रविवार, 15 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 6 )


आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 6
इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश दिये हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
कर्म फल का आश्रय न ले ,
और कर्म करे सुजान ,
संन्यासी योगी कहलाता,
ऐसा अर्जुन तू यह जान ,
मात्र अग्नि के त्याग से कोई ,
न संन्यासी बनता जैसे ,
न क्रियाओं के त्याग से
योगी कहलाता जन वैसे ।

जिसको कहते हैं संन्यास ,
योग वही है ऐसा जान ,
बिन इच्छा को त्यागे कोई
योगी नहीं हो सकता मान ।

नव साधक अष्टांग योगी हेतु
निष्काम कर्म साधन कहलाता ,
सब भौतिक कार्यों का त्याग से ,
योगी सिद्ध नर है बन जाता ।

भौतिक सब इच्छाओं को त्याग
इंद्रियों तृप्ति हेतु कार्य न करता,
न सकाम कार्यों में प्रवृत्त जो
योगारूढ़ प्रभु में विचरता ।

मन के कारण अधोगति
और मन के कारण हो उद्धार,
मन है मित्र और मन ही शत्रु ,
जैसा मन वैसा विचार ,
अतः मनुज को चाहिए जैसा
रखे नियंत्रण मन पर वैसा ।

जिसने मन पर किया वश ,
उनके लिए मन है मित्र ,
जिसने मन पर किया न वश ,
उनके लिए मन बना अमित्र ।

सर्दी -गर्मी , सुख -दुख आदि ,
मान और अपमान ,
इनमें दृढ़ बना जो जन है ,
उनको योगी मान ,
परमात्मा में उनका ध्यान ,
इसके सिवा न दूजा ज्ञान।

ज्ञान और विज्ञान से तृप्त जन ,
शुद्ध स्वच्छ है जिनका तन-मन ,
इंद्रियों पर जिसको वश ,
अपने ऊपर जिसको कस ,
सोना- मिट्टी  एक समान
और रत्नों पर भी नहीं ध्यान ,
सब कहते हैं ऐसा तन,
कहलाता है योगी जन ।

पापी ,वैरी , द्वेषी आदि
बंधु , मित्र , सुहृदय इत्यादि ,
उदासीन , मध्यस्थ , अभिमानी
के संग भी सम है जो प्राणी ,
श्रेष्ठ नर है वह कहलाता ,
योगी में गिना जन जाता।

इंद्रियों और मन पर तन पे ,
करे नियंत्रण जो जन  वश में ,
आकांक्षाओं और संग्रह से
रखे दूरी ,अकेलापन में
परमात्मा में ध्यान लगाए ,
ऐसा जन योगी कहलाए ।

योगाभ्यास का सुनो बयान ,
योगी चुनता जगह एकांत ,
कुश बिछा रखे मृगछाला ,
उन पर वस्त्र मुलायम डाला ,
आसन बहुत न ऊंचा नीचा ,
जगह पवित्र में है यह बिछा

उस पर बैठकर योगी तन
स्थिर करता अपना मन ,
इंद्रियों पर करता वश ,
अंतःकरण को करता कस ,
एक बिंदु पर रखे मन ,
इनको कहते योगी जन ।

तन ,गर्दन और सिर को ,
एक सीध में रखता योगी,
और नाक के अग्र भाग को
देखें आंखें  स्थिर हो ,
और न दूजा चीज उसे
देती दिखलाई
यही तरीका योग का
सब ने सिखलाई।

इस प्रकार वह मन को रोककर
और भयहीन होकर ,
विषयी जीवन से पूर्णतया
मुक्ति लेकर,
मन में मेरा चिंतन लाए ,
अपना परम लक्ष्य बनाए ।

जिस योगी का मन हो नियंत्रित ,
और मन मुझ में है रमता ,
परमानंद परम शांति को ,
सहज सरल में पा जाता वो ।

अति भोजन या नहीं भोजन ,
अति शयन या नहीं शयन ,
से नहीं योग की होती सिद्धि ,
ऐसा सोचे अज्ञ कुवुद्धि।

नियत कर्म और नियमित भोजन ,
नियमित आहार- बिहार ,
नियमित सोना , नियमित जागना,
नियमित सभी व्यवहार ,
ऐसा नियम जिसे है भाता ,
योगी जन वह नर कहलाता।

मानसिक कार्यकलापों पे कस ,
सभी भौतिक इच्छाओं पर वश ,
अध्यात्म में मन को लगाता ,
ऐसा नर योगी कहलाता।

हवा रहित स्थान में दीपक
हिलता-डुलता है नहीं जैसे ,
परमात्मा के ध्यान में योगी
अपना मन को रखता वैसे ।

योग के अभ्यास से
आत्म शक्ति आ जाती ,
परमात्मा के ध्यान से
बुद्धि शुद्ध हो जाती ,
उपरोक्त अभ्यास से
संतुष्टि मिल जाती ,
अंत समय आ जाता
तो मुक्ति मिल जाती ।

इंद्रियों से परे अति सूक्ष्म विशुद्ध
परमानंद आनंद को जो अपनाता है ,
जिस रूप से या जैसे जो भी पाता है,
सिद्ध सज्ञ नर वह योगी कहलाता है।

परम आत्मा की प्राप्ति
लाभ बड़ा कहलाया है ,
इसके सिवा लाभ न दूजा
जिसको कोई पाया है,
इस लाभ को जिसने पाया ,
कोई संकट नहीं सताया ।

दुख रूपी संसार है भोग ,
इसे छुड़ाता वह है योग ,
धैर्य और उत्साह के साथ
जो करता वह बनता नाथ ,
परम शांति पाए वो
इसको अपनाए नर सो।

संकल्प और श्रद्धा के साथ
योगाभ्यास में लगता जो ,
जो न कभी अपने पथ से
संकट पाकर विचलित हो,
भांति-भांति की इच्छाओं को
मन से त्याग है करता जो ,
सभी ज्ञान इंद्रियों पर
वश में रखता है जो नर ।

धीरे-धीरे दृढ़ता से
एक बिंदु पर रखे मन ,
अपने मन को आत्मा में
स्थित करता है जो जन ,
इसके सिवा न सोचे जो ,
योगी बन जाता है वो ।

चंचल मन नहीं रहता स्थिर ,
यत्र तत्र यह करता विचरण ,
इन्हें रोक जो वश में लाए,
सिद्ध पुरुष में गिना जाए।

शांत चित्त और मन हो जिसका ,
रजोगुण नहीं जिसे लुभाए ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म संग वह
एकी भाव से सुख को पाए ।

पाप रहित मानव निरंतर
परमात्मा में सब कुछ पाता ,
परम ब्रह्म संग रहे आनंदित ,
अनंत आनंद आत्मा में आता ।

सभी भूत स्थित आत्मा में ,
एकी भाव से देखने वाला ,
अपने को पाए सब मन में ,
सभी मन को अपने तन में।

सब भूतों को आत्म रूप में
मुझे देखता है साधक जो ,
उसके लिए अदृश्य नहीं मैं ,
नहीं अदृश्य मेरे लिए वो ।

परमात्मा और मुझे नहीं
माने जो दूजा ,
भक्ति पूर्वक जो करता
है मेरी पूजा ,
सदा है स्थित रहता मुझ में
ऐसा ही जन ,
विचलित कभी नहीं होता
इस योगी का मन ।

अपनी भांति सब भूतों को
जो है देखे ,
सुख और दुख में भी जो
सम है पेखे ,
परम श्रेष्ठ ऐसा योगी जन
है कहलाता,
सुनो पार्थ यह तत्त्व सदा
सब सज्ञ सुनाता ।

अर्जुन उवाच-
मधुसूदन से बोला पार्थ ,
कृपा कर प्रभु सुने आप ,
बतलाया जो योग दर्पण ,
समझ ना पाया मेरा मन ,
क्योंकि चंचल होता मन,
स्थिर नहीं कर पाता जन।

मन है चंचल, मन है हठी ,
मन बहुत बलवान ,
वश में करना ऐसा मन को
बड़ा कठिन भगवान ,
वश वायु  कर सकता नर ,
पर मन वश करना दुष्कर ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से ब़ोले भगवान -
मन चंचल है निश्चित जान ,
मुश्किल से यह वश में आता ,
दुष्ट मूर्ख नहीं वश कर पाता ,
अभ्यास वैराग्य से इस पर ,
सज्ञ विज्ञ है विजय बनाता ।

जिनका मन वश में नहीं जानो,
उनको योग कठिन है मानो ,
जिनका मन वश में है जानो ,
उनको योग सहज है मानो ,
ऐसा मेरा मत है जानो ,
अपने को अर्जुन पहचानो ।

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - कृपा निधान!
इस संशय का करें निदान ,
योग में श्रद्धा रखता जो ,
पर संन्यासी नहीं है वो ,
अंतकाल जब उसका आया ,
योग से मन को विचलित पाया ,
ऐसा जन क्या गति को पाए ?
कृपा कर श्रीमान बताएं ।

छिन्न-भिन्न मेघों की भांति
नष्ट हो जाता है क्या यह जन ?
अथवा भगवत् प्राप्ति करता
ऐसा जन मानस  का तन ।

अर्जुन  बोला- हे श्रीमान !
उपरोक्त का करें निदान ,
आप सिवा नहीं दूजा नर ,
इन प्रश्नों का दे उत्तर ।

भगवान उवाच -
कल्याण का करता कार्य ,
नहीं नाश वह पाता आर्य ,
लोक और परलोक कहीं ,
जहां कहीं भी रहे सही ,
अतः भलाई का यह प्यारा ,
नहीं बुराई से है हारा ।

योग भ्रष्ट भी योगी जन ,
स्वर्ग लोक पा जाता जान ,
बहुत वर्ष तक करके भोग ,
पुनः जन्म है लेता मान ,
सदाचारी समृद्ध धनवान
के घर जन्म है लेता जान।

नहीं नीच कुल को है पाता ,
सज्ञ विज्ञ के घर है आता ,
अज्ञों के हेतु दुर्लभ ,
पर योगियों के लिए सुलभ ।

पुनर्जन्म के पुण्यों से
पुनः योग संस्कार है पाता ,
पहले से भी बढ़कर वो ,
धर्म मार्ग में मन को लगाता ।

पूर्व जन्म के चेतना ज्ञान
स्वत: उसे आकर्षित करता ,
शास्त्र नियम नहीं उस पर लगता ,
परे शास्त्र से कार्य वो करता ।

पर सत्  कर्मक  इसी जन्म में ,
सब पापों से मुक्त हो जाता ,
पूर्व जन्म के पुण्यों के बल
परम गति को है पा जाता ।

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी
शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ ,
कर्म सकाम करने वालों से
योगी हरदम होता है जेष्ठ,
अतः पार्थ तू योगी बन ,
स्थिर कर तू अपना मन ।

योगियों में भी श्रद्धावान
जो योगी मुझको भजता जान ,
ऐसा जन है मुझको भाता ,
मेरा परम भक्त कहलाता।

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इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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