अर्जुन को ज्ञान और विज्ञान का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 7
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान विज्ञान के विषय में उपदेश दिए हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
भगवान उवाच-
सुनो पार्थ अब ज्ञान विज्ञान ,
हर लेता जो सब अज्ञान ,
योगाभ्यास से मन कर स्थिर
मेरी भावना को निश्चय ,
बिन संशय तू जानो कैसे
उसका देता हूं परिचय ?
आगे बोले फिर भगवान
सुनो ज्ञान और विज्ञान ,
जिसे जान नर हो सज्ञान ,
हर ले ए मन का अज्ञान ,
इसे जान कुछ भी नहीं शेष ,
बच जाता नहीं कुछ अवशेष ।
मेरी चाहत करे अनेक ,
नहीं तत्त्व से जाने एक ,
मनुज हजारों करते यत्न ,
नहीं यथार्थ उनका प्रयत्न ,
मुझे तत्त्व से जाने जो ,
सही रूप पहचाने वो ।
पृथ्वी ,जल ,बुद्धि ,वायु व
मन ,अग्नि , अहं ,आकाश ,
आठ विभक्त प्रकृति मेरी ,
जिस पर विज्ञ करे विश्वास ।
अपरा जड़ ए आठ कहाते ,
इनसे अलग सुन उसे बताते ,
पूर्ण जगत धारण है जिनसे ,
जीव और सुन आठो ए ,
पराशक्ति कहते हैं उसको
और चेतना कहते हैं जिसको ।
( अपरा= लौकिक , भौतिक )
इन दो प्रकृतियों के कारण
संपूर्ण भूत होता उत्पन्न ,
अतः प्रभव व प्रलय में हूं ,
सभी कार्य मुझसे संपन्न ।
( प्रभव= उत्त्पत्ति )
मोती गुंथे धागा में जैसे ,
गुंथे मुझसे सब हैं वैसे ,
इसके सिवा न कारण दूजा ,
समझा ए जो मेरी पूजा।
नभ में शब्द ,जल में रस हूं,
सोम सूर्य में हूं प्रकाश ,
वेदों में ओंकार भी मैं हूं ,
पुरुषों में पुरुषत्व विकास ।
पृथ्वी में पवित्र गंध मैं ,
पृथ्वी का मैं तेज अनल ,
सब भूतों का जीवन जानो ,
तपियों में मैं तप का बल ।
बीज सनातन सब भूतों का ,
तेजस्वियों का तेज अनल ,
बुद्धमानों की बुद्धि में हूं ,
सुन अर्जुन मत हो विकल ।
कामना ,इच्छा ,आशक्ति हीन
बलवानों का बल हूं जानो ,
धर्म शास्त्र के अनुकूल अर्जुन ,
भूतों में मैं काम हूं जानो ।
सतो रजो तमो गुण भाव
मुझसे है उत्पन्न तू जान ,
सब कुछ मेरे है आधीन ,
किंतु मुझे स्वतंत्र तू मान ।
सात्त्विक राजस तामस भाव
से मोहित प्राणी समुदाय ,
इन गुणों से परे न माने ,
मुझ अविनाशी को ना जाने ।
त्रिगुणमयी अद्भुत इस माया
में फंस जाती सबकी काया ,
मेरे शरण में जो आ जाए ,
इस माया से पार हो जाए।
निपट मूर्ख अधम मनुज व
माया ज्ञान हर ली है जिनका ,
असुर प्रकृति में रत जन जो ,
न बसता हूं मन में उनका ।
जिज्ञासु , आर्त और ज्ञानी ,
अर्थार्थी सुन स्वाभिमानी ,
मन में करके खूब विचार
मुझको भजते हैं यह चार ।
इन चारों में मुझको जो भाता ,
ज्ञानी भक्त है उत्तम आता ,
क्योंकि तत्त्व वह माने मेरा ,
रहता नम्र बना वह चेरा ।
और तीन उदार स्वरूप ,
पर ज्ञानी है मेरा रूप ,
मेरे मन और बुद्धि ज्ञान
में ज्ञानी है स्थित जान ।
बहुत जन्म जन्मों के बाद
जिसे ज्ञान करता आबाद ,
ऐसा दुर्लभ जन भी आ
मुझ वासुदेव को भजता पा।
भोग कामना के कारण ,
अन्य देवता पूजते जान ,
अपने अपने मन को मान ,
अपनाते भिन्न विधि-विधान ।
जिसके मन में श्रद्धा आए ,
जैसा देवता पूजना चाहे ,
उसके मन में कर निवास ,
उस देवता प्रति दूं विश्वास।
इस श्रद्धा विश्वास के कारण ,
सब अपना देवता के चारण ,
अपना मन इच्छा फल पाते ,
सब मेरे प्रसाद से आते ।
पर यह फल नहीं टिक पाता ,
अंत समय है ज्योंहि आता ,
लौट उस देवता पास है जाता ,
ऐसा जन देवलोक को पाता ,
मेरे भक्त मुझे जैसे भजते ,
अंत में मुझको प्राप्त हैं करते।
बुद्धिहीन पुरुष अनजान ,
मुझे माने भू जन सामान ,
सच्चिदानंद घन अविनाशी
निराकार परम विश्वासी ,
मेरी प्रकृति को नहीं जाने,
साधारण जन सा ही माने।
योगमाया अच्छादित अपनी
नहीं प्रकट हर जगह है तन ,
अविनाशी अजन्मा मुझको
नहीं देखता मूर्ख जन ।
भूत ,भविष्य और वर्तमान
के भूतों को जानूं जान ,
इनमें न कोई पुरुष सुजान
जो मुझको पहचाने मान ।
इच्छा द्वेष घृणा उत्पन्न ,
सुख-दुख , मोह से संपन्न ,
पूर्ण जगत जीव विकल ,
खोज रहे सब सुंदर फल ।
पूर्व जन्म और इस जन्म में
पुण्य कर्म किए जो तात ,
मोह मुक्त और पाप कर्म से
छूट चुका जिनका संताप ,
मेरी भक्ति ए जन करते,
दृढ निश्चयी भक्त ए भजते ।
जरा मृत्यु से चाहे मुक्ति
ऐसा जन करे मेरी भक्ति ,
ब्रह्म अध्यात्म और पुण्य कर्म जाने,
मेरे ज्ञान और मुझको माने।
अधिदैव ,अधियज्ञ , अधिभूत
सहित जाने मुझे सपूत ,
अंत समय जब उसका आए ,
मेरे लोक को स्वयं आ जाए।
( अधिदैव,अधियज्ञ, अधिभूत अगले अध्याय 8 में बृहद वर्णित है। )
***************समाप्त********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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