साधन ,
जिससे शांत बने मेरा मन ।
संजय बोला- हे नृप ! महान ,
आगे यह है हाल सुजान ,
नहीं लडूंगा मैं गोविंद ,
नहीं लडूंगा हे अरविंद !
संजय बोला- हे महाराज !
सुने आगे का यह हाल ,
समर बीच शोक से आकुल ,
अर्जुन बैठे हैं व्याकुल ,
विहस प्रसन्न मुख से श्रीमान ,
अर्जुन से बोले भगवान ।
अर्जुन से बोले- भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन महान ,
शोक योग्य जो है नहीं जन ,
फिर आकुल क्यों तेरा मन ?
जो भी होते हैं विद्वान ,
नहीं शोक करते सुजान ,
नहीं जीवित हेतु आकुल ,
नहीं भूत हेतु व्याकुल।
नहीं कोई काल कि जिसमें
तू नहीं था ,
नहीं है कोई काल कि जिसमें
मैं नहीं था ,
ना कोई है काल कि जिसमें
ए नृप नहीं थे,
ना है आगे काल कि हम सब
न रहेंगे ।
बाल अवस्था ,युवा अवस्था ,
वृद्ध अवस्था तन में जैसे ,
भिन्न-भिन्न शरीर को आत्मा ,
मरने पर है पाता वैसे ,
धीर पुरुष इसे सहज में लेते ,
अधीर सम्मोहित मोहित होते ।
सर्दी-गर्मी , सुख-दुख का ,
विषय और इंद्रियां कारण ,
उत्पत्ति-विनाश ,अनित्य-क्षणिक
जिसको विज्ञ हैं करते धारण।
अतः इसे अनित्य जानकर ,
सहन करो इसे नित्य मानकर ।
इंद्रियां और विषय-वासना ,
सुख-दुख का प्रभाव न होता ,
शांत चित्त निर्लिप्त बना वह ,
मोक्ष योग्य नर वह है होता ।
असत् वस्तु की सत्ता ना होती ,
सत् का ना होता अभाव ,
तत्त्वज्ञानी इसे तत्त्व से देखे ,
अज्ञानी का उल्टा भाव।
नाश रहित आत्मा तू जान ,
पूर्ण जगत सर्वत्र तू मान ,
इस अविनाशी के विनाश को ,
नहीं कोई समर्थ है जान ।
अविनाशी , अप्रेमय , शाश्वत
आत्मा के सब भौतिक तन
नाशवान है जानो अर्जुन ,
अतः युद्ध में रतकर मन।
(अप्रेमय = न मापने योग्य )
मूरख जन प्रायः अर्जुन सुन ,
इसका वध और मरा समझते ,
अमर अवध यह ब्रह्मांश है ,
वास्तव में वे नहीं जानते ।
नहीं जन्म ले ,नहीं मरण हो ,
ना पैदा होता , नहीं मरता,
नित्य सनातन अज पुरातन ,
मरता तन पर यह नहीं मरता।
नाश रहित नित्य अजन्मा ,
व अव्यय जो इसको माने ,
नहीं मार सकता ,मरवाता ,
इसी तत्त्व को है जो जाने ।
जीर्ण वस्त्र को छोड़कर जन तन ,
नया वस्त्र को धरता जैसे ,
जीर्ण शरीर को त्याग जीवात्मा ,
नया देह में जाता वैसे ।
शस्त्र न काटे ,जल न गलाए ,
नहीं जलाती इसको आग ,
नहीं सुखाए इसको वायु ,
नहीं किसी का लगता दाग ।
यह आत्मा अच्छेद्य ,अशोष्य ,
अदाह्य , स्थिर और अचल ,
सर्वव्यापी और नित्य सनातन ,
अघुलनशील और निर्मल ।
यह आत्मा अव्यक्त ,अचिंत्य ,
मल रहित और निर्मल जानो ,
जैसा वर्णन ऊपर आया ,
उसको भली-भांति पहचानो ,
अतः शोक नहीं कर तू भाई,
शोक बहुत ही है दुखदाई ।
अगर इस आत्मा को तुम अर्जुन,
सदा जन्मने वाला माने ,
इसकी मृत्यु भी होती है
ऐसा तेरा मन है जाने ,
तो भी शोक नहीं कर भाई ,
शोक बहुत ही है दुखदाई।
जो जन्में मृत्यु है निश्चित ,
मरे हुए का जन्म है निश्चित ,
अपरिहार्य यह विषय तू जानो ,
इस पर शोक व्यर्थ है मानो।
( अपरिहार्य = अवश्यंभावी )
जन्म से पहले सब प्रकट नहीं ,
मरने पर भी सब अप्रकट ,
जन्म मरण के बीच ही अर्जुन,
सभी प्राणी रहता है प्रकट ,
जब ऐसी स्थिति है यार ,
इस पर चिंता है बेकार।
कुछ इसको आश्चर्य से देखें ,
कुछ इसको आश्चर्य से सुने ,
कुछ तत्त्व से कहते इसको ,
कुछ सुनकर न माने इसको।
नित्य अवध सदा यह आत्मा ,
जो है रहता सब के तन में ,
सब भूतों के लिए अतः तू
शोक नहीं कर अपने मन में।
तू है क्षत्री युद्ध धर्म है ,
और न दूजा कर्म है तेरा,
अतः नहीं भयभीत हो अर्जुन ,
नहीं शोक का कर्म है तेरा ।
ऐसा युद्ध के अवसर पाते ,
भाग्यवान क्षत्री सुन अर्जुन ,
सुलभ स्वर्ग उनको होता है,
अतः इसे लड़ो सुन अर्जुन।
धर्म युक्त इस युद्ध को ,
तू यदि नहीं करेगा ,
धर्म और कृति को खोकर ,
बहुत बड़ा पाप करेगा।
बहुत काल तक कथन करेंगे ,
अपयश तेरा भू के सब जन ,
अपयश मृत्यु सा है उनको ,
जो है मानित सम्मानित जन।
युद्ध नहीं करने से अर्जुन ,
कायर में गिना जाएगा ,
जिनकी नजरों में शूरवीर है,
उन नजरों से गिर जाएगा ,
सभी तुझे कायर कहेंगे ,
निर्बल नर तुझे बतलाएगें ।
बैरी जन निंदा करेंगे ,
अकथनीय वचन कहेंगे ,
जिससे तू दुख प्राप्त करेगा ,
अपनी शांति नष्ट करेगा।
अत: युद्ध कर हे तू अर्जुन !
मरने पर भी स्वर्ग धरेगा ,
अगर जीता संग्राम तू अर्जुन ,
धारा के तू राज्य करेगा ।
जय- पराजय , लाभ -हानि व
सुख- दुख को तू ,
एक समान समझकर के अब
युद्ध करो तू ,
इस प्रकार पापी जन में तू
नहीं आएगा ,
पराक्रमी शूरवीर उत्तम जन में
गिना जाएगा ।
ज्ञान योग का विषय बताया,
कर्म योग का अब सुन अर्जुन ,
गर इस पर तू ध्यान करेगा ,
कर्म का बंधन नहीं धरेगा ।
इस कर्म योग प्रयास में ,
नहीं ह्रास नहीं हानि होती ,
अल्प प्रगति भी मंगलमय ,
सभी भय से रक्षा करती ।
दृढ़ प्रतिज्ञ होते कर्मयोगी ,
लक्ष्य भी उनका निश्चित होता ,
ज्ञानहीन का लक्ष्य अस्थिर ,
कर्म अनिश्चित उनका होता ,
जब पाते अवसर वो जैसा ,
कर्म मर्म बदलते वैसे ।
अथवा
स्थिर बुद्धि व्यवसायी की ,
कर्मक भी कहा यह जाता ,
इनका लक्ष्य भी एक है होता,
नहीं समय यह व्यर्थ में खोता ,
अकर्मक व अव्यवसायी का ,
कोई नहीं लक्ष्य है होता ,
अस्थिर चंचल वह है रहता ,
सदा कलह व द्वेश है करता।
अलंकारिक वेद शब्दो में ,
अज्ञानी है भटका करते ,
स्वर्ग की प्राप्ति हेतु अच्छे जन,
प्रभुसत्ता हेतु कर्म हैं करते ,
इंद्रिय तृप्ति, ऐश्वर्य इत्यादि
हेतु जो जीवन गंवाते ,
अपने को सर्वज्ञ बताते ,
अंत आने पर है पछताते ।
अस्थिर जन इनको जानो ,
त्याज हैं ए ऐसा तू मानो ।
इंद्रिय भोग ,भौतिक ऐश्वर्य में ,
अत्याधिक लिप्त जो होते ,
इसके मोह में भटका करते ,
परम ब्रह्म को प्राप्त न करते ।
प्रकृति के तीनों गुणों का ,
वेदो में वर्णन है जानो ,
इन तीनों से ऊपर उठकर
अभय बनो सत्य पहचानो ,
लाभ सुरक्षा की चिंताओं
से अपने को मुक्त बनाओ,
द्वैत- अद्वैत का अंतर जानो ,
आत्म परायणता को पहचानो।
( द्वैत अद्वैत = ज्ञान अज्ञान )
बड़ा जलाशय के रहने पर,
कूप भी उपयोगी है जैसे ,
ब्रह्म को तत्व से जानने वाला,
वेदों को भी जाने वैसे ।
सिर्फ कर्म अधिकार तुम्हारा ,
कर्म-फल चिंतक है हारा ,
कर्म-फल भय करे अकर्मक,
हारा नहीं है कोई कर्मक ।
पहले आसक्ति को त्यागो ,
सिद्धि असिद्धि में हो सम ,
कर्म योगी बन कर्म करोगे ,
समत्व योग का पद पाओगे ।
गर्हित कर्म से दूर रहो तुम ,
गर्हित कर्म त्याज है जानो ,
ज्ञान योग का आश्रय लेकर
किया कर्म को उत्तम मानो,
सिर्फ कर्म फल की आशा में ,
उत्कट इच्छा अभिलाषा में ,
बिना विचारे जो करता है,
नीच कृपण का पद धरता है ।
( गर्हित = निंदनीय )
सम बुद्धि से युक्त विज्ञ जन ,
इसी लोक में मुक्त हो जाता ,
पाप-पुण्य ,उत्तम व अधम
कर्म नहीं उसको भरमाता ,
अतः समत्व योग है उत्तम ,
अपनाओ यह है सर्वोत्तम ।
बुद्धि युक्त ज्ञानी जन अर्जुन ,
कर्मफल पर ध्यान न देते ,
कर्म को करते, कर्म में जीते ,
जन्म बंधन से मुक्ति पाते ,
निश्चित परम पद पा जाते ,
सभी शास्त्र ए सीख सिखाते ।
मोह रूपी दलदल को अर्जुन ,
ज्योंहि बुद्धि पार करेगी ,
भूत भविष्य परलोक की
सब भोगों को भूल जाएगी,
बैरागी खुद बन जाओगे,
नहीं कर्म पर पछताओगे ।
नाना ढंग के वचनों द्वारा
विचलित हुई है जो बुद्धि ,
परमात्मा में स्थिर होगी
सज्ञ कहेंगे तुमको योगी ।
केशव से तब पूछा पार्थ
स्थिर बुद्धि क्या है नाथ ?
लक्षण स्थिर बुद्धि क्या ?
कृपा कर इसे करें बयां ,
स्थिर बुद्धि जन बोलते कैसे ?
स्थिर बुद्धि जन चलते कैसे ?
कैसे बैठते समाधिस्थ हो ?
परमात्मा को भेजते कैसे ?
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर ए ज्ञान महान ,
मन कामना को त्यागे जो ,
स्थिर प्रज्ञ कहलाता वो ,
अपने आप में जो संतुष्ट ,
आत्मा से आत्मा में तुष्ट ,
सभी काल यह ज्ञान बताता ,
स्थिर जन है यह कहलाता ।
दुख आने पर ना घबराए ,
सुख पाने पर न इतराए ,
राग क्रोध भयहीन है जो ,
स्थिर जन कहलाता सो ।
शुभ में खुशी ,न अशुभ में द्वेष ,
निर्लिप्त सा रखता भेष ,
सब में ए जन उत्तम आता,
स्थिर ज्ञानी ए कहलाता।
सब अंगों को समेट के कछुआ ,
आसपास से स्थिर जैसे,
इंद्रियों को विषयों से दूर
मानव कर लेता जब वैसे ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाता,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता ।
इंद्रिय भोग से निवृत्त होकर
इसकी इच्छा तब भी रहती ,
जिससे मानव मुक्त न होता,
आसक्ति आकर है धरती ,
अध्यात्म मुक्ति दिलाता ,
परमात्मा का पथ दिखलाता ।
आसक्ति अविनाशी अर्जुन ,
इंद्रियां इस हेतु प्रबल ,
वेगवान इतनी है अर्जुन ,
रोक नहीं सकता कोई बल ,
जिससे मन को हर ले जाती ,
ज्ञानी को भी यह भरमाती।
सब इंद्रियों को वश करके ,
मुझको समाहित चित्त जपता ,
इंद्रजीत वह ध्यान में बैठे
अपने मन को स्थिर करता ,
स्थिर बुद्धि वह कहलाता ,
ऐसा ही सब शास्त्र बताता।
विषयों का चिंतन मोह आसक्ति ,
आसक्ति कर्म कामना उपजाता ,
क्रोध भयंकर प्रकट है होता ,
कामना में जब विघ्न है आता ।
क्रोध से मूढ़ बुद्धि है आती ,
इससे स्मृति खो जाती ,
जिससे भ्रम में नर पड़ जाता ,
बुद्धि ज्ञान नष्ट हो जाता ।
अंतःकरण जिनके अधीन ,
राग द्वेष से है वह हीन ,
मन प्रसन्नता प्राप्त है करता ,
सदा आनंद में विचरण करता ।
अंतःकरण प्रसन्न जब होता ,
सब दुखों का हो अभाव,
बुद्धि शुद्ध निर्मल बन जाती,
जिस जन का ऐसा सुभाव ,
परम ब्रह्म को खुद पा जाता ,
सभी विज्ञ यह भेद बताता ।
मन इंद्रियां अजीत जिनका ,
स्थिर बुद्धि है नहीं पाते ,
अंतः करण भावहीन होता ,
ऐसा जन नहीं शांति पाते ,
शांतिहीन कभी सुख नहीं पाए ,
सभी विज्ञ यह भेद बताए ।
जल पर जाती सुंदर नौका ,
वायु दूर बहा ले जाती ,
विषय युक्त गर एक भी इंद्री ,
मन को विचलित है कर जाती ,
मानव मन जब व्यग्र हो जाता ,
अपनी बुद्धि को खो जाता ।
विषयों से इंद्रियां जिनका
दूर है , मन निग्रह है उनका ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाते ,
सभी विज्ञ यह भेद बताते।
सोता जब सब जीव जगत का,
संयमी जागे रहते इसमें ,
जागे जब सब जीव जगत का ,
संयमी सोते रहते उसमें ।
नाना नदियों से जल पाकर ,
सागर स्थिर रहता जैसे ,
इच्छाओं के प्रचंड प्रहार से
विज्ञ अविचलित रहते वैसे ,
परम शांति को पाते ये जन ,
न अशांति टिक पाती मन ।
कामना हीन और इच्छा हीन
और अहंकार से वंचित जो जन ,
ममता न प्रभाव दिखाती ,
परम शांति को पाए सो मन ।
आध्यात्मिक जीवन का यह पथ
ईश्वरीय भी है कहलाता ,
नहीं मोह प्रभावित करता
जो इस मार्ग को है पा जाता ,
जीवन का अंतिम जब आता,
इस पथ से जो मानव जाता ,
परमानंद को प्राप्त हो जाता ,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता।
*******अध्याय दूसरा समाप्त ************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन 845453
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