भगवान उवाच-
सत्त्व , ज्ञान , योग, अभय ,व्यवस्था ,
निर्मलता ,शुद्धि ,आचार ,
दान ,दम ,यज्ञ व तप के संग
स्वाध्याय जिनका विचार।
त्याग , सत्य , अक्रोध ,अहिंसा ,
चित्त चंचलता का अभाव ,
अहंकार हीन , शांत ,दयालु ,
परनिंदा नहीं जहां सुभाव ,
अनासक्ति आचार सुसज्जित ,
दुष्कर्मों पर जो है लज्जित।
तेज , शौच , क्षमा , धृति व
शांति धन है जिस नर मन का ,
स्वपूजन अभिमान से वंचित ,
ए सब लक्षण दैवमय जन का ।
दम्भ , दर्प , अभिमान ,क्रोध ,
अज्ञान , पारुष्य हैं करते कर्षण ,
ए संपदा हैं असुर पुरुष की
असुर पुरुष के ए सब लक्षण ।
दैव संपदा है मुक्ति हेतु ,
असुर संपदा है माया बंधन ,
अत: शोक मत कर तू अर्जुन ,
दैवी मय तू जन्मा नंदन ।
भूतों की इस सृष्टि में हम ,
दो प्रकार का जीव हैं पाते ,
एक दैवी प्रकृति मंडित ,
दूजा आसुरी युक्त कहाते ,
पहला का विस्तार सुना तू ,
दूजा का सुन जिसे बताते ।
ना प्रवृत्ति ना निवृत्ति में
अंतर हैं पाते ए जन ,
नहीं शौच ,आचार , सत्य में
ही रमता है इनका तन- मन ।
बिन आश्रय व बिना सत्य के ,
बिन ईश्वर संपन्न हुआ है ,
नर-नारी संयोग मात्र से
स्वत; जगत उत्पन्न हुआ है ,
केवल काम अतः है कारण ,
जिससे जीव जगत में धारण ,
इसके सिवा और क्या कैसा ?
असुर पुरुष बतलाते ऐसा ।
ऐसा मिथ्या ज्ञान के कारण
क्रूर कर्म करते हैं धारण ,
स्व आत्मा को मरण किया है ,
कर्म कुकर्म को वरण किया है ।
दंभ , मान व मद से मंडित ,
दुष्प्राप्य चाहत ए करते ,
भ्रष्ट आचार, मिथ्या सिद्धांत
ग्रहण करके ए सदा विचरते ।
असंख्य चिंताओं से बद्ध ए
मृत्यु तक कुकर्म हैं करते ,
काम भोग हीं परम सुख है ,
ऐसा ए जन माना करते ।
आशा की कोटी माया से बद्ध
काम क्रोध तत्पर ए जन ,
संग्रह करते काम भोग हेतु
अधर्म से कैसा भी धन।
सोचे आज धन प्राप्त किया यह
कल कर लूंगा इष्ट सिद्धि से ,
कितना धन संग्रह में आया ,
पुनः धन हो किसी विधि से ।
इस अरि को मारा है मैंने ,
अन्य का भी हर लूं प्राण ,
मैं ही ईश्वर , मैं ही भोगी ,
सिद्ध , सुखी मैं हूं बलवान ।
मुझ सा धनी , ना मुझ सा कुटुंबी ,
ना मुझ सा भू पर है जन ,
यज्ञ दान आमोद के कर्त्ता
ना कोई मुझ सा जन मन ।
भ्रमित चित्त व मोह जाल से
खुद ए समावृत हो जाते ,
विषय भोग आसक्त ए दुर्जन
सीधे नर्क लोक को जाते ।
अपने आप को श्रेष्ठ मानते ,
धन मान मद युक्त घमंडी ,
नाम मात्र के यज्ञ भी करते ,
शास्त्र विधि हीन ए पाखंडी ।
अहंकार , बल ,दर्प ,काम ,क्रोध
से मदांध ए निदंक दुर्जन ,
स्व आत्मा परमात्मा स्थित
मुझ परमात्मा का वैरी जन ।
क्रूर कर्मी पापाचारी ऐसा द्वेषी
नराधम जन को ,
असुर योनी में जन्म मैं देता
दु:साध्य फिर पाना मुझको ।
जन्म जन्म तक आसुरी योनि
को पाते व भोगे ए जन ,
अधोगमन कर , घोर नरक धर ,
मुझसे दूर रहे ए दुर्जन ।
काम ,क्रोध व लोभ तीन ए
नरक द्वार के बनते साधन ,
आत्म नाश ए करने वाले ,
अधोगति के ए प्रसाधन ,
इन तीनों का त्याग करे जो
पाता है वह परम गति को ।
तम द्वार के ए तीन अवगुण से
जो नर विमुक्त हो जाता ,
आत्मा का कल्याण है करता ,
परम गति को वह पा जाता ।
शास्त्र न माने , काम लिप्त जो ,
ना माने आचार नीति को ,
ऐसा पापी दुराचारी
प्राप्त न करता परम गति को ,
सब सिद्धि उसको ठुकराए ,
जीवन भर वह सुख नहीं पाए ।
शास्त्र जो कहता वह कर्तव्य है ,
जो नहीं कहता त्याज है मानो ,
शास्त्र विधि से नियत कर्म ही
करने योग्य है ऐसा जानो ,
जब जब विमूढ़ समय है आए ,
सत्त्व शास्त्र रास्ता दिखलाइए ।
*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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