ज्ञान और कर्म में श्रेष्ठ कौन अर्जुन का प्रश्र और श्रीकृष्ण का उत्तर |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 3
इस अध्याय में अर्जुन के प्रश्न ज्ञान और कर्म में कौन श्रेष्ठ है का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया है। इस अध्याय को कर्म योग भी कहते हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अर्जुन उवाच-
कर्म से बुद्धि ( ज्ञान ) गर है श्रेष्ठ ,
फिर क्यों कर्म करे भगवान ,
फिर क्यों दारूण कर्म क्षेत्र में ,
मुझे ढकेलते हैं श्रीमान ।
बहुत अर्थयुक्त इन बातों से ,
भ्रम युक्त है मेरी बुद्धि ,
अतः आप स्पष्ट बताएं ,
जिससे पाऊं मैं सुबुद्धि।
भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन सज्ञान ,
आत्मज्ञान का दो प्रकार ,
पहले ही कह चुका हूं यार ,
ज्ञान से पाते सांख्य योगी ,
कर्म से पाते कर्मयोगी।
कर्म से विमुख हो कोई,
नहीं कर्म से मुक्ति पाया ,
ना सन्यास को अपनाकर
कोई सिद्ध पुरुष कहलाया।
न जन कोई किसी काल में ,
बिना कर्म क्षणभर रह सकता ,
प्रकृति गुण से सब मंडित ,
अतः विवश हो कर्म है करता ।
इंद्रियों को बलपूर्वक रोके ,
मन से विषयों को ना हटाए ,
मिथ्याचारी दम्भी वह है ,
ऐसा जन मुझको नहीं भाए ।
मन से इंद्रियों पर वश कर ,
कर्म करे मुझको वह भाए ,
नहीं लोभ लालच है जिसको,
कर्म नहीं उसको भरमाए ।
शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर ,
क्योंकि कर्म है श्रेष्ठ कहाता ,
तन निर्वाह के हेतु अर्जुन ,
कर्म सभी से उत्तम आता ।
यज्ञ कर्म ही मानव मुक्ति ,
दूजा कर्म कर्म का बंधन ,
फल की चिंता कर्म का बंधन,
चिंता रहित कर्म अबंधन ,
कहा कृष्ण सुनो हे अर्जुन!
फल-भय रहित कर्म अबंधन ।
कल्प आदि में यज्ञ सहित
प्रजा रचे प्रजापति ,
प्रजा से बोले श्रीमान ,
यज्ञ करो तुम सब विद्वान ,
सब बुद्धि , भोग व धन ,
देगा यज्ञ सुनो सब जन ।
यज्ञ उन्नत करता सब देव ,
देव उन्नत करता सब जन ,
एक दूजे को करो उन्नत ,
प्रेम पूर्वक रहो सब जन ।
देवता जब होंगे उन्नत ,
इच्छित भोग करें प्रदान ,
इन भोगों का कुछ अंश ,
नहीं पुनः जो करता दान ,
बिना दान स्वयं भोग जाता,
चोर नीच जन वह कहलाता ।
यज्ञ से बचा हुआ जो अन्न
को खाए है उत्तम जन ,
मन: दोष पापों को हरता ,
मन में मधुर शांति भरता ,
सिर्फ पेट पाले जो जन ,
सब कहते उसे अधम ।
प्राणी की उत्पत्ति अन्न से ,
अन्न पे आश्रित है सब प्राणी ,
वृष्टि करती अन्न उत्पादन ,
यज्ञ पे आश्रित है सब दानी ,
नियत कर्मों से यज्ञ है होता ,
इसे सुनो तू अर्जुन ज्ञानी।
वेदों से उत्पति कर्म की ,
ऐसा कहते हैं विज्ञानी ,
परमब्रह्म अक्षर से अर्जुन ,
जन्मा वेद सुनो तू ध्यानी ,
परम ब्रह्म शाश्र्वत ईश्वर को
यज्ञों में स्थित तू जानो ,
अतः कर्म कर यही धर्म है ,
धर्म न दूजा है यह मानो ।
परंपरागत प्रचलित कर्मों को
नहीं करता जो ,
कर्म हीन कर्तव्य च्युत वह
है नहीं सज्जन सो,
इंद्रिय भोग हेतु कर्म को करता ,
स्वार्थ में जीता ,स्वार्थ में मरता ,
अतः तू अर्जुन सुन यह बात ,
जिसे बताता हूं मैं तात!
आत्मा में ही करे रमन ,
आत्मा में ही तृप्त जो जन ,
आत्मा से संतुष्ट है जो
सभी कर्म से मुक्त है वो।
ऐसा जन तू सुन सुजान ,
नहीं कर्म पर देता ध्यान ,
नहीं स्वार्थ से है संबंध ,
आत्मायोग में रहता बद्ध ,
ऐसा जन निर्लिप्त कहाता ,
सभी ग्रंथ ऐसा बतलाता।
बिन आसक्ति होकर तू ,
कर्म करो यह नीति सु ,
अनासक्त जो करता कर्म ,
प्राप्त है करता परमब्रह्म ।
जनक आदि भी ज्ञानी जन ,
बिना आसक्ति किए थे कर्म ,
परम सिद्ध कहलाते आज ,
पुरुषों में बने सिरताज ,
जनहित में तू करो कर्म ,
और न दूजा तेरा धर्म ।
श्रेष्ठ पुरुष जो जो हैं करते ,
अन्य पुरुष उसको अपनाते ,
जो आदर्श वह प्रस्तुत करते ,
वो आदर्श नियम बन जाते ।
ना कुछ करना मुझे शेष है ,
न अप्राप्त कुछ अर्जुन मुझको ,
फिर भी कर्म को करता हूं मैं ,
ताकि करें सभी जन उसको ।
गर मैं कर्म करूं नहीं अर्जुन ,
सब अकर्मक बन जाएंगे ,
सभी मार्ग अपनाते मेरा ,
बिन कर्मों के मर जाएंगे ।
यह संसार हमें दोषी मानेगा ,
नष्ट भ्रष्ट समाज हमें भोगी जानेगा ,
वर्णसंकरों से समाज संपूर्ण हो जाए ,
क्योंकि मेरा कर्म सभी जन मन को भाए ।
आसक्त अज्ञानी जन
चाहे कर्म हैं करते जैसा ,
निर्लिप्त ज्ञानी जन
छेड़ें नहीं कर्म को वैसा ,
क्योंकि अज्ञानी जड़ होते ,
अनुचित इनका घर होते ।
हठी को हठ से नहीं तोड़ो ,
नहीं मूर्खता पर ही छोड़ो ,
उचित कर्म और विनम्र हो ,
ज्ञानी जन उनका मन मोड़ो।
प्रकृति के गुणों द्वारा ही ,
सभी कर्म को जन है करता ,
जिसका मन अहंकार युक्त है ,
अपने ही को कहता कर्त्ता ।
गुण विभाग और कर्म विभाग
के तत्त्व जो जाने ,
सभी धर्म और सभी ग्रंथ
इन्हें ज्ञानी माने ,
इन्हें आसक्ति ना भरमाती ,
ना कोई माया नाच नाचाती ।
प्रकृति गुणों कर्मों में
लिप्त हैं रहते भू के प्राणी ,
अतः यह कर्तव्य है बनता
न विचलित करें इनको ज्ञानी ।
अपने सभी कर्मों को मुझ पर
छोड़ पार्थ तू युद्ध करो ,
आशाहीन संतापहीन निर्मम
मन करके तू वध करो ,
मुझ पर तू विश्वास करो ,
दुर्योधनों को नाश करो ।
श्रद्धा युक्त अदोष दृष्टि से
इस मत को जो माने मन ,
सभी कर्मों से मुक्ति पाकर
पाप मुक्त तर जाते जन ।
मुझ में दोषारोपण करते
अज्ञानी मन ,
इन मतों के साथ न चलते ,
ए मूर्ख जन ,
भ्रम युक्त मोहित मन इनका,
कलह क्लेश कर्म है जिनका ,
नष्ट भ्रष्ट ऐसा जन होते ,
अंत में अपना कर्म पर रोते ।
सभी प्राणी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करते कर्म ,
ज्ञानी भी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करें सुकर्म
हठी इसमें विघ्न ले आते ,
अपने को नेता बतलाते ।
सभी इंद्रियों के विषयों में
राग द्वेष स्थित है जानो ,
ज्ञानी इनके वश नहीं होते ,
ऐसा मेरा मत है मानो ,
राग द्वेष से न कल्याण ,
ए हैं विघ्न व शत्रु महान ।
अपना धर्म गर गुण रहित हो ,
दूसरे के सुधर्म से उत्तम ,
अपने धर्म में मर जाना भी,
पर धर्म से है सर्वोत्तम ,
अपना धर्म कल्याण का कर्त्ता ,
पर का धर्म भय है भरता ।
अर्जुन उवाच-
कहा पार्थ - सुने भगवान ,
जन क्यों करता पाप महान ?
उससे कौन कराता पाप ?
मुझे बताएं प्रभु आप ।
श्रीकृष्ण उवाच -
काम कामना जनक क्रोध का ,
रजोगुण इन सबका दाता ,
नहीं तृप्ति होती है इनसे ,
महानाश नर इनसे पाता ।
धूम्र से अग्नि , मैल से दर्पण ,
झिल्ली गर्भ को ढकती जैसे ,
ज्ञान को काम क्रोध है ढककर ,
नर में बैठे रहते वैसे ।
काम रूपी भीषण अग्नि में ,
ज्ञानरूपी आत्मा जल जाती ,
मन अशांत नर का हो जाता,
अच्छी बातें समझ नहीं आती।
मन इन्द्रियां बुद्धि अर्जुन ,
इनके बास का स्थल जानो ,
इन उपरोक्तों के कारण से
ज्ञान आच्छादित ऐसा मानो,
जीव आत्मा को मोहित करता ,
जिससे मानव भ्रम में पड़ता ।
पहले इंद्रियां तू वश कर ,
जिससे नाश नहीं हो ज्ञान ,
पापी काम को जीतो मन से,
जिससे विजय करे विज्ञान ।
जड़ से काम इंद्रियां श्रेष्ठ है ,
मन इनसे होता है जेष्ठ ,
मन से बुद्धि होती उत्तम ,
पर आत्मा सब में सर्वोत्तम ।
सूक्ष्म आत्मा को बुद्धि से ,
जानो पार्थ , बनो विद्वान ,
मन को वश करो बुद्धि से ,
दूर करो अपना अज्ञान ,
नहीं काम से हारो अर्जुन ,
पहले काम को मारो अर्जुन ।
**********अध्याय-3 समाप्त ****************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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