मंगलवार, 10 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय - 4 )


अर्जुन को ज्ञान , कर्म और संन्यास का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

गीता काव्यानुवाद

अध्याय- 4
इस अध्याय में अर्जुन को ज्ञान कर्म संन्यास आदि का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन से बोले भगवान ,
इस योग की महिमा महान ,
सूर्य प्रथम जिनको सुनाया,
स्व सूत मनु को वे बतलाया ,
मनु स्व सूतों को बतलाया ,
पुत्र इक्ष्वाकु को समझाया ।

परंपरा से प्राप्त इस योग को ,
राजऋषियों ने तब  जाना ,
बहुत काल तक लुप्त रहा यह ,
सब विज्ञों ने ऐसा माना ।

प्रिय सखा तू भक्त है मेरा ,
इस हेतु यह योग बताया ,
इस रहस्य को है समझाया ,
मुक्ति मार्ग को है दिखलाया
गोपनीय यह इसको मानो ,
गुप्त रखो मन में यह ठानो।


अर्जुन बोला - हे श्रीमान !
एक प्रश्न और कृपानिधान ,
सूरज का जन्म बहुत पुराना ,
कल्प आदि में कहे जमाना ,
इस युग में है जन्मे आप ,
नहीं समझ में आती बात,
सूर्य से कैसे कहे आप,
कृपा कर बतलाएं नाथ ।

अर्जुन से तब बोले- नाथ ,
इसका उत्तर सुन तू पार्थ ,
तेरा मेरा जन्म अनेक ,
इस युग में उनमें से एक ,
अपने पूर्व जन्म को तू ,
नहीं जानता अर्जुन तू ,
अपने पूर्व जन्म को अर्जुन ,
अच्छी तरह जानता , सुन ।

अजन्मा ,अविनाशी मैं,
सभी जीवों का मैं हूं नाथ ,
योगमाया से हो प्रकट ,
सब जीवों का देता साथ ,
अपनी प्रकृति कर अधीन ,
जन्म लेता , होता विलीन ।

जब जब होती धर्म की हानि ,
बढ़े अधर्म  जभी इस भू पर ,
तब तब जन्म है होता मेरा ,
जिससे विजय करे सु कु  पर।
अथवा
जब-जब धर्म की होती हानि,
और अधर्म है भू पर बढ़ता ,
धर्म उत्थान के हेतु अर्जुन ,
वैसी आत्मा सृजन करता ।

पाप कर्म के नाश के हेतु ,
साधु जन उधार करन को। ,
युग-युग में मैं प्रकट हुआ हूं ,
आश्रय दिया  और धर्म को।

मेरा जन्म कर्म सुन अर्जुन,
दिव्य अलौकिक है तू जान ,
तत्त्व से लेता जान है जो जन ,
पूनर्जन्म नहीं होता मान ,
मेरे लोक को वह पा जाता ,
मुझे प्राप्त कर वह तर जाता।

राग भय और क्रोध से मुक्ति ,
पाकर के पहले भी बहुत जन ,
मेरे शरण और दिव्य प्रेम को ,
प्राप्त किया है उनका तन मन।

मुझको जो भजता है जैसा ,
मैं भी उनको मिलता वैसा ,
सब अपनाते मेरा मार्ग ,
और न भू पर कोई मार्ग ।

मनुज लोक में रहने वाला ,
कर्म फल को चाहने वाला,
देवों को पूजते ऐसा जन ,
शीघ्र फल चाहे उनका मन।

गुण और कर्म के अनुसार,
चारों वर्ण रचा हूं यार ,
मुझे ही जानो सबका कर्त्ता ,
वास्तव में मैं हूं अकर्त्ता ।

नहीं कर्म के फल में स्पृहा है मेरी ,
अत: कर्म नहीं मुझे लिप्त सम्मोहित करता ,
मुझे तत्त्वों से जान समझ लेता है कोई ,
उसे कर्म भी नहीं लिप्त या मोहित करता।
( स्पृहा = चाहत )

इसी ज्ञान के ही अनुसार ,
पूर्वकाल के वासी यार ,
मुक्ति  अभिलाषी जन- मन ,
कर्म किया है उनका तन ।
पूर्वजों के ही अनुसार ,
कर्म करो नहीं कर तकरार ।

क्या है कर्म और अकर्म ?
इसे बताता है सुधर्म ,
इसे समझना बहुत गहन,
भ्रमित हो जाता बुद्धिजन ,
अर्जुन पुनः मैं उसे सुनाता ,
जिसे सुन सब मुक्त हो जाता।

क्या है कर्म ,विकर्म ,अकर्म ,
इन्हें समझना मानव धर्म ,
इसे समझ जो जाता है,
विज्ञ वही कहलाता है ।
( विकर्म = वर्जित कर्म , अकर्म = निष्क्रियता )

कर्म ,अकर्म , विकर्म जो जाने ,
कहे कृष्ण वही सज्जन है ,
इन तीनों को हरदम समझो ,
क्योंकि कर्म की गति गहन है।

कर्म में देखें जो अकर्म ,
और अकर्म में देखे कर्म ,
मनुज़ो में वह विज्ञ कहाता ,
सभी कर्म स्वयं सिद्ध हो जाता।
अथवा
कर्मों में अकर्म जो देखे,
या अकर्म में देखे कर्म ,
सभी कर्म के कर्त्ता ए नर ,
विज्ञ मनुज का यही धर्म ।

लोभ लालच हीन जिसका ह्रदय ,
ज्ञान युक्त कर्म हो जिनका ,
शास्त्र सम्मत सुकर्म हो जिनका ,
पंडित सा मन होता उनका ।

कर्म फलों की सब आसक्ति,
जिन्हें नहीं है विचलित करती ,
सदा तुष्ट रहता उनका मन,
और स्वतंत्र रहता है ए जन ,
सभी कर्म के कर्त्ता यह तन ,
फिर भी अकर्त्ता है यह जन ।

जिनका मन बुद्धि है संयमित ,
स्वामित्व धन संपत्ति को त्यागा ,
तन निर्वाह के लिए कर्म करे ,
उनसे दूर पाप है भागा ।

अपने लाभ से तुष्ट है जो जन ,
मन: द्वन्द ईर्ष्या से मुक्त मन ,
सिद्धि असिद्धि में सम जो ,
कर्म नहीं बांधे उनका तन ,
कर्म करें फिर भी अकर्त्ता,
कर्म योगी संसार है कहता ।

देह अभिमान हीन  जिनका तन ,
भौतिक गुण से मुक्त है जो जन ,
दिव्य ज्ञान  में स्थित है मन ,
ब्रह्म ही बन जाता उनका धन ,
उनका कर्म ब्रह्मलीन  होता ,
ऐसा जन नहीं पापी होता ।

ब्रह्म यज्ञ और हवन ब्रह्म हो,
आहुति व कर्म ब्रह्म हो ,
इस सब का भी फल ब्रह्म है,
पुनीत पावन इनका मर्म है।

कुछ जन यज्ञों के ही द्वारा ,
देवों की है पूजा करते ,
परम ब्रह्म रूपी अग्नि में ,
और कुछ आहुति करते ।

अपने मन पर करके वश,
श्रोत्र आदि पर लाते कस ,
कुछ योगी लाते हैं वश ,
शब्द आदि पर करते कस ।

इंद्रियों का कार्यकलाप ,
प्राणों का भी सभी आलाप ,
आत्म संयम से रोके जो ,
ज्ञान योग कहलाता वो ।

बहुत द्रव्य से करते यज्ञ ,
तप यज्ञ करते कुछ सज्ञ,
योग यज्ञ करते कुछ ध्यानी ,
स्वाध्याय यज्ञ करते हैं ज्ञानी ।

अपान वायु में प्राण वायु को
हवन है करते कुछ विज्ञानी ,
प्राण वायु में अपान वायु को
भस्म हैं करते कुछ ध्यानी ।
( अपान = निम्नगामी )

नियमित आहार के कर्त्ता
प्राणायाम परायण जन ,
प्राण और अपान आयु रोक ,
करे प्राण को आत्म हवन ,
यज्ञों द्वारा यह सब साधक ,
पापों का नाश हैं करते ,
यज्ञ विज्ञ कहलाते हैं ये ,
नहीं किसी भय से ए डरते।

यज्ञ फल अमृत को पीकर ,
परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाते ,
पुनर्जन्म से मुक्ति पाकर ,
पुनः नहीं धारा पर आते ,
बिना यज्ञ के ऐसा जन जब ,
इस जीवन में रह नहीं सकते ,
पुनर्जन्म ले ऐसा जन तब
यज्ञ बिना कैसे रह सकते।

ए सब यज्ञ वेद है कहता ,
सज्ञ विज्ञ है जिसको करता ,
मन से ,कर्म से ,इंद्रियों से ,
जान तत्त्व से तू भी कर ,
कर्म बंधन से मुक्त तू होगा,
नहीं किसी भय से तू डर ।

द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ
होता सर्वोत्तम जानो ,
सभी कर्म का अंत सुनो ,
ज्ञान में है होता मानो।

नमन विनय सेवा जिज्ञासा
से विज्ञ प्रसन्न हो जाते ,
अकड़ छोड़ जो प्रश्न है करता ,
उसका उत्तर हैं बतलाते ,
और विशेष में इन ज्ञानों को ,
इन विज्ञों से समझो जाकर ,
सब संशय मिट जाता  अर्जुन,
ऐसा साधु संगत पाकर।

मोह नाश सब है हो जाता ,
इन ज्ञानों के कारण अर्जुन ,
स्व आत्मा पहचानेगा तू
मुझको तत्त्व से जानेगा तू ,
सब पाओगे अपने मन में,
अपने को तू मेरे तन में।

सभी प्राणियों से भी ज्यादा
अपने को गर पापी मानो ,
ज्ञान रूपी नौका पाकर के
तर जाओगे ऐसा जानो।

प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला से
सभी ईंधन जलते हैं जैसे ,
सभी कर्मफल भय सुन अर्जुन ,
ज्ञान अग्नि में जलते वैसे ।

सुनो वीर अर्जुन महान ,
ना कुछ पावन ज्ञान समान ,
कर्म योग में रमता जो तन ,
स्व आत्मा में पता वह जन ।

श्रद्धालु है ज्ञान को पाते ,
इंद्रियों पर वश तब लाते ,
जितेंद्रिय बन सुख पाते ,
परम शांति में रम जाते ।

अविश्वासी श्रद्धाहीन
अज्ञ नहीं पाते हैं सुख को ,
इस लोक और परलोक में
खोजते रहते हैं वो दुख को ,
संदेह ही उनका आचार ,
उनका कर्म है भ्रष्टाचार।

दिव्य ज्ञान से संशय को
नाश किया है जो विद्वान ,
कर्म फलों पर ध्यान न देकर
परब्रह्म भजता सुजान ,
कर्म न बांधे ऐसा मन ,
कहलाता है विज्ञ सजन ।

अतः हे अर्जुन! तू दो ध्यान ,
ज्ञान से जीतो मन अज्ञान ,
मन संशय को करके नाश ,
कर्म योग पर कर विश्वास ,
युद्ध के लिए हो तैयार ,
न दुविधा में पड़ तू यार।

*********अध्याय- 4 समाप्त *************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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