तीन रत्न है इस धारा पर ,
अन्न , जल व मधुमय वाणी ।
शिलाखंड को रत्न मानते ,
कहलाते जन मूर्ख अनाड़ी ।
आत्मा के अपराध वृक्ष से ,
पांच फल है फलता तन में ।
रोग ,दरिद्रता ,दुख व बंधन ,
व्यसन वगैरह जन जीवन में ।
भार्या , मित्र , धन व धारा ,
मिलते ए सब बारंबार ।
किंतु शरीर बहुत दुर्लभ है ,
इसे न नर पाए हर बार ।
बहुजन निर्बल जन मिलकर नाशे शत्रु प्रबल को ,
बलशाली नर पर हो अकेला है बेचारा ।
तृण समूह मिला करके जो छप्पर बनता ,
निष्फल करता बादल की यह प्रबल धारा ।
जल में तेल नहीं पचता है ,
दुर्जन में नहीं गुप्त वार्ता ।
दान सुपात्र स्वयं फैलाए ,
विज्ञ फैलाता शास्त्र की चर्चा ।
धर्म की चर्चा को सुनने पर,
श्मशान में चिता देखकर ।
रोगी देख जो भाव उपजता ,
पर यह भाव सदा नहीं रहता ।
गर यह भाव सदा रह पाए ,
मानव जन्म धन्य हो जाए ।
कर्म कुफल मिलने पर पछताए जन जैसा ,
कर्म के पहले गर सोचे रहता वह वैसा ।
नहीं समय पछताने का आता जीवन में ,
गिना जाता पुरुष महापुरुष सज्जन में ।
तप में , दान में और विज्ञान में ,
नीति कुशलता , शौर्य , विनय में ।
एक से बढ़कर एक धुरंधर ,
करे न विस्मय इसे सोच कर।
दूर न दूरी करती उसको ,
जो बसता है मन के अंदर ।
निकट नहीं भी निकट के वासी,
उससे मन गर करता अंतर ।
लाभ की इच्छा रखते जिससे ,
उससे रखो मधुर व्यवहार ।
मधुर बीन से मोहित करके ,
करे शिकारी मृग शिकार ।
राजा ,अग्नि ,गुरु व नारी ,
अति निकटता विनाशकारी ।
दूरी इनसे न फलदायक ,
मध्य अवस्था ये हितकारी ।
अग्नि ,जल , सर्प , मूढ़ , नारी ,
राजा , राजा का संबंधी ।
रखे सावधानी इन सबसे ,
हरे प्राण शीघ्र ए पाखंडी ।
उत्तम जीवन है गुणी का ,
थर्मी जन का जीवन सार्थक ।
हीन धर्म से अथवा गुण से ,
जन का जीवन व्यर्थ निरर्थक ।
केवल एक कर्म से जग को ,
अपना वश में चाहो करना ।
रामबाण उपाय समझ लो ,
पर निंदा से दूर तू रहना ।
अवसर के अनुकूल बोले जो वाक्य हमेशा ,
अपना ही सामर्थ मुताबिक प्रेम करे जो ।
जितनी शक्ति उतना क्रोध को करने वाला ,
दुनिया कहती पंडित गुणी ऐसा जन को ।
एक ही देह भिन्न दृष्टि से ,
भिन्न रूप में नजर है आता ।
कुत्ता मांस रूप में देखे ,
कामी में कामुकता लाता ।
योगी देखे त्रिया तन को ,
तन यह शव सा लागे उनको ।
6 बातों को सदा छिपाएं ,
मैथुन , दोष अपने घर जन को ,
धर्माचरण ,सिद्ध औषधि ,
अपनी निंदा ,कुभोजन को ।
कोयल दिन बिताती मौन होकर के तब तक ,
मीठी बोली के दिन आते हैं नहीं जब तक ।
जैसे ही ऋतुराज बसंती रंग में छाए ,
मनभावन वाणी में श्यामा खुलकर गाए ।
धर्म , धन धान्य व वचन गुरु का,
औषध का प्रयोग समझकर ।
जो नहीं करता हरे ए जीवन ,
चलें हमेशा इनसे बच कर ।
तज खल संगति , रह साधु संग ,
पुण्य कार्य कर हे! मानव जन ।
परब्रह्म को भज नित दिन तू ,
नित्य न जग यह , हे! जन के मन । ( नोट : - पूरा चाणक्य नीति काव्यानुवाद पढ़ने के लिए वाट्सएप 919351904104 पर संपर्क करें। या http://Www.nayigoonj.com पर क्लिक करें। )
+++ समाप्त +++
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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