सोमवार, 2 मई 2022

संस्कृत वाङ्मय ( आर्ष ग्रन्थ ) में विज्ञान

    

संस्कृत वाङ्मय का मुख्य योगदान कर्त्ता श्री वेद व्यास



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           संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान

    लेखक - इंजीनियर पशुपति नाथ प्रसाद

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संस्कृत एक भाषा है । भाषा और लिपि में अन्तर है । मैंने अपनी  पुस्तक  " विचार " में भाषा और लिपि का अन्तर  बताया है । प्रस्तुत है उसका सारांश - " भाषा ध्वनियों की समय के  साथ गुँथी माला है , वहीं लिपि ध्वनियों यानी भाषा का प्रतिरूप " । कुछ मतानुसार संस्कृत भाषा की लिपि ब्राह्मी थी , बाद में देवनागरी में लिखी गयी ।

    हिन्दी शब्दकोशानुसार 'वाङ्मय' का शब्दार्थ है - " वचन संबंधी " , " पढ़ने लिखने के विषय का " । इस हिसाब से " संस्कृत वाङ्मय " का अर्थ होगा संस्कृत में आर्ष वचन संबंधी ज्ञान यानी ऋषियों द्वारा दिया गया ज्ञान ।

    अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत का अपना मूल ज्ञान क्या है ? कहाँ है ?  क्या वह आधुनिक विज्ञान के समतुल्य है , अथवा आधुनिक विज्ञान का जनक है वगैरह ।

    आयें , इस विषय पर एक एक कर विचारा जाय । किसी  भी भाषा का अपना मूल ज्ञान , विद्या की जड़ पुस्तकें हैं । अत: संस्कृत  वाङ्मय  की जड़ संस्कृत का मूल ग्रंथ है । और ये हैं - सर्व विदित विश्व प्राचीन चार वेद , छ: शास्त्र यानी दर्शन , अठारह पुराण , उपनिषद , स्मृति एवं संहिता इत्यादि ।

    आधुनिक वैज्ञानिक जगत इन पुस्तकों में संकलित ज्ञान को अध्यात्म तो मानता है , परन्तु  आधुनिक विज्ञान या विज्ञान का जनक मानने में संकोच करता है । और आधुनिक विज्ञान का मूल यूरोप या अमेरिका को मानता है । निसंदेह यूरोप या अमेरिका ने आधुनिक विज्ञान को समृद्ध किया , बढ़ाया , परंतु जनक है इससे मैं सहमत नहीं । 

    प्रसिद्ध भौतिकविद् अलबर्ट आइंस्टाइन लिखते हैं -- " वैज्ञानिक विचार पूर्वज्ञान ( Prescientific thought ) का विकाश है  ( आइडीयाज एन्ड ओपिनयन्स , पृष्ठ 276 )  ।" और पूर्वज्ञान और कुछ नहीं , अध्यात्म ही है , तथा संस्कृत वाङ्मय निसंदेह अध्यात्म का खजाना है ।   


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इससे प्रस्तुत है कुछ उद्धरण  ( extract ) - वैशेषिक दर्शन का रचयिता महर्षि कणाद से सभी परचित हैं । इन्होंने सर्व प्रथम ( आवोगाद्रो से बहुत पहले ) अणु की परिभाषा दी है - " अतो विपरीतमाणु ।। वै. अ. 7 आ. 1 सू. 10 ।। ( अर्थात् महत् यानी बड़ा के  विपरीत अणु कहना चाहिए )

अणुमहत् इति तस्मिन् विशेषभावात् विशेष अभावात् च ।। वै. अ. 7 आ.1 सू. 11 ।। ( अर्थात् अणु और महत् वस्तु में विशेष होने से और विशेष न होने से ही यह होता है ।)
इन्होंने गुरुत्व ( Gravity ) की परिभाषा न्यूटन साहब से बहुत पहले दी थी । प्रस्तुत है -
    संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् ।। वैै. अ. 5 आ. 1 सू. 7 ।। ( अर्थात् संयोग का अभाव हो जाने पर गुरुत्व के कारण गिरता है । )
इसके सिवाय वैशेषिक दर्शन विज्ञान का भंडार है ।


     शून्य और पाई का अविष्कारक तथा गुप्तकाल के महान् गणितज्ञ एवं खगोलविद् आर्यभट जगत प्रसिद्ध हैं । ये गणितज्ञ एवं खगोलविद् ही नहीं भौतिकविद् भी है । आपेक्षिक वेग ( Relative velocity ) पर प्रस्तुत है इनका विचार --
    अनुलोम गतिनस्थि: पश्यत्यचलं विलोमयं यद्वत् ।
    अचलानि मानि तद्वत् सम पश्चिमगानि लंकायाम् ।। आर्यभटीय गोलपाद - 6 ।। 

 अर्थात् जैसे ऊँचे से नीचे गतिशील को आस पास उलटा चलता दिखाई पड़ता है , उसी प्रकार पश्चिम की ओर गतिशील को लंका यानी दक्षिण में दूर स्थित वस्तु अचल ( स्थिर ) जान पड़ता है । 
    पृथ्वी गोल है तथा परिक्रमा करती है इस पर इनका कथन प्रस्तुत है -
    वृत्तभपंजरे मध्ये कक्षा परिवेष्टित: खमध्य गत: ।
    मृज्जल शिखि वायुमयो भू गोल: सर्वेता वृत: ।। उपरोक्त पुस्तक से ।।
अर्थात् वृत्ताकार ढाँचा मध्य में कक्षा से घिरा आकाश बीच गतिशील  मृदा , जल , अग्नि तथा हवा युक्त पृथ्वी चारो ओर से गोल है । 

            

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ये उपरोक्त उद्धरण गैलीलियो गैलिली , न्यूटन तथा दूसरे पश्चात् विद्वानों से पहले का है ।

    प्राय: आम धारणानुसार भौतिक शास्त्र के ज्ञान को विज्ञान माना जाता है तथा इनका उपयोग को प्रौद्योगिकी , परन्तु विज्ञान की वृहत् परिभाषा है - " संसार के क्रमबद्ध तथा सिलसलेवार ज्ञान को विज्ञान कहते हैं ।"

इसलिए समाज शास्त्र , राजनीति शास्त्र , गणित , ज्यामिति , खगोल और प्राणी शास्त्र वगैरह भी आज के युग में विज्ञान की श्रेणी पा गये हैं । आजकल सभी प्रश्नो का जवाब विज्ञान है । अब संस्कृत वाङ्मय  में इन विज्ञानों को अवलोकन करें ।

    यजुर वेद और गणित - " एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे ......।। यजु. वे. अ. 18 मं. 24 ।। ( अर्थात् एक में दो जोड़ो तीन , तीन में दो जोड़ो पाँच , पाँच में दो जोड़ो सात वगैरह । ) प्रस्तुत उद्धरण  श्रीमद् दयानंद सरस्वती रचित " सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋगवेदादि भाष्य भूमिका " से है ।

    वर्ण और शब्द तथा संस्कृत वाङ्मय  --- अब निम्न माहेश्वर चौदह सूत्रो को परखा जाय ।

1. अइउण्  2. ऋलृक्  3. एओङ्  4. ऐऔच्      5. हयवरट्  6. लण्  7. ञमङणनम्  8. झभञ्  9.घढधष्  10. जबगडदश्  11. खफछठथचटतव्  12. कपय्  13.शषसर्  14.     हल्  ।। अष्टाध्यायी , पाणिनि व्याकरण ।।

     उपरोक्त चौदह सूत्र और कुछ नहीं , बल्कि देवनागरी वर्णमालाएँ का जनक हैं । यानी --    अ आ इ ई उ ऊ , ए ऐ ओ औ अं अ: , क ख ग घ ङ , च छ ज झ ञ , ट ठ ड ढ ण , त थ द ध न , प फ ब भ म , य र ल व श ष स ह  , वगैरह ।

दूसरे शब्दों में इन उपरोक्त वर्णों से बने हैं ये चौदह शब्द ( सूत्र ) ।

महर्षि गौतम रचित न्याय दर्शन शब्द की परिभाषा ऐसे दिया है --

  आप्तोपदेश: शब्द: ।। न्या. दर्श. अ. 1 आ. 1 सू . 7 ।। ( अर्थात् विद्वानों का उपदेश कालांतर में शब्द बना । )

 

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अब उद्धृत है प्रथम मनु का उपदेश जो ब्रह्मऋषि भृगु द्वारा प्रसिद्ध संस्कृत  वाङ्मय मनुस्मृति में संकलित है -


ऋतु कालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरत: सदा ।
पूर्ववर्ज व्रजेच्चैना तद्व्रतो रतिकाम्यया ।।
ऋतु स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रय: षोडश स्मृता: |
चतुर्भिरितरै: सार्धमहोभि: सद्विगर्हितै:।।
तासामाद्याश्चतस्त्रस्तु निन्दितैकादशी च याम् ।
त्रयोदशीं च शेषास्तु प्रशस्या दश रात्रय: ।।
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोअ्युग्मासु रात्रिषु ।
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम् पुमान्पुंसोअ्धिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रिया:।
समोअ्पुमान्पुंस्त्रियौ वाक्षीणेअ्ल्पे च विपर्यय:।।
निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्।
ब्रह्मचार्येन भवति यत्रतत्राश्रमे वसन् ।।
   ( मनुस्मृति , अ. 3 , श्लोक  45, 46 , 47 , 48 , 49 , 50 कमश: )


इनका अर्थ है - रजो दर्शन ( मासिक धर्म ) से सोलह रात्रि तक स्त्रियों का ऋतुकाल होता है । ऋतुकाल में अपनी पत्नि के पास जायें , उससे संतुष्ट रहें । पूर्व चार दिन के साथ साथ ग्यारहवीं  तथा तेरहवीं रात्रि समागमार्थ यानी संम्भोग के लिए निन्दित है । शेष सब प्रशस्त एवं वैध मानी गई है ।

 
    समरात्रि यानी 6ठी , 8वी , 10वी ......आदि में समागम से पुत्र तथा विषम रात्रि यानी 5वी , 7वी , 9वी ........आदि में सहवास से कन्या उत्पन्न होती है । अत: पुत्र की इच्छावाले को युग्म यानी सम रात्रि तथा पुत्री हेतु विषम रात्रि में सहवास करना चाहिए ।


   वीर्य की अधिकता हो तो विषम रात्रि में भी पुत्र एवं रज की अधिकता हो तो सम रात्रि में भी कन्या हो सकती है । वीर्य और रज की समानता होने से नपुंसक या यमल यानी जोड़ा संतान तथा दूषित या अल्प वीर्य से गर्भ नहीं रहता ।


   उपरोक्त निंदित यानी वर्जित 6 रात्रियों के अतिरिक्त शेष 10 रात्रियों में केवल 2 रात्रियों में समागम करता है वह किसी भी आश्रम यानी ब्रह्मचर्य , गार्हस्थ्य , वानप्रस्थ तथा संन्यास में हो ब्रह्मचारी है ।


   इन बातों की पुष्टि तथा सत्यता ' सायंस रिपोर्टर ' नवम्बर , 1991 , लेख - ' इनफर्टिलिटि ( infertility ) पृष्ठ 47 के ग्राफ  से भी होती है। ऐसा लगता इन श्लोकों से ही ग्राफ बना है वगैरह ।
इस पुस्तक से कुछ और उदाहरण -


जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रज: ।
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणु प्रचक्षते ।।
त्रसरेणवोष्टो विज्ञेया लिक्षेका परिमाणत: ।
ता राजसर्षपस्तिस्त्रस्ते त्रयो गौरसर्षप: ।।
सर्षपा: षट् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् ।
पञ्चकृष्णलको माषक्ते सुवर्णस्तु षोडष: ।।
( मनुस्मृति अ. 8 , श्लो. 132 , 133 , 134 )


इनका अर्थ है - झरोखे से अंदर आनेवाला सूर्य रश्मियों में जो धूलिकण दिखता है , उसमें सबसे छोटा धूलिकण यानी प्रथम को त्रसरेणु कहा जाता है। ऐसे आठ त्रसरेणुओं का एक लिक्षा , तीन लिक्षाओं का एक राजसर्षप , तीन राजसर्षपों का एक गौरसर्षप तथा छ: सर्षपों  का एक रत्ती , पाँच रत्तियों का एक माशा तथा सोलह माशे का एक सुवर्ण यानी तोला होता है वगैरह ।
उपरोक्त प्रथम वैज्ञानिक अर्थशास्त्र है जो माप - तौल की व्याख्या करता है । यह ग्रंथ न्यायशास्त्र, व्यापार , एवं समाजशास्त्र वगैरह से भरा हुआ है ।


   विश्व का प्राचीन ग्रंथ वेद वैज्ञानिक दृष्टिकोण का खाजाना है ।
अब प्रस्तुत है गीता से समाज पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण ।
ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै : ।।
( गीता अ. 18 , श्लो. 41 )


अर्थ है - हे परंतप ! ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । यानी व्यक्ति का कर्म गुण द्वारा है , कुल द्वारा नहीं । अर्थात जाति गुण द्वारा बनी , कुल से  नहीं।


    प्रसिद्ध पुस्तकें  ' लीलावती ' गणित में  , '  सूर्य सिद्धांत ' खगोल विज्ञान में तथा ' कौटिल्य अर्थशास्त्र ' अर्थशास्त्र में संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान के अनूठे नमूने हैं।


   अब अंत में निम्न साधु वाक्यों से अपनी कलम को विराम देता हूँ ।
    पुराणमित्व न साधु सर्वं ।
    न साधु सर्वं नवमितवद्यम् ।।
    संत: परीक्षानत्यरद  भजंते ।
    मूढ़: परप्रत्ययेनहि बुद्धि: ।।


इनका अर्थ है - सभी पुरानी बातें सत्य नहीं तथा सभी नवीन बातें असत्य ही नहीं । विज्ञ एवं विद्वान परीक्षा करके ही उसे अपनाते एवं मूर्ख दूसरे के कहने से ।

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इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद 

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