शनिवार, 21 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 11 )



              अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण विश्वरूप ( विराटरूप ) दिखाते हुए।


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 11
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप दर्शन यानी विराट रूप का परिचय कराया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
मुझ पर परम अनुग्रह करके
परम गुप्त अध्यात्म बताया ,
जिसे सुन मन-मोह कुबुद्धि
नष्ट हुआ व ज्ञान समाया।

सब भूतों व प्रलय काल का
सुना मैं तू जनक कहाए ,
अविनाशी महिमा से मंडित
तुम्हें सदा है जगत बताए  ।

जैसा तूने तू को बतलाया ,
देखना चाहूं वैसा तुझको ,
ज्ञान ऐश्वर्य तेज बल शक्ति
युक्त तुम्हारे ईश्वर रूप को ।

यदि है संभव देख पाना
तेरे उस अविनाशी रूप को ,
हे योगेश्वर ! देव दयामय !
मुझे दिखाओ उस स्वरूप को।

भगवान उवाच-
कोटि-कोटि व नाना विधि के ,
नाना वर्ण , आकृति वाला ,
अलौकिक रूपों को मेरे
देख पार्थ कहा जग रखवाला ।

आठ वसु व रूद्र ग्यारह ,
पुत्र अदिति देख तू  बारह ,
उनचास मरुतगण को भी देखो ,
अश्विनी दो ए अद्भुत पेखो ।

पूर्ण जगत को और चराचर
देख एकत्रित मेरे तन में ,
गुडाकेश ! सब कुछ देखो तू ,
जो इच्छा है तेरे मन में ।

अपने इन नेत्रों के द्वारा
देख नहीं सकता है मुझको ,
दिव्य रूप दर्शन के हेतु
दिव्य दृष्टि देता हूं तुझको ।

अविनाशी योगेश्वर हरि ने
ऐसा कह निज रूप बढ़ाया ,
परम अलौकिक वृहद डरावन
योगशक्ति दिव्य रूप दिखाया ।

अनेक मुख और नैन बहुत सा ,
देखने में यह अद्भुत लगता ,
दिव्य आभूषण , दिव्य अस्त्र से ,
दिव्य रूप यह अद्भुत जचता ।

दिव्य मालाएं, दिव्य वस्त्र से ,
दिव्य गंध से वासित तन है ,
अनंत दिशा में मुख सभी ओर ,
अद्भुत दिखता रूप परम है ।

कोटि-कोटि उदित सूर्य से
नहीं तेज होता है उतना ,
तेज पुंज चमक ज्वाला से
दिव्य रूप प्रकाशित जितना ।

पृथक- पृथक व तरह-तरह का
पूर्ण और संपूर्ण जगत को ,
केशव के तन में अर्जुन ने
देखा सत को और असत को ।

विश्वरूप इस परम ब्रह्म का
देख चकित व पुलकित होकर ,
परम भक्ति से हाथ जोड़कर
बोला अर्जुन तन- मन खोकर ।

अर्जुन उवाच -
ब्रह्मा शिव सभी ऋषियों को
सब भूतों के दल को पाता ,
दिव्य सर्प सब देव महादेव
तेरे तन में मुझे सुहाता ।

अनेक भुजा ,पेट , मुख , नेत्रों से
युक्त अनंत सा देखूं तुझको ,
नहीं आदि न अंत न मध्यम
विश्वरूप में दिखता मुझको।

मुकुट युक्त ,गदा ,चक्र मंडित
तेजपुंज से दीप्त अखंडित ,
सूरज की प्रदीप्त ज्योति हो ,
ऐसा अद्भुत दिखता मुझको ।

परम अक्षर तू वेत्ता वेदित
तुम में आस्था धाम पुरातन,
तुम्ही अनादि धर्म के रक्षक
तू अविनाशी पुरुष सनातन।
( वेत्ता = जानने वाला / ज्ञाता ,
   वेदित = ज्ञापित/ जाना हुआ )

आदि अंत व मध्य रहित है ,
अनंत शक्ति से मुख प्रज्वलित है ,
शशि सूर्य सा चक्षु हस्त है ,
दीप्त तेज से विश्व तप्त है ।

स्वर्ग और भू के बीच का
संपूर्ण अकाश व सभी दिशाएं ,
एक आपसे पूर्ण व्याप्त हो
भोग रहा संताप व्यथाएं ।

देवों का दल घुस रहा है ,
कुछ भयभीत खड़ा नतमस्तक ,
नाम गुण की गान करें कुछ ,
स्वस्ति कहता ऋषि दल मस्तक।
(स्वस्ति = कल्याण हो )

सिद्ध वसु ,आदित्य , रूद्र गण ,
विश्वदेव , मरूत व पितर ,
राक्षस , यक्ष, गंधर्व ,अश्विनी ,
देख रहे सब विस्मित होकर।

बहुत मुख, हस्त, नेत्र व जंघा ,
पैर ,उदर  विकराल दंत को ,
जग व्याकुल है , मैं भी आकुल ,
दर्शन कर इस महानंत को ।

नभ को छूता विविध वर्ण युक्त
विशाल चक्षु , दीप्त वृहद मुख ,
अवलोकन कर भय खाता हूं ,
धैर्य न शांति को पाता हूं।

विकराल दंत ,प्रज्वलित अग्नि मुख
प्रलय काल की वेला जैसे ,
दिग्भ्रमित कर श्रीहीन कर दे ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पे ।

धृतराष्ट्र के पुत्र सभी सब
घुस रहे राजाओं संग में ,
भीष्म , द्रोण व कर्ण इत्यादि 
दिख रहे हैं तेरे अंग में ।

मेरे पक्ष के वीर सभी सब
आप के मुख में दौड़ दौड़ कर ,
चूर्ण बने विशाल दंत से
पीस रहे हैं कौर बनकर ।

प्रबल जलधारा से सरिता
सागर में जा मिलती जैसे ,
आपके प्रज्वलित वृहद मुख में
वीर जगत के घुस रहे वैसे।

मोहित हो प्रज्वलित अग्नि से
नाश पतंगा पाते जैसे ,
आप के मुख में नाश के हेतु
पूर्ण जगत है दिखता वैसे ।

प्रज्वलित मुख व लपलप जीभ से
बना ग्रास संपूर्ण लोक है  ,
उग्र प्रकाश तेज से तपता
पूर्ण जगत में शोच शोक है।

देव श्रेष्ठ है नमन हमारा ,
कौन आप इस उग्र रूप में ?
नहीं प्रवृति ज्ञात तुम्हारी
मुझे बताएं बृहद रूप में ।

भगवान उवाच-
इन लोगों के नाश के हेतु
बढ़ा प्रवृत्त मैं महाकाल रब ,
युद्ध करो या नहीं करो तुम ,
नहीं बचेंगे ए  योद्धा सब ।

पहले ही मैं मार चुका हूं ,
देख रहा शूरवीर यहां पर ,
धन यश और राज्य को भोगों ,
निमित्त मात्र बन इन्हें जीतकर।

द्रोण  भीष्म , जयद्रथ, कर्ण सा
और बहुत शूरवीर संहारा ,
तू भी मार , न भय कर अर्जुन ,
जीतेगा सुपात्र न हारा।

वचन कृष्ण का ऐसा सुनकर
हाथ जोड़ अर्जुन मुख खोला ,
कुछ भयभीत हो नमस्कार कर
गदगद वाणी से वह बोला ।

अर्जुन उवाच-
स्थानों में ऋषिकेश तू ,
जग हर्षित है  पौरूष तेरा ,
राक्षस भाग रहे भय आकुल ,
साधु डाल रहे हैं फेरा ।

ब्रह्मा के भी आदिकर्त्ता
नमन तुझे है हे सर्वोत्तम !
अनंत देवेश ,हे जगन्निवास!
असत सत अक्षर तू उत्तम ।

आदिदेव तू पुरुष पौराणिक
परम निधि है आस्था तुझ में ,
परमधाम यह मान्य विश्वरूप
पूजनीय है दिव्य स्वरूप में।

हवा अनल यम वरुण चंद्र तू ,
ब्रह्मा ब्रह्मा के पिता भी ,
कोटि-कोटि है नमन हमारा ,
पुनः नमन स्वीकार करो भी ।

सर्व रूप में व्याप्त जगत में ,
बल विक्रम की अतुल धारा ,
अग्रभाग व पृष्ठ भाग से
सभी ओर से नमन हमारा ।

तेरी महिमा से अपरिचित
प्रेम युक्त या भ्रांत युक्त चित्त,
सखा मान मैं यह कहता हूं ,
हे यादव कृष्ण ! परम सखा तू।

मेरे शय्या , आसन ,भोजन
व बिहार के लिए प्रभु तू ,
कष्ट और अपमान सहा है ,
हे अचिंत्य !  सब क्षमा करो तू ।

जगत पिता तू , गुरु ना तुम सा
पूज्य चराचर में नहीं पाएं ,
और न कोई तुम सा दूजा
किसी लोक में मुझे सुहाए।

पिता-पुत्र को , सखा सखा को ,
प्रिय प्रियतमा क्षमा करें ज्यों ,
स्तुति नमन निवेदन करता ,
कृपा करके क्षमा करें त्यों।

अपूर्व अद्भुत इस दर्शन से
मन हर्षित है , भय भी खाए ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पर
रूप चतुर्भुज फिर अपनाएं ।

मुकुट गदा चक्र युक्त स्वरूप में
देखना चाहूं फिर से तुझको ,
अतः हे माधव! रूप चतुर्भुज
में दर्शन दें फिर से मुझको।

भगवान उवाच-
परम तेज सा विश्वरूप यह
आत्म योग से तुझे दिखाया ,
तेरे सिवा और नहीं दूजा
देखा इसको स्वयं बताया ।

नहीं यज्ञ अध्ययन वेदों से ,
नहीं दान , नहीं उग्र तपों से ,
नहीं क्रिया से इस नृलोक में ,
देखा यह रूप है त्रिलोक में।

देख इस विकराल रूप को
नहीं विमूढ़ हो ,ना हो आकुल ,
रूप चतुर्भुज देख पुन: तू ,
अभय बनो , न बन तू व्याकुल।

ऐसा कह कर रूप चतुर्भुज
पुनः दिखाया वासुदेव ने ,
सौम्य मूर्ति बन धैर्य दिलाया  ,
अर्जुन को श्रीकृष्ण देव ने ।

अर्जुन उवाच-
सौम्य शांत इस मनुज रूप को
देख के स्थिर चित्त को पाया ,
स्वभाविक स्थिति को पाकर
मेरे मन में मोद समाया।

भगवान उवाच-
रूप चतुर्भुज जो तू देखा
बड़ा ही दुर्लभ दर्शन इसका ,
करें आकांक्षा देव सदा से
पाने को है दर्शन जिसका ।

नहीं वेद यज्ञ दान और तप से
मुझको देखा कोई वैसा ,
सब्यसाची हे भक्त धनंजय!
मुझको देखा है तू जैसा।

अनन्य भक्ति के द्वारा मैं
दर्शन को प्रत्यक्ष रूप में ,
प्राप्त तत्त्व से जानने हेतु
भी संभव मैं अनेक रूप में ।

मेरी भक्ति मेरा परायण ,
मेरे लिए कर्म करता जो ,
वैर भाव आसक्ति हीन नर
मुझे प्राप्त हो जाता है वो।

*************समाप्त*********
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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