शुक्रवार, 20 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 10 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी आत्म विभूतियों का परिचय कराते

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 10
इस अध्याय में अपनी आत्म विभूतियों का परिचय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताएं हैं।
( विभूति = ऐश्वर्य , वैभव , महत्ता इत्यादि )
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
हे पुरुषोत्तम ! महाबली तू ,
सुनो मेरे परम वचन को ,
जो सुखदायक व है लायक ,
कहता केवल भक्तजनों को ।

नहीं देवता ,नहीं महर्षि ,
जाने मेरे जन्म-मरण को ,
देव महर्षि का मैं आदि ,
पैदा करता मैं ही सबको ।

मेरा अजन्मा व अनादि
लोक महेश्वर तत्व जाने जो,
पाप मुक्त हो जाए वह नर ,
जब मृत्यु को पता है वो ।

बुद्धि ज्ञान सम्मोहन शम दम ,
सत्य क्षमा भी मुझको मान ,
सुख-दुख भय और निडरता ,
भाव अभाव भी मुझको जान ।

तप संतोष दान यश अपयश ,
अहिंसा समता ए नाना ,
सब जीवो में जन्मे मुझसे ,
कहता वेद पुराण जमाना।

चौदह मनु ,सनकादि पुरातन ,
सप्तर्षी जन्में मेरे संकल्प से ,
और सभी जन देख रहा तू ,
जन्मे हैं सब  इन ऋषियों से ।

मेरे इस विभूति योग के
तत्त्व सार को जाने जो जन,
परम विभूति को पाता है ,
अभय निडर होता उनका मन।

सबका मन प्रभाव है मुझसे ,
सब उत्पत्ति है मुझसे पाते ,
ऐसा मान जो भजते ज्ञानी ,
पुनः लौट कर मुझमें आते ।

शुद्ध चित्त और शुद्ध प्राण से
मेरी भक्ति करता जो जन ,
तुष्ट और संतुष्ट होकर
मुझ में रमता है उसका मन।

मेरा चिंतन करता है जो
प्रीति पूर्वक सतत हमेशा ,
बुद्धि योग को प्राप्त करे वह ,
भोगे समृद्धि स्वर्ग के ऐसा ।

परम अनुग्रह करने हेतु
स्थित हो ऐसा जन-मन को ,
हरता तम अज्ञान कुबुद्धि ,
प्रज्वलित करता ज्ञान रतन को।

अर्जुन उवाच-
परम ब्रह्म व परमधाम तू ,
परम पवित्र व पुरुष सनातन ,
आदि देव तू और अजन्मा ,
सर्वव्यापी तू हे रिपुसूदन !

असित , व्यास ,नारद व देवल
आदि ऋषिगण कहते ऐसा ,
स्वयं आप भी कहते ऐसा  ,
फिर क्यों मानूं जैसा तैसा ?

जो कुछ कहते मेरे प्रति तू ,
उन सबको मैं सत्य मानता ,
तेरे लीलामय स्वरूप को
नहीं दनुज , नहीं देव जानता।

स्वयं स्वयं को स्वयं तू जाने ,
हे पुरुषोत्तम ! हे भूतेष !
भूतों का हे सृजन कर्त्ता !
  जगतपति तू , हे देवेश !

अपनी आत्म विभूतियों को
कहे कृपा कर केशव मुझसे ,
सब लोकों में व्याप्त आप हैं ,
और हैं स्थित जिनके बल से ।

किस प्रकार से नित्य निरंतर
चिंतन करके तुमको जानूं,
किन-किन भावों में चिंतन कर ,
हे भगवान ! मैं तुमको मानूं।

अपनी योग विभूतियों को
मुझे सुनाएं , हे जनार्दन !
अमृतमय इन वचनों को
सुन तृप्त नहीं होता है मन।

भगवान उवाच-
अपनी आत्मा विभूतियों को
कहता तुमसे जो अनंत है,
अतः सुन संक्षिप्त रूप में ,
वृहद रूप का नहीं अंत है।

सब भूतो के ह्रदय स्थित
आत्मा हूं तू ऐसा जान ,
आदि, मध्य और अंत सभी का
गुडाकेश तू मुझको मान ।

अदिति पुत्रों में मैं विष्णु ,
ज्योतियों में मैं रवि हूं जान ,
मरुत गणों में स्वयं मरीचि ,
नक्षत्रों में शशि तू मान ।

वेदों में मैं सामवेद हूं ,
इंद्रियों में मन रंजना ,
देवों में मैं इंद्रदेव हूं ,
सब जीवों में हूं चेतना ।

पर्वतों में मेरु पर्वत ,
रूद्रों में तू शंकर जान ,
यक्ष राक्षसों में कुबेर हूं ,
वसुओं में तू अग्नि मान ।

बृहस्पति हूं पुरोहितों में ,
समुद्रों में स्थिर सागर ,
सेनापतियों में स्कंध मैं ,
बोला अर्जुन से नटनागर ।

महर्षियों में भृगु मुनि मैं ,
शब्दों में ओंकार अहम् ,
यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं ,
हिमालय सा अडिग स्वयं।

देवर्षियों में नारद मुनि मैं ,
गंधर्वों में चित्ररथ गुनी ,
सब वृक्षों में पीपल तरु मैं ,
सिद्धों  में कपिल मुनि ।

हाथियों में ऐरावत हूं ,
मनुजों में तू राजा मान ,
अश्वों में हूं उच्चैश्रवा ,
सागर से निकला था जान ।

गायों में मैं कामधेनु हूं ,
शस्त्रो में मैं बज्र कठोर ,
सर्पो में मैं स्वयं वासुकी,
कामदेव मैं काम चकोर ।

नागों में मैं शेषनाग हूं,
जलचरों का वरुण देवता ,
अयर्मा हूं सब पितरो में ,
यमराज सा शासन कर्त्ता ।

दैत्यों में प्रहलाद आज हूं ,
ज्योतिषियों का समय साज हूं ,
पशुओं में मैं मृगराज हूं ,
पक्षियों में मैं गरूड़ ताज हूं ।

पवित्र करता वायु मैं हूं ,
शस्त्र धारियों में मैं राम,
मगर मछलियों में मैं ही हूं ,
नदियों में मैं गंगा धाम ।

अध्यात्म यानी ब्रह्मविद्या
विद्याओं में मुझको जान ,
आदि ,अंत और मध्य सृष्टि का
विवादों ने वाद तू मान ।

अक्षरों में अकार भी मैं हूं ,
कालों में मैं महाकाल ,
समासों में द्वंद समास मैं ,
सबका पालक जग का भाल ।।

सबका नाश ,मृत्यु व उद्भव
और भविष्य हूं सब क्रिया में ,
कृर्ति ,श्री , धृति , स्मृति ,
वाक् , क्षमा ,मेधा त्रिया में ।

श्रुतियों में मैं वृहद साम हूं ,
मासों में मैं  माघ फुहार ,
छंदों में मैं छंद गायत्री ,
ऋतुओं में वसंत बहार।

छलों में मैं द्यूत जूआ हूं ,
तेजवान का तेज अनल ,
सभी उद्योग व विजय भी मुझसे ,
सात्त्विक जन का सात्त्विक बल।

वृष्णिवंशो में वासुदेव मैं ,
मुनियों में मैं व्यास आचार्य ,
पांडवों में मैं स्वयं धनंजय ,
कवियों में मैं शुक्राचार्य ।

दुष्ट दमन का दंड सान हूं ,
जेताओं की नीति- खान हूं ,
गुप्त भावों का मौन ध्यान हूं ,
विज्ञों का मैं तत्त्व ज्ञान हूं।
( सान = धार तेज करने का मशीन )

सब भूतों का जन्म मुझी से ,
अचर भूत हो अथवा चर ,
ना कोई है मुझसे वंचित
देव यक्ष हो अथवा नर।

मेरी दिव्य विभूतियों का
नहीं अंत है ऐसा जान,
कहा तुझे संक्षिप्त रूप में
बृहद रूप अनंत है मान ।

ऐश्वर्य , कांति और शक्ति
सभी विभूतियां मुझसे जान,
मेरे तेज के अंश से संभव
गुडाकेश ! तू ऐसा मान।

अपनी योगशक्ति के कारण
पूर्ण जगत मैं करता धारण ,
बहुत न जानो ,जानो मुझको ,
बने समृद्धि तेरे चारण ।

*************समाप्त********************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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