शुक्रवार, 27 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 17 )

श्रृद्धा के तीन प्रकार और इसका गुण तथा दोष अर्जुन को बताते भगवान श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 17
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रद्धा त्रय यानी श्रद्धा के तीन प्रकार और उसके गुण-दोष तथा लाभ-हानि इत्यादि के बारे में बताया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच -
शास्त्र विधि को त्याग है करके
श्रद्धा से है करता पूजन ,
हाथ जोड़कर बोला अर्जुन
इसे बताएं हे मधुसूदन !
किस कोटि का है यह मानस ?
सात्त्विक , राजस अथवा तामस ।

भगवान उवाच-
तीन तरह की होती श्रद्धा
स्वभाव से जन्मी जानो ,
सात्त्विक , राजस और तामस ,
बोला केशव इसको मानो ।

कुछ की श्रद्धा होती अर्जुन ,
सत्त्व अनुसार ,
जिसकी जैसी श्रद्धा होती
वैसा कर्म से करता प्यार ,
अंतःकरण है जिनका जैसा
जाना जाता है वह वैसा ।

सात्त्विक जन-मन पूजे देवता ,
राजस पूजते राक्षस यक्ष को ,
भूत प्रेत का करता अर्चन ,
मनुज कहाता यह तामस जन ।

शास्त्र विधि हीन श्रद्धा मंडित
घोर तपस्या ,
दंभ , कामना ,राग , अंहं
संयुक्त हो जाता ।

तन में स्थित जीव और
मन स्थित मुझको ,
ए तामस गुण  कृश और
अदृश्य बनाता ।

तीन तरह का होता भोजन ,
जिनके मन को जैसा भाता ,
यज्ञ , तप और दान भी तीन है ,
इसे सुन मैं हूं बतलाता ।

आयु , बुद्धि, बल ,आरोग्य सुख
और प्रीति को देने वाला ,
सरस मुलायम व मनभावन
बहुत काल तक रहने वाला ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
सात्त्विक जन है वह कहलाता ।

बहुत गर्म नमकीन व तीखे ,
दाहक कड़वे खट्टे रूखे ,
दुख चिंता और रोग उपजाए ,
ऐसा भोजन जिनको भाए ,
ऐसा जन राजस कहलाते ,
मध्यम जन में गिने जाते ।

रसहीन , दुर्गंध और बासी ,
कच्चा ,गंदा ,जूठा नाशी ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
तामस जन है वह कहलाता ।

शास्त्र विधि से नियत यज्ञ
मानव कर्तव्य कहता है ,
बिन फल इच्छा शुद्ध मन से
जन द्वारा किया जाता है ,
ऐसा यज्ञ सात्त्विक कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ से मान है पाता ।

दंभ आडंबर युक्त
और फल की दृष्टि से ,
ऐसा करता यज्ञ जगत में
जो जन मानस ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
ध्यान लगाकर ,
शास्त्र सभी ऐसा यज्ञ को
कहता है तामस ।

बिना दक्षिणा , बिना मंत्र व
शास्त्र विधि विहीन ,
बिन भक्ति के , बिन श्रद्धा व
अन्न दान से हीन ,
ऐसा यज्ञ कहाता तामस ,
इसको करते तामस मानस ।

गुरु , देवता , ब्राह्मण  ,यज्ञ
पूजन इत्यादि ,
शौच , सरलता ,ब्रह्मचर्य ,
अहिंसा आदि ,
तप शारीरिक ए कहलाए ,
विज्ञ पुरुष के मन को भाए

सत्य प्रिय , हित कारक व उद्वेग रहित ,
स्वाध्याय अभ्यास पूर्ण जो है बोली ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
वांग्मय तप है यह  हमजोली।
( वांग्मय तप = वचन संबंधित )

मन प्रसन्नता , शांत , सौम्यता ,
मौन ,आत्म संयम,
अंतः करण के भाव की शुद्धि ,
मन के तप में देते सिद्धि ।

तीन प्रकार के उपरोक्त तप ए
सात्त्विक तप कहलाता है ,
फल आकांक्षा रहित श्रद्धा से
विज्ञ पुरुष अपनाता है।

पूजा मान व सत्कार हेतु
दंभ से तप जो होता है ,
क्षणिक अनिश्चित फलदायक है
राजस तप कहलाता है।

आत्म पीड़ा से पर दुख हेतु
जो तप करता तामस जन ,
ऐसा तप तामस कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ के मन नहीं भाता।

देश काल व पात्र समझ कर
अपकारक को दान है वर्जित ,
जो सुपात्र को दान है देता ,
सात्त्विक दान सा है यह चर्चित ।

क्लेश पूर्वक या  फल हेतु
जो जन ऐसा दान है करता ,
ऐसा दान राजस कहलाता ,
मध्यम कोटि में गिना जाता ।

बिन सत्कार व तिरस्कार कर ,
दान जो करता है अपात्र को ,
ऐसा दान तामस कहलाता ,
अज्ञ कहाता देता है जो ।

ओम तत् सत् तीन नाम यह
  परब्रह्म का नाम कहाता ,
ब्राह्मण वेद यज्ञ इत्यादि
इन तीनों से रचा जाता ।

इस कारण से यज्ञ दान तप
मंत्र ओम से शुरू होता ,
परब्रह्म के नाम सनातन
यही सबका गुरु होता है ।

परमात्मा के इष्ट शरीर को
तत् निरूपित करता भाई ,
यज्ञ दान तप की क्रियाएं
इससे बनती है सुखदाई ।

परमात्मा के श्रेष्ठ भाव और
सत्य भाव को ,
सत्  निरूपित है करता
यह अर्जुन जानो ,
उत्तम कर्म में इसे प्रयोग
करें जन मानस ,
जीवन को करते सुखमय
यह सत्य है मानो ।

यज्ञ दान तप की स्थिति भी
सत् कहलाता है ,
परमात्मा के लिए कर्म भी
सत् रूप जाना जाता है ।

हवन दान तप शुभ कर्म सब ,
बिन श्रद्धा के असत् कहाता ,
ना फल देता इस लोक में ,
मरने पर भी व्यर्थ हो जाता ।

*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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