सोमवार, 23 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 13 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रेत्र और श्रेत्रज्ञ के विषय में ज्ञान देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 13
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में बताया है।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान
सुनो शरीर यह क्षेत्र कहाता ,
इसे तत्त्व से है जो जाने ,
वह क्षेत्रज्ञ है माना जाता ।

उपरोक्त दो था अनजान ,
इसे बताया तत्त्व से ज्ञान ,
सबका श्रेय तू मुझको जान ,
मेरा मत है इसको मान ।

इन दो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को
सुनो मैं कहता कर विस्तार ,
गुण-दोष , कारण व हेतु
व प्रभाव सुने संसार ।

बहु विधि इन तत्त्वों को
ऋषियों ने बतलाया है ,
गीत, छंद व ब्रह्मसूत्र पद
में भरकर दर्शाया है ।
( ब्रह्मसूत्र पद = वेद )

पांच महाभूत ,अहंकार व
बुद्धि , अव्यक्त प्रकृति आदि ,
पांच इंद्रियां विषय , एक मन ,
दस इंद्रियां सुन इत्यादि ।
( पंच महाभूत = क्षिति , जल ,पावक,
गगन , समीर )

इच्छा , द्वेष , सुख-दुख , धृति ,
देह चेतना क्षेत्र कहाए ,
विकारों संग उक्त क्षेत्र सब
मूल रूप में तुझे बताए ।

दंभहीन ,अभिमानहीन स्थिर मन
सेवा क्षमा शुद्धता ,
आत्मनिग्रह , अहिंसा व
सरल चित्त और सरल सरलता ,
गुरु की सेवा , तन की शुद्धि ,
आत्म संयम और मन की शुद्धि।

लौकिक परलौकिक आसक्ति ,
अहंकार अभाव ,
जन्म- मरण और रोग जरा में
धैर्य और सुभाव ।

पत्नी पुत्र गृह व धन संग
आसक्ति अभाव ,
मोह हीन प्रिय व अप्रिय संग 
समता का हो भाव ।

शुद्ध देश  एकांत प्रिय हो ,
बुरे जनों संग प्रेम न करता ,
परम पुरुष मुझ परमेश्वर में
परम भक्ति का भाव है धरता ।

अध्यात्म ज्ञान तत्त्व नित्य बखाने ,
तत्त्व ज्ञान का अर्थ है जाने ,
उपरोक्त सुन सब है ज्ञान ,
उल्टा  इनके है अज्ञान ।

सुनो पार्थ अब ज्ञेय बताता ,
जान जिसे जन ब्रह्म पा जाता ,
अनादि परम ब्रह्म नहीं सत् ,
न कभी रहता  असत्
( ज्ञेय = अनुकरणीय , जानने योग्य )

हाथ, पैर व नेत्र , सिर व
मुख , कान है चारो ओर ,
सभी जगह है व्याप्त जगत में
नहीं खाली है कोई छोर ।

निर्गुण है पर गुण सब भोगे ,
बिन इंद्रियों के इंद्रिय सुख ,
नहीं आसक्ति रखे जगत से
फिर भी हरता है सबका दुख ।

सब भूतों के बाहर भीतर
चर अचर में करता वास,
सूक्ष्म होने से अज्ञेय वह
दूर समीप अति करे निवास ।

अविभक्त होने पर भी वह 
सब भूतों में है विभक्त ,
पालनकर्त्ता  विष्णु सा वह
रूद्र रूप संहार सशक्त ।

ब्रह्मा रूप सबका पिता वह
जानने योग्य वह पिता परम ,
उसके सिवा नहीं कोई दूजा
सुनो पार्थ कहे सभी धरम।

ज्योति की ज्योति बोधगम्य वह
माया से परे कहा जाता ,
सब ह्रदय मे स्थित वह है,
विज्ञ तत्त्व से वश है लाता ,
जानने योग्य सरल उसे पाना ,
आदिकाल से पूजे जमाना ।

क्षेत्र ज्ञान  व ज्ञेय बताया
इस प्रकार संक्षिप्त रूप में ,
भक्त मेरे हैं इसे समझ कर
आ जाते मेरे स्वरूप में ।

पुरुष और प्रकृति दो ही
अनादि है ऐसा तू जान ,
त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ को
प्रकृति से जन्मा मान ,
राग द्वेश आदि विकार भी
प्रकृति ने किया उत्पन्न ,
सुनो पार्थ इसे ध्यान लगाकर
स्थिर करके अपना मन।
( त्रिगुणात्मक - सत , रज ,तम )

प्रकृति उत्पन्न है करती
कार्य और कारण ,
जिससे सुख-दुख जीवात्मा
भोग है करता ,
सुनो पार्थ प्रकृति कारक
विज्ञ बताते ,
जीवात्मा उसके अधीन
सब है समझाते ।

त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ जिसे
प्रकृति ने उत्पन्न किया ,
प्रकृति में स्थित पुरुष जिसे
सदियों से है भोग किया ,
इन गुणों के संग के कारण
जीवात्मा बनता है चारण ,
अच्छी बुरी योनी में जाकर
पुनर्जन्म लेता है आकर ।

पुरुष प्रकृति में स्थित हो
प्रकृति गुण भोग है करता ,
प्रकृति संग के कारण
सत् असत् योनी है धरता ,
रूचता जिसको गुण है जैसा ,
योनी धरता है वह वैसा।

इस शरीर में एक और है
परम पुरुष विद्यमान ,
जो है ईश्वर परम स्वामी
परमात्मा समान ,
साक्षी और अनुभूति कर्त्ता ,
जिसकी विज्ञ हैं करते चर्चा ।

पुरुष और प्रकृति गुणों को
जो मनुष्य तत्त्व से जाने ,
करता हुआ सभी कार्यों को
अपना शुभ कर्तव्य को माने,
पुन: नहीं जन्म को पाता ,
वह सीधे मुक्त हो जाता।

परमात्मा के परम रूप को
कुछ ने देखा करके ध्यान ,
आत्म मनन व चिंतन से कुछ
व कुछ करके अर्जित ज्ञान ,
कर्म योग कर्तव्य भी करके
सहज प्राप्त उसको कुछ करते ।

मंदबुद्धि कुछ ऐसे  भू पर
उपरोक्त व्यक्तियों से सुन कर ,
इन तत्त्वों को मन में धरते ,
परमब्रह्म पा वे भी तरते।

स्थावर जंगम सब प्राणी
धारा पर जन्म है पाता ,
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ  संयोग से
जन्म है लेकर भू पर आता ।

सभी चराचर भूत नाश को
पाए एक दिन,
इनमें स्थित परमेश्वर सिर्फ
अजर अमर है ,
विज्ञ पुरुष जो करता है
ऐसा अवलोकन ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
करता लोकन ।

सभी जगह दिखे विद्यमान ,
सब जीवों में एक समान ,
स्वयं स्वयं को करे न नाश ,
परम में करता है निवास ।

सभी कर्म निष्पादित होता
प्रकृति से ,
आत्मा इसमें अकर्त्ता रहता
है हरदम ,
ज्ञान चक्षु है जिन पुरुषों का
ऐसा देखे ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
ऐसा पेखे।

पृथक-पृथक भूतों के
सुनो पृथक भाव को ,
एक परम पिता में सुनो
जो जन माने ,
यह विचार है मन में जिनके
ज्योंहि आए ,
परम ब्रह्म को समझो त्योंहि
प्राप्त हो जाए।

अनादि निर्गुण अविनाशी
परमात्मा है स्थित तन में ,
ना कुछ करता , लिप्त न रहता ,
उत्प्रेरक सा युक्त है रहता।

सर्व व्याप्त सूक्ष्म आकाश
लिप्त नहीं रहता है  जैसे ,
सर्व स्थित निर्गुण आत्मा
तन गुणों से लिप्त न वैसे।

एक रवि संपूर्ण ब्रह्मांड को
प्रकाशित करता है जैसे ,
एक आत्मा पूर्ण क्षेत्र को
प्रकाशित करता है वैसे ।

ज्ञान चक्षु से क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ व
प्रकृति को तत्त्व से जाने ,
परम ब्रह्म को प्राप्त है करता
दुनिया उसको विज्ञ है माने ।

**********समाप्त*******************.

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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