शनिवार, 28 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 18 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास के विषय के ज्ञान का उपदेश देते हुए

आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब प्रभो हम युद्ध करूंगा।

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 18
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास विषय के ज्ञान का उपदेश दिया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - हे भगवान !
मुझ पर कृपा करें कृपा निधान ,
त्याग और संन्यास का ज्ञान ,
इनका तत्त्व कहें श्रीमान ,
पृथक पृथक इनको बतलाएं ,
इनका तत्त्व प्रभो समझाएं  ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो पार्थ हे वीर महान !
सभी कर्मफल त्याग जो करते ,
त्यागी उनको विज्ञ हैं कहते ,
काम्य कर्म का त्याग जो करते ,
उनको संन्यासी सब कहते ।
( काम्य कर्म = भौतिक इच्छाओं पर आधारित कर्म )

कुछ ऐसा भी हैं विद्वान ,
कर्म ही दोषी कहे सुजान ,
इसका त्याग कहे उत्तम ,
और न दूजा सर्वोत्तम ,
कुछ ऐसा भी है विद्वान ,
यज्ञ दान तप पर दे ध्यान ।

अब मेरा मत सुन तू पार्थ ,
त्याग किसे कहते हैं आर्य ?
गुण त्रय से हूं समझाता ,
सत रज तम से हूं बतलाता ।
( गुण त्रय = सत रज तम )

यज्ञ दान तप कर्म उन्नत ,
नहीं त्याग योग्य मेरा मत ,
क्योंकि ए मानव सुकर्म ,
सज्ञ विज्ञ का यही धर्म ।

यज्ञ दान तप आदि कर्म को ,
और सभी कर्तव्य कर्म को ,
बिन फल चिंता आसक्ति हीन ,
शांत चित्त और भय विहीन ,
करना ही धर्म सम्मत है ,
और हमारा भी यह मत है।

नियत कर्म का त्याग न अच्छा ,
मोह वश हो त्यागे जो ,
तामस त्याग है यह कहलाता ,
तामस ही करता है सो ।

तन क्लेश और कष्ट के कारण ,
नियत कर्म को त्यागे जो ,
राजस गुण यह त्याग कहाए ,
नहीं त्याग का फल वह पाए ।

शास्त्र विहित कर्म है उचित ,
आसक्ति हीन कर्म है उचित ,
फल भय त्याग कर्म है उचित ,
इसके सिवा सब कर्म अनुचित,
सत गुण त्याग है यह कहलाए ,
सात्त्विक जन के मन को भाए ।

न घृणा हो अशुभ कर्म से ,
अकुशल से वैर न जिनको ,
शुभ और कुशल कर्मों से
नहीं मोह आसक्ति जिनको ,
सात्त्विक त्यागी यह कहलाता ,
सत कर्म सब शास्त्र बताता ।

देहधारी किसी प्राणी हेतु
सभी कर्म का त्याग असंभव,
पर जो कर्म फल को त्यागे ,
सच्चा त्यागी मुझको लागे ।

तीन प्रकार का कार्यों का फल ,
अच्छा बुरा और मिश्रित फल ,
मृत्यु बाद प्राप्त है करता ,
जो नहीं त्यागी कर्मक कर्त्ता  ,
पर संन्यासी कर्मक कर्त्ता
को ए फल सब नहीं सताता ।

सब कर्मों की सिद्धि हेतु
कारण पांच है अर्जुन जानो ,
सांख्य शास्त्र में सब है वर्णित ,
जिसे सुनाता इसको मानो ।

अधिष्ठान , कर्त्ता  और कारण ,
भिन्न-भिन्न चेष्टाएं जानो ,
परमात्मा पांचवा है आता ,
भली-भांति इसको तू मानो ।
( अधिष्ठान = आश्रय , स्थान । कारण = इंद्रियां, साधन )

मन वाणी और शरीर से ,
शास्त्र सम्मत अथवा विपरीत ,
जो कुछ कर्म है करता भू जन
ए पांचों ही बनते साधन ।

इन उपरोक्त पांच कारणों को ,
नहीं माने मनुज कुबुद्धि ,
अपने को कहता कर्त्ता है ,
समझ न पाता बात सुबुद्धि ।

मैं हूं कर्त्ता अहं नहीं  यह
जिसके मन में  होता पार्थ ,
भौतिक कर्म से लिप्त नहीं जो ,
नहीं आकर्षित करता स्वार्थ ,
सब लोगों को मार के अर्जुन ,
वास्तव में नहीं मरता वह ,
और नहीं पापी कहलाता ,
महावीर पद धरता वह ।

ज्ञाता , ज्ञान , ज्ञेय ए तीनों
कर्म प्रेरणा है कहलता ,
कर्त्ता ,क्रिया , कारण तीनों ,
कर्म संग्रह में है आता ।

सत रज तम प्रकृति के गुण
इन गुणों के ही अनुसार ,
ज्ञान ,कर्म, कर्त्ता भी तीन है ,
जिनको कहता हूं सुन यार ।

अनंत रूप  विभक्त जीवो में
एक ही आत्मा माने जो जन ,
सम भाव से स्थित देखे ,
नहीं है अंतर पता जो मन ,
ऐसा ज्ञान सात्त्विक कहलाता,
विज्ञ सभी ऐसा बतलाता ।

भिन्न-भिन्न  जीवों में अर्जुन ,
नाना भाव व आत्मा देखे ,
ऐसा ज्ञान राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र ऐसा बतलाता ।

सत्य रहित ,तुच्छ व वर्जित
कार्य से जो जन करता प्यार ,
अपना समय वह व्यर्थ में खोता ,
तामस ज्ञान कहाता यार ।

राग द्वेष आसक्ति हीन
कर्म फल इच्छा विहीन ,
नियमित शास्त्र विधि अनुसार ,
कार्य कहाता सत्त्विक यार ।

इच्छा पूर्ति हेतु कार्य
जिसमें मिथ्या हो अहंकार ,
कठिन परिश्रम से हो पूर्ण ,
राजस कार्य कहाता यार ।

पर दुखदाई शास्त्र विहीन 
हिंसा हानि व अज्ञान ,
शक्ति से बाहर सब कार्य ,
तमस कार्य कहाता आर्य ।

अहं हीन संकल्प से पूर्ण  ,
धैर्य युक्त उत्साहित कार्य ,
हर्ष शोक रहित सुकर्म ,
बिन संगत जो करता आर्य ,
सात्त्विक कर्त्ता यह कहलाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ।

पर दुखदाई लोभी आसक्त
कर्म फल की इच्छा वाला ,
अशुद्ध आचार हो जिसका
हर्ष शोक में हो मतवाला ,
कर्त्ता यह राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र यह बात बताता।

धूर्त घमंडी शिक्षा हीन ,
दीर्घसूत्री आलसी आदि ,
पर जीविका के नर नाशक ,
शोक से विह्वल इत्यादि,
सदा खिन्नता अयुक्ति भाता ,
कर्त्ता यह तामस कहलाता।

अर्जुन से बोला भगवान ,
ध्यान देकर सुन अब यह ज्ञान ,
बुद्धि , धृति का तीन भेद ,
जिसे बताता वेद पुराण ।
( धृति = धैर्य )

प्रवृत्ति  निवृत्ति आदि
कार्य- अकार्य , भय-अभय इत्यादि ,
बंधन-मोक्ष में भेद बताती ,
सात्त्विक बुद्धि है कहलाती ।
( प्रवृत्ति = कर्म , निवृत्ति = अकर्म )

ना कर्तव्य- अकर्तव्य ही जाने ,
ना धर्म-अधर्म पहचाने ,
यह बुद्धि राजस कहलाती ,
राजन जन को खूब सुहाती ।

धर्म है कहती जो अधर्म को ,
सभी चीज विपरीत बताती ,
अर्थ को अनर्थ बताती ,
अनर्थ को सार्थक सिखलाती ,
ऐसी बुद्धि त्याज कहाती ,
तामस बुद्धि यह कहलाती ।

अचल नित्य अभ्यास के द्वारा
अटूट अनुशासित विश्वास ,
मन प्राण सभी कार्यकलाप
पर वश करना जो सिखलाए,
सुनो पार्थ तू ध्यान लगाकर,
सात्त्विक धृति  है कहलाए ।

फल की इच्छा हेतु व्याकुल ,
धर्म अर्थ और काम में आकुल ,
ए आसक्ति जिसे लुभाए ,
राजस धृति  है कहलाए ।

निद्रा भय चिंता व दुख में ,
उदंडता उन्मत्तता आदि ,
दुष्टता नीचता कुकर्म में
बधा हुआ घूमे बर्बादी ,
ऐसी धारणा शक्ति पार्थ ,
तामसी धृति कहते आर्य ।

पुनः बोले केशव श्रीमान ,
सुनो पार्थ तीन सुख महान ,
अभ्यास से भोगता प्राणी ,
जीव का जीवन , मन की वाणी,
दुखों का अंत कहते ज्ञानी ,
जिसे बताया सब विज्ञानी ।

शुरू में विष  अंत में अमृत
आत्मा बुद्धि से जन्मा जो,
आत्म तुष्टि का बोध कराता ,
सात्त्विक सुख है यह कहलाता ।

विषय इंद्रियों के सहयोग से
प्राप्त सुख राजस कहलाता ,
पहले अमृत सा लगता है ,
अंत में विष जीवन दे जाता।

निद्रा मोह कलह से आता ,
आलस में जन को उलझाता ,
आत्मा बुद्धि को ढक जाता ,
शुरू अंत  विष को बो जाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ,
ऐसा सुख तामस कहलाता ।

देवलोक या स्वर्ग लोक हो ,
अथवा भू का जिंदा जीवन ,
नहीं जगह कोई ब्रह्मांड में
ए त्रिगुण से खाली अर्जुन ,
प्रकृति के इन त्रिगुण  को ,
अपने अंदर ढूंढ के रख लो ।

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र के
कर्म जन्म से है नहीं मानो ,
गुण स्वभाव द्वारा विभक्त यह ,
परंतप अर्जुन तू जानो ।

शौच तपस्या आत्मसंयम व
शांति प्रियता व धार्मिकता ,
ज्ञान और विज्ञान वगैरह
सत्य निष्ठा  सहिष्णुता  ,
स्वभाव से जन्म है पाते
ब्राह्मण कर्म हैं ए कहलाते ,
जो जन ऐसा कर्म है करता ,
ए जन ब्राह्मण है कहलाते ।

शूरवीरता तेज धैर्य व
रण में धीर चतुरता आदि ,
स्वामी भाव नेतृत्व वगैरह
दान उदरता गुण इत्यादि ,
क्षत्रिय गुण ए सब कहलाते ,
क्षत्रिय नर को मन को भाते ।

खेती गोपालन क्रय-विक्रय ,
सत्य आचरण सत्य व्यवहार ,
जीवन देश समाज के हेतु
निर्भय हो करना व्यापार ,
यह सब कर्म जो जन है करता ,
वैश्य महाजन पद को धरता ,
सेवा कर्म है जिनको भाता ,
शुद्र पुरुष नर है कहलाता ।

अपने अपने स्वाभाविक
कर्मों को करता प्राणी अर्जुन ,
भगवत प्राप्ति कैसे करता ,
इसे बताता अब सुन अर्जुन।

सब जीवो का जनक कहाता ,
सर्वव्यापी सर्वज्ञ गिनाता ,
अपने स्वाभाविक कर्मों बल
से मानव उसको पा जाता ।

दूजा धर्म से श्रेष्ठ है अपना ,
क्यों नहीं गुण रहित हो अर्जुन ,
स्वभाव से नियत धर्म कर्म
से नहीं पाप है होता अर्जुन।

किसी न किसी दोष युक्त है ,
सभी कर्म सुन तू अर्जुन ,
अग्नि धुंआ युक्त  है जैसे ,
दोष सभी कर्म ढकता वैसे ,
स्वभाव से नियत कर्म को
कर्मठ कर सफल है होते ,
चाहे दोष युक्त ही क्यों नहीं ,
नहीं इसे छोड़ कर हट जाते ।

स्पृहा आसक्ति रहित
अंतः करण पर वश का कर्त्ता ,
सांख्य योग के द्वारा अर्जुन ,
निष्कर्म सिद्धि है करता ।
( स्पृहा = इच्छा/कामना , सांख्य योग = आत्म योग )

परम ज्ञान को प्राप्त है करके
ब्रह्म की प्राप्ति होती कैसे ?
उस सिद्धि को सुन बतलाता ,
जिसे समझ नर धन्य हो जाता ।

राग द्वेष को त्याग है कर के
शुद्ध बुद्धि व धैर्य से मंडित ,
सात्त्विक नियमित हल्का भोजन ,
करे नियंत्रण  विषय अखंडित ।

एकांत सेवी , वैरागी नर ,
तन मन वाणी पर नियंत्रण ,
रहे सदा समाधि लीन ,
पूर्ण स्वतंत्र नहीं पराधीन ।

मिध्या अहं काम क्रोध व
मिथ्या गर्व से मुक्त है जो जन ,
मिथ्या स्वामित्व शांत विरल मन ,
भौतिकता से मुक्त है जो  तन ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म को पाता ,
उच्च कोटि में गिना जाता ।

ऐसा जन प्रसन्न है रहता ,
नहीं किसी हेतु शोक है करता ,
नहीं आकांक्षा करे किसी से ,
सम भाव वह रखे सभी पे ,
मेरे परम भक्ति को पाता ,
नहीं लौट फिर भू पर आता ।

मुझ भगवान के यथारूप को
सिर्फ भक्ति से जाना जाता ,
मेरे तत्त्व स्वरूप को अर्जुन ,
भक्ति से पहचाना जाता ,
जो मुझ में विश्वास है लाता ,
वह बैकुंठ जगत में जाता।

मेरे परायण कर्म योगी सुन ,
अपने कर्मों को है करता ,
मेरी कृपा से हे अर्जुन !
परम पद अविनाशी धरता ।

मुझ में मन तू अर्पित कर ,
सभी कर्म समर्पित कर ,
सम बुद्धि योग का ले सहारा ,
मेरे परायण है नहीं हारा ।

मानो पार्थ तू मेरी बात ,
अपना मन मुझमें तू लगा ,
सब संकट करेगा पार,
और न दूजा है व्यवहार ,
अहंकार वश होकर तू ,
मेरी बात नहीं मानेगा,
नष्ट भ्रष्ट हो करके तू ,
अंत में तू पछतायेगा।

अहंकार के कारण तू,
युद्ध से मुंह है मोड़ रहा ,
मिथ्या निश्चय यह तेरा ,
जिस पर तू है दौड़ रहा ,
अंत में युद्ध करेगा तू ,
कायर पद धरेगा तू ।

जिस कर्म को तू अर्जुन  ,
मोह वश नहीं करता तू ,
उसी युद्ध को तू अर्जुन ,
पर वश हो लड़ेगा तू ,
अपना गुण स्वभाव को जानो ,
कर मन स्थिर खुद पहचानो ।

अर्जुन से बोला भगवान ,
सुनो पार्थ तू देकर ध्यान ,
सब प्राणी के शरीर यंत्र में ,
जीवो के मन सिर तंत्र में ,
परमेश्वर का वास है जानो ,
उनकी माया को पहचानो ,
कठपुतली की भांति की नाईं ,
सबहि नचावत राम गोसाईं ।

सुनो पार्थ साहस दिखलाओ ,
परमात्मा की शरण में जाओ ,
परम शांति को पाओगे ,
धाम सनातन में जाओगे ।

अति गोपनीय ज्ञान यह अर्जुन ,
जिसे बताया ध्यान दे अर्जुन ,
इस पर मन से करो विचार ,
तदनुसार रखो आचार ।

अति गोपनीय से गोपनीय
परम रहस्यमय अनुकरणीय ,
फिर बतलाता हूं दे ध्यान ,
मेरा परम प्रिय विद्वान ्

कहा कृष्ण अर्जुन याद रखना ,
मुझ में मन लगाओ अपना ,
मुझ में भक्ति श्रद्धा लाओ ,
मेरा पूजन कर सुख पाओ ,
मुझे नमन प्रणाम करो ,
मुझे प्राप्त कर विजय धरो ,
मेरा सत्य वचन यह  जानो ,
मेरा प्रिय तू इसको मानो ।

सब धर्मों का त्याग करो तू ,
किसी भय से नहीं डरो तू ,
मेरी शरण में तू आ जाओ ,
सुनो पार्थ तू ना घबराओ ,
मैं तेरा उद्धार करूंगा ,
तेरा मैं पतवार बनूंगा ।

न संयमी नहीं एकनिष्ठ जो ,
ना भक्ति व द्वेषी मेरा ,
गुप्त ज्ञान यह नहीं  बताना ,
यह कर्तव्य है बनता तेरा ।

मुझ में प्रीति रखता जो जन,
मेरी भक्ति करता जो मन ,
गीता के इस गूढ़ रहस्य को
जानने का अधिकारी वह तन ,
मेरे भक्तों में वह कहेगा ,
भवसागर के पार बसेगा ।

इस संसार में ऐसा प्राणी
मेरा सबसे प्रिय बनेगा ,
और न दूजा इस जगत में
जिससे मेरा प्रेम रहेगा।

मेरा तेरा इस संवाद को
इस गीता में जो पढ़ेगा ,
अथवा भक्ति श्रद्धापूर्वक
शांत चित्त से ध्यान करेगा ,
भक्ति ज्ञान योग से वह नर
भवसागर को पार करेगा ।

द्वेष रहित व श्रद्धा युक्त हो ,
जो नर इसका श्रवण करेगा ,
सब पापों से मुक्ति पाकर
उत्तम कर्मों को वो करेगा ,
श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा,
श्रेष्ठों में गिना जाएगा ।

अर्जुन से पूछे भगवान ,
कहो धनंजय वीर महान ,
इस शास्त्र का सुना ज्ञान ,
बोलो वीर बोलो विद्वान ,
क्या अभी शेष तेरा अज्ञान ?
सत्य बोलो हे वीर महान !

अर्जुन उवाच-
बोला अर्जुन वीर महान ,
दूर हुआ मेरा अज्ञान ,
मेरा मोह हटा श्रीमान ,
संशय मिटा ,पाया ज्ञान ,
भय हटा स्मृति आई ,
आपकी कृपा एकाग्रता लाई ,
आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब मैं प्रभो युद्ध करूंगा ।

संजय उवाच-
संजय बोला हे श्रीमान!
सब उपदेश और बातचीत ,
बासुदेव व पार्थ के बीच ,
सुनकर वर्णन किया नाचीज़ ।

व्यास कृपा से हे श्रीमान !
दिव्य दृष्टि पाया  महान ,
यह पवित्र गोपनीय योग ,
प्रभु मुख से सुना श्रीमान ।

मंगलमय अद्भुत संवाद
गोपनीय पवित्र है आर्य ,
जिसे सुना और देखा नाथ,
जिसे बताया आपके साथ ,
पुनः पुनः स्मरण में आता ,
बार बार मन हर्ष समाता ।

उस अत्यंत विलक्षण रूप का
पुनः पुनः कर करके याद ,
मेरा चित्त निर्मल हो जाता ,
मन का मिटा सभी विषाद ।

जहां योगेश्वर कृपा विराजे ,
वहीं गांडीवधारी राजे ,
वहीं विजय विभूति आकर
सदा विराजे प्रभु को पाकर ,
राजन! यह सच शत प्रतिशत है ,
शास्त्र सम्मत यह मेरा मत है ।




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इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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