बुधवार, 18 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 8 )

अर्जुन को अक्षर ब्रह्म, अधिदैव ,अधिभूत और अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 8
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अक्षर ब्रह्म , अधिदैव , अधिभूत , अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
ब्रह्म क्या ,अध्यात्म क्या है ?
क्या है कर्म ? कहे पुरुषोत्तम!
अधिभूत हैं कहते किसको ?
अधिदैव क्या है सर्वोत्तम ?

अधियज्ञ क्या ,कहां है स्थित ?
इस नर तन में हे मधुसूदन!
स्थिर मन नर जानते कैसे ?
अंत समय में हे रिपुसूदन!

भगवान उवाच-
परम अक्षर को ब्रह्म तू जानो ,
स्वभाव अध्यात्म तू मानो ,
जीव आत्मा भी कुछ कहते ,
त्याग भूत-भाव कर्म हैं कहते ।

जिनका हो उत्पति-नाश
अधिभूत सुनो है कहलाता ,
हिरण्यगर्भा ( ब्रह्मा ) पुरुषोत्तम
अधिदैव सुनो माना जाता ,
हर तन अंदर अंतर्यामी
वास जो करता ,
उसके अंदर स्वयं मैं
निवास है करता ,
यही अंतर्यामी मैं
अधियज्ञ कहलाए ,
सुनो पार्थ यह ब्रह्म ज्ञान
तुमको बतलाए ।

अंत समय में जो जन मुझको
मन में लाता ,
देह त्याग पर वो जन मुझको
प्राप्त हो जाता ,
इसमें कुछ संदेह नहीं है ,
सत्य यही है ,सत्य यही है ।

अंत समय में जो जो भाव
है मन में आता ।
देह त्याग पर उसको ही नर
प्राप्त हो जाता ,
पूर्ण जीवन जिनका कर्म जैसा,
अंत समय भाव आता वैसा।

मुझ में मन तन अर्पित कर
और युद्ध भी कर तू ,
अंत समय में प्राप्त करेगा मुझे
तनिक न डर तू ।

स्थिर चित्त अभ्यास योग से
परम पुरुष का करता चिंतन ,
बिन संशय उस दिव्य पुरुष को
प्राप्त है करता ऐसा जन-मन ।

जो सर्वज्ञ अनादि नियंता
धारण -पोषण सबका करे ,
अचिंत्य रूप आदित्य वर्ण
अविद्या से अति परे ,
परिशुद्ध सच्चिदानंद घन
परमेश्वर का स्मरण करे।

भक्ति युक्त ऐसा नर मन का
अंत काल का समय है आता ,
योगबल से भृकुटी के बीच
प्राण को स्थिर कर पाता ,
स्थिर मन से परम ब्रह्म जप
परमात्मा में मिल जाता ।

जिसे वेदज्ञ कहे अविनाशी ,
वास करे जिनमें संन्यासी ,
ब्रह्मचर्य सीखे ब्रह्मचारी ,
उसे सुन अब गांडीवधारी ।

सब इंद्रियों को निरुद्ध कर,
मन हृदय में स्थिर कर जो ,
प्राण सुकेन्द्रित कर मस्तक में ,
योग धारणा में स्थित हो ।

एकाक्षर ब्रह्म ओम उच्चारे,
निर्गुण भजते स्वर्ग सिधारे ,
परम गति को यह नर पाए ,
पुनः नहीं धारा पर आए ।

अनन्य चित्त से नित्य निरंतर
भजता जो नर-मन है मुझको ,
सहज ही प्राप्त हो जाता हूं मैं ,
ऐसा योगी साधु जन को ।

परम सिद्धि को प्राप्त जो करता ,
मुझे स्वयं वह प्राप्त हो जाता ,
क्षणभंगुर और दुखों के घर
पुनर्जन्म को है नहीं पाता ।

मुझे प्राप्त कर लेता है जो
पुनर्जन्म नहीं लेता है सो ,
क्योंकि कालातीत नित्य मैं ,
अक्षर अनादि व आदित्य मैं ,
ब्रह्मलोक पर्यंत लोक सब ,
पुनरावर्ति कालाधिन रब ,
क्षर अनित्य है जाने सब नर ,
सिर्फ अक्षर मैं और सभी क्षर ।

ब्रह्मा के एक दिन में
होते चतुर्युग एक हजार ,
रात्रि को भी इतना जानो,
इसको माने सब संसार,
इन्हें तत्त्व से जो जन जाने ,
काल तत्त्व विद दुनिया माने।

ब्रह्मा के एक दिन के होते ही
ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से ,
जन्म पाए सब जीव चराचर
इस अव्यक्त अनंत हीर से ,
ब्रह्मा की रात्रि काल पुनः जब छाए ,
जीव चराचर पुनः लौटकर इसमें आए ,
लीन हो जाते ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ,
परम ब्रह्म के इस अव्यक्त अनंत हीर में।

पैदा होकर भूत समूह यह
लीन हो जाता रात्रि काल में ,
दिन होते फिर पैदा होता ,
हो प्रकृति वश काल क्रम  में ।

उपर्युक्त अव्यक्त भाव से
अलग पुरातन ,
पूर्ण ब्रह्म अव्यक्त भाव है
नित्य सनातन ,
सब का नाश हो जाता पर यह
अजर अमर है ,
सभी भूत हैं क्षर
मात्र यही अक्षर है।

परम गति कहते हैं सब जन ,
अक्षर नाम अव्यक्त भाव है ,
इसे प्राप्त कर पुनर्जन्म नहीं ,
यहीं मेरा  परम गांव है ।

सर्वभूत जिनके अंतर्गत ,
पूर्ण जगत परिपूर्ण है जिनसे ,
वह अव्यक्त सनातन ईश्वर
प्राप्त हैं होते परम भक्ति से ।

जिस मार्ग से गए साधु जन
पुनः जन्म नहीं पाए ,
जिस मार्ग से गए योगी जन
पुनः लौट कर आए,
इन मार्गों की सुनो कहानी ,
सुन जिसे जन बनता ज्ञानी ।

जिस मार्ग से ज्योतिर्मय
अग्नि अभिमानी ,
शुक्ल पक्ष और दिन अभिमानी
रहे देवता ,
छः मास उत्तरायण सूरज
चमक है भरता ,
इस मार्ग से जो जाता
वह नहीं लौटता ,
मुक्त हो जाता पुनर्जन्म से ,
धारा के मानव के तन से।

जिस मार्ग में धूम अभिमानी 
रात्रि अभिमानी रहे देवता ,
कृष्ण पक्ष दक्षिणायन सूरज
में जो प्राण त्याग है करता ,
चंद्रज्योति उपयोग है करता ,
स्वर्ग सुख का भोग है करता ,
पुनर्जन्म धारा पर पाता ,
भोग स्वर्ग सुख वापस आता ।

शुक्ल ( देवयान )  और कृष्ण ( पितृयान )
मार्ग गमन का माना जाता धर्म सनातन ,
प्रथम मार्ग से पुनर्जन्म नहीं ,
दूजा से फिर पाता है तन ।

इन मार्गों को तत्त्व से
जानकर साधु योगी ,
माया बंधन से विमुक्त
हो जाते ए जन ,
इस कारण से हे अर्जुन!
तू सभी काल में ,
योगयुक्त व माया मुक्त हो
प्राप्त करो तू स्थिर तन मन ।

वेद यज्ञ व तप दान में ,
कहा गया जो पुण्य फल है ,
आत्मसात इन सबका कर्त्ता ,
तत्त्व विज्ञ जो योगी दल  है ,
भव बंधन से पार हो जाते ,
परम गति को वे पा जाते ।

************समाप्त*************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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