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शुक्रवार, 6 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 1 )

 

विषाद में अर्जुन

शंख बजाते कृष्ण और अर्जुन


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय १
महाभारत युद्ध स्थल पर सैन्य निरीक्षण के बाद अर्जुन के मन में उपजा विषाद
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

कुरूक्षेत्र  के धर्म भूमि में
युद्ध कामना वाले ,
मेरे और पांडू पुत्र जो
दिख रहे मतवाले ,
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय !
अपना मुंह तू खोलो ,
जो जो देख रहे हो
उसको सत्य सत्य तुम बोलो ।

संजय उवाच -
व्यूह युक्त पांडव सेना को
देखा दुर्योधन ,
द्रोणाचार्य के निकट में जाकर ,
अपना मुंह खोला ,
मन ही मन में सोच समझकर ,
सुने हे राजन !
गुरु द्रोण से अति विनम्र हो ,
ये बातें बोला -

सुने धीर आचार्य महान ,
द्रुपद पुत्र दिखे बुद्धिमान ,
पांडू सेना में डाला प्राण ,
शिष्य आपका कहे जहान ।

इस सेना में बहुत सा वीर
अर्जुन भीम सा दिखता धीर ,
महारथी द्रुपद विराट ,
ययुधान लगते सम्राट ।

पुरुजित व काशीराज ,
धृष्टकेतु व शैव्य सिरताज ,
कुंतीभोज और चेकितान ,
दिखे सभी योद्धा महान ।

युधामन्यु ,उतमौजा वीर ,
पुत्र सुभद्रा दिखते धीर ,
द्रोपदी सूत सब हैं बलवान ,
महारथी सब हैं बुद्धिमान ।

ब्राह्मण श्रेष्ठ सुने आचार्य ,
अपने पक्ष में जो हैं आर्य ,
सेनापति और प्रधान ,
उसे सुनाएं सुने श्रीमान ।

अश्वत्थामा और कृपाचार्य ,
कर्ण , विकर्ण और  खुद आचार्य ,
भीष्म पितामह दादा तुल्य ,
भूरिश्रवा सब शिव त्रिशूल ।

और बहुत से वीर महान ,
अस्त्र-शस्त्र में हैं विद्वान ,
युद्ध हेतु सब हैं निडर ,
नहीं मृत्यु का तनिक भी डर।

है मेरी सेना सबल ,
जिसे पितामह देते बल ,
पांडु सेना है निर्बल
भीम चाहे दे कितना बल।

एक निवेदन है श्रीमान ,
सब मोर्चा का वीर जवान ,
रखें पितामह का ही ध्यान ,
इनकी रक्षा जीत सुजान ।

पितामह प्रतापी भीष्म ,
सब में वृद्ध  सब तरह समृद्ध ,
शंख बजा किया चिग्घाड़ ,
जैसे सिंह करे दहाड़ ,
हर्ष हुआ दुर्योधन वीर ,
पांडू सेना हुई अधीर ।

शंख मृदंग और ढोल नगाड़े ,
नरसिंघें बाजे अब बाजा ,
शव्द भयंकर हुआ समर में ,
हे राजन ! यह हाल है ताजा ।

शुभ्र अश्व युक्त उत्तम रथ में ,
अर्जुन कृष्ण ने यह सब देखा ,
अपना अपना शंख बजाकर ,
क्या प्रभाव हुआ यह पेखा ।

पांचजन्य श्री कृष्ण बजाया ,
शंख देवदत्त अर्जुन धीर ,
पांडू महाशंख को लेकर
फूंका भीमसेन गंभीर ।

अनंतविजय राजा युधिष्ठिर ,
सुघोष  फूंक दिया नकुल ,
मणिपुष्पक सहदेव बजाया ,
हुआ दुर्योधन सुन आकुल ।

काशीराज, शिखंडी आदि ,
धुष्टधुम्र , विराट इत्यादि ,
अभिमन्यु , सात्यकि , द्रुपद अब ,
पांच पुत्र द्रोपदी मिलकर सब ,
अपना-अपना शंख बजाए ,
घोर ध्वनि चहु ओर छितराए ।

नभ , पृथ्वी और दसों दिशाएं
शब्द भयंकर से हैं छाए ,
दुर्योधन ,दुशासन आदि ,
सैन्य सभी आदि इत्यादि ,
आकुल व्याकुल दिखता मुझको ,
ताजा हाल सुनाया तुझको ।

कपिध्वज रथ पर अर्जुन ने
भली-भांति सेना को देखा ,
चारों दिशाएं सब संबंधी
धनुष उठा कर फिर वह पेखा ,
दोनों सेनाओं के बीच में
खड़ा करें रथ को श्रीमान ,
विनय भाव से श्री कृष्ण से
बोला अर्जुन वीर महान ।

किन-किन के संग युद्ध है करना
भली-भांति देख लूं न जब तक ,
नम्र निवेदन करता माधव
कृपा कर रखें रथ तब तक ।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का जयघोष मनाने
जो जो नृप लोग हैं आए ,
आवश्यक अवलोकन उनका
माधव से अर्जुन बतलाए।

संजय उवाच -
भीष्म , द्रोण संपूर्ण राजाओं
के समक्ष रथ को है लाकर ,
उत्तम रथ को खड़ा किया है 
दोनों सेनाओं बीच आकर  ,
अर्जुन से बोला भगवान ,
भली भांति परखो सुजान ।

ताऊ, चाचा , भ्रताओं को ,
दादा , परदादाओं को ,
गुरुओं को , मित्रों को परखो ,
पुत्रों को , मामाओं को ,
पौत्रों को ,ससुरों को परखो ,
सुहृदयों का हृदय निरखो ।

इन सज्जनों को निरख के अर्जुन ,
आकुल व्याकुल होकर बोला ,
शोक संतप्त हृदय युक्त अर्जुन
केशव से अपना मुंह खोला -
सुने कृष्ण रूपी भगवान ,
इन स्वजनों को देख श्रीमान ,
मेरे अंदर का वर्तमान ,
तन मन मस्तक प्रधान ।

धधक रहा अग्नि में तात ,
सूख रहा मुख देखें आप ,
शिथिलता छा रही है धीर ,
कांप रहा है पूर्ण शरीर ।

गिर रहा गांडीव हाथ से ,
धधक रही त्वचा में आग ,
नहीं खड़ा रहने की शक्ति ,
मन में भ्रम और विराग ।

उल्टा लक्षण देख रहा हूं ,
नहीं दिखता है कल्याण ,
स्वजन मारकर क्या पाऊंगा,
बोला अर्जुन वीर महान ।

नहीं विजय की चाहत मेरी ,
नहीं सूख और ऐसा राज ,
नहीं भोग और जीवन ऐसा ,
लेकर क्या होगा सिरताज ।

सुख भोग और यह राज ,
जिनके लिए अभीष्ट है धीर ,
धन जीवन कर त्याग युद्ध में
लड़ने को उद्यत सुधीर ।

गुरु , पिता और पुत्र ,पितामह ,
पौत्र , ससुर ,मामा व साला ,
भिन्न-भिन्न संबंधी देखके
उठ रही है मन में ज्वाला ।

इस धरती की है क्या विसात ,
आ जाए अगर त्रिलोक हाथ ,
इनका बध तब भी उचित नहीं ,
मेरा मंतव्य सुने श्रीनाथ ।

धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को ,
मार केशव क्या पाएंगे ,
इन दुष्टों को मार युद्ध में ,
नरहंता कहलाएंगे ।

योग्य नहीं पता हूं खुद को
धृतराष्ट्र के पुत्र वध को ,
अपने कुटुंब मारकर माधव
नहीं चाहता हूं मैं सुख को।

भ्रष्ट चित्त लोभी कुलनाशक ,
मित्र द्रोही हैं ये पापी जन ,
इनसे बचने हेतु माधव ,
क्यों न विचारे हम साधु जन ।

कुल नाश से कुल धर्म ही
नष्ट हो जाता ,
कुल धर्म ना रहा कुल में
पाप फैलाता ।

पाप बढ़ा कुल की त्रिया
दूषित हो जाती है ,
दूषित त्रिया ही वर्णसंकर
को जन्माती ।

वर्णसंकर कुल घात करें
और नरक ले जाए,
इनके कर्म धर्म से
पूर्वज ही गिर जाए ।

वर्णसंकर कारक दोष हैं
ये कहलाते ,
ऐसे पापों के कारण से
पापी आते ,
कुल धर्म और जाति धर्म
और धर्म सनातन नष्ट हो जाते ।

कुल धर्म नष्ट है जिनका ,
नर्क वास होता है उनका ,
बहुत काल तक कष्ट हैं करते ,
यहां अनिश्चित सा बन रहते ।

सब कहते मुझको विद्वान ,
कर रहा हूं पाप महान ,
राज्य सुख के लोभ में रत हूं ,
स्वजन वध हेतु उद्यत हूं ।

शस्त्रधारी धृतराष्ट्र पुत्र प्रभु !
मार डाले यदि मुझको रण में ,
तो भी मंगलमय मैं मानू ,
तनिक भय नहीं मेरे मन में।

संजय उवाच -
ऐसा कहके धनुष बाण छोड़
शोक युक्त मतवाला ,
पार्श्व भाग में रथ के अंदर
जा बैठा बलवाला।
********* प्रथम अध्याय समाप्त **********

नोट - यह पोस्ट मेरी स्वरचित पुस्तक " गीता काव्यानुवाद " से प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह से सभी १८ अध्याय प्रस्तुत किया जाएगा। अवश्य पढ़ें।
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , बेतिया ,बिहार ,भारत 845453
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चाणक्य नीति काव्यानुवाद पुस्तक समीक्षा

  पुस्तक समीक्षा

चाणक्य नीति काव्यानुवाद पुस्तक का संक्षिप्त परिचय

यह पुस्तक " चाणक्य नीति , काव्यानुवाद " महर्षि चाणक्य रचित " कौटिल्य अर्थशास्त्र " से लिया गया      " चाणक्य नीति " पुस्तक का हिंदी में सरल और सटीक काव्यानुवाद है । सरल कविता में होने से इसे याद रखना सहज  होगा ,क्योंकि गद्य याद रखने से पद्य याद रखना सरल होता है । इसके अलावां यह गेय भी है।
इसमें १७ अध्याय है जो ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म , जीवन शैली , आचार-विचार ,  कर्तव्य-अकर्तव्य , सफलता-असफलता , नीति , कुटनीति , राजनीति आदि पर प्रकाश डालता है। जैसे--

जहां निरादर , न जीविका हो ,
न लाभ विद्या ,न भाई बंधु ।
वहां कदापि क्षण नहीं रहना ,
रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।। अध्याय - १ से ।।

जो निश्चित को छोड़ जगत में ,
अनिश्चित की ओर है जाता ।
निश्चित बन जाता  अनिश्चित ,
अनिश्चित कब का है निश्चित ।। अ. १ से ।।

बिगाड़े परोक्ष जो बंदा कर्म को ,
सुनाए प्रत्यक्ष वह मीठे वचन को ।
तजो ऐसी यारी विष अंदर भरा हो ,
घड़ा मुख पर जैसे अमृत धरा हो।। अ. २ से ।।

दुर्जन सर्प में चुनो सर्प को ,
काटे सर्प काल के आने पर ।
चुनो न दुर्जन , दुर्जन नहीं जन ,
दुर्जन डसता हर पग पग पर ।। अ. ३ से ।।

पर अधिकार से धन छिन जाता ,
आलस से नहीं विद्या आती ।
कमी बीज की नाशे खेती ,
बिन नायक सेना मर जाती ।। अ. ५ से ।।

जहां धन है मित्र बहुत हैं ,
बहुत हैं बंधु धनी अगर जन ।
जो है धनी कहाये पंडित,
श्रेष्ठ गिनाए जिसको है धन ।। अ. ८ से ।।

धनहीन नहीं कहाये निर्धन ,
विद्याहीन सदा ही निर्धन ।
धनहीन निर्धन नहीं गिनाता ,
विद्याहीन जनों में निर्जन  ।। अ. १० से ।।

न साधुता आती दुर्जन में ,
शिक्षण दो कितना ही भांति ।
सींचों पय से अथवा घी से ,
नीम न पाये मधु की पांती ।। अ. ११ से ।।

राजा धर्मी प्रजा धर्मी ,
पापी राजा प्रजा हो पापी ।
राजा सम तो प्रजा सम हो ,
राजा गुण अपनाती प्रजा ।
अत: राजा से बनती प्रजा ,
जैसा राजा वैसी प्रजा ।। अ. १३ से ।।

दूर न दूरी करती उसको,
जो बसता है मन के अंदर ।
निकट नहीं भी निकट के वासी ,
गर मन उससे करता अंतर ।। अ. १४ से ।।

मीठे वचन संतुष्टि है जन की ,
बोलो इसे क्या कमी है वचन की ।। अ. १६ से ।।

निर्बल जन साधु बनता है ,
निर्धन बनता है ब्रह्मचारी ।
दुखी देव भक्त बनता है ,
पतिव्रता बने बूढ़ी नारी ।। अ. १७ से ।।

अगर ज्ञानी जनों को मेरा यह तुच्छ प्रयास पसंद आये तो मेरा मेहनत और जीवन सार्थक हो जाय । त्रुटियों के लिए क्षमापार्थी हूं । ज्ञानी और पाठक जनों से सुझाव सादर आमंत्रित है ।
धन्यवाद

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अनुसंधानशाला , रोआरी ,
प. चम्पारण , बिहार , भारत
पिन 845453
मो. 6201400759

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