गुरुवार, 12 मई 2022

दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास


इंडिया गेट दिल्ली

आज की दिल्ली मैप


कविता
शीर्षक - दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

दिल्ली भारत की राजधानी ,
सभी धर्म के बसते प्राणी ,
कैसे बना था यह राज ,
जिसको कहते दिल्ली आज ?

गंगा तीर बसे कुछ  शूर ,
राज बना हस्तिनापुर ,
फूट पड़ी हुआ विभाग ,
जमुना तट जागा सुभाग ,
इंद्रप्रस्थ बसा सुराज ,
इसे ही कहते दिल्ली आज।

समय चाक के सब हैं चालक ,
बूढ़ा में ढल जाता बालक ,
प्रजा मरती , मरता पालक ,
इंद्रप्रस्थ का डूबा तारक ।

इंद्रप्रस्थ की मिटी आन ,
समय बिता उगा चौहान ,
पृथ्वीराज का दिल दिलेर ,
दिल्ली का यह राजा शेर ,

इसी बीच आया तूफान ,
गोरी से आया अफगान ,
दिल्ली की फिर गई शान ,
हिंदू मिटे , चढ़ा कुरान ।

दिल्ली सल्तनत महान ,
समय बिता बना बेजान ,
मुगलों ने किया अब राज ,
आया फिरंगी छिना ताज ।

कोलकाता में राज बसाया ,
फिर दिल्ली में राज ले आया ,
था सन उन्नीस सौ एग्यारह ,
शुभ दिन दिसंबर बारह ।

दिल्ली फिर बनी राजधानी ,
खुश हुए यहां के प्राणी ,
बड़ा बड़ा आचार बनाया ,
फिरंगी विचार बनाया ।

राजाओं सुल्तानों को भी
नतमस्तक कर खार बनाया ,
अंग्रेजों की देन बहुत है,
पर नहीं प्यार दुलार बनाया।

चारों तरफ था भ्रष्टाचार ,
गोरों की चलती अपार ,
पीस रही थी यह सरकार ,
मचा हुआ था हाहाकार।

थे डरे हुए राजा सम्राट ,
खोज रहे थे एक विराट ,
गांधी का बाजा सितार ,
चमक उठा किरणों का तार।

एक एकता एकाकार
में बल है जाने संसार ,
फूट फर्क फिक्र फटेहाल ,
निर्बल कर करता बेहाल ।

हुई एकता हुए स्वतंत्र ,
दिल्ली का हुआ पुनर्जन्म ,
दिल्ली फिर बनी राजधानी ,
हर्ष मनाए मिल सब प्राणी ।

खत्म हुई यह दिल्ली कहानी ,
जिसे सुनाया मैं जुबानी ,
देशवासियों देकर ध्यान
स्वतंत्रता का करो सम्मान।

राणा ने खा घास की रोटी
स्वतंत्रता अपनाई थी ,
वर्षों ‌जंगल में गुजार कर
परतंत्रता ठुकराई थी।

घड़ी रहेगी खूब मस्तानी ,
नहीं करोगे जब नादानी ,
नहीं करो अब आनाकानी ,
याद रखो यह बात जुबानी।

दिल्ली पर मेरा यह उपहार ,
करो नहीं इससे इनकार ,
"पशुपति " का  यह उद्गार ,
कृपा कर करो स्वीकार ।

जिस दिन एकता होगी खत्म ,,
फिर मिट जाएंगे सब हम ,
एकता से सब सिद्ध हो काज ,
इसे ही कहते दिल्ली आज ।।

***************समाप्त*****************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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बुधवार, 11 मई 2022

चरित्र ( कविता )

चरित्र के धनी कवींद्र गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर


कविता
शीर्षक - चरित्र
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

शक्ति और सौंदर्य क्या है ?
क्या है नियम और कानून ?
सभ्यता किस स्त्रोत से आई ?
आया ज्ञान कहां से बन ?

शांति किसकी दासी बनी है ?
विद्वता किसका है धन ?
राजनीति का मूल कहां है ?
सफलता का क्या साधन ?

कोमलता , गंभीरता आदि सब ,
बनी रही किनकी सहचरी ?
आत्मबल का सखा कौन है ?
दृढ़ता किनकी अनुचरी ?

कायरता किनकी है चेटी ?
निर्भयता किनकी है बेटी ?
किनका खेत धर्म निर्मित है ?
न्याय युक्त है किनकी खेती ?

इनका नाम तो लेने में
ह्रदय में होता है अनबन ,
अल्प ,लघु व चंद वर्ण की
चरित्रता का है वह तन ।

चरित्रवान का इस जगत में
मान-मर्यादा सब कुछ है ,
सफलता इनकी दासी है ,
ज्ञान इन्हीं का चक्षु है ।

किंतु यह सोचनीय बात है ,
चरित्र रहा न आज नर में ,
सफलता का जनक रहा जो ,
गिरा हुआ है घर-घर में ।

राजनीति का शोर विश्व में
आजकल है मचा हुआ ,
किंतु क्या यह तुच्छ जगत है
किसी कष्ट से बचा हुआ ?

राजनीति तो दिप्त अनल है ,
उसको क्या हम छू सकते ?
छूने को तो छू सकते ,
पर अपना हाथ जला सकते ।

राजनीति अपनाना है तो 
चरित्र हिम का लो औजार ,
नौका  रहित व्यक्ति कैसे
जा सकता है सागर के पार ?

आधुनिक मानव केवल
बल विक्रम को अपनाते हैं ,
मूल बिंदु है छिपा कहां
इसको वे जान न पाते हैं ?

परिणाम इसका होता है
दुख भुगतना पड़ता है ,
अनजाने में सर्प का काटा
मानव क्या नहीं मरता है ?

भारत को गुलाम होने में
क्या कारण था वह देखें ?
भारत को स्वतंत्र होने में
क्या कारण था यह पेखें ?

गांधी क्या थे और गोरांग सब ?
क्या था इनका मूलाधार ?
जितने देश आज उन्नत है,
क्या है उनका असल आधार ?

अतः ए निष्कर्ष निकलता ,
हमें चरित्र युक्त होना है ,
चरित्र खोकर क्या इस जगत में
अपने को नहीं खोना है ?

अनल बुझाने के हेतु
कुछ कण अंबु का आता है ,
आग लगाने के हेतु
लकड़ी को लाया जाता है ।

शांति की दंडी को क्षैतिज
चरित्र मात्र कर सकता है ,
राजनीति , कानून वगैरह
मंद यहां पड़ जाता है ।

अतः यदि हम चरित्रवान हो
राजनीति को अपनाएं ,
न्याय के संग कानून ,नियम को
निष्पक्ष बनके आजमाएं ।

दुनिया की समग्र कठिनता
निष्कंटक मार्ग बनाएगी ,
ठोकर देने पर भी शांति
दूर नहीं जा पाएगी ।

बिना चरित्र के राजनीति
कभी सफल नहीं हो पाएगी,
धागा बिन लंबी माला
पुष्पों से क्या बन जाएगी ?

अतः चरित्रता माता है
  और सभी इसकी संतान ,
क्या ऐसा है कभी हुआ कि
बिन माता जन्मी  संतान ?

************समाप्त****"*******

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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मंगलवार, 10 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय - 4 )


अर्जुन को ज्ञान , कर्म और संन्यास का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

गीता काव्यानुवाद

अध्याय- 4
इस अध्याय में अर्जुन को ज्ञान कर्म संन्यास आदि का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन से बोले भगवान ,
इस योग की महिमा महान ,
सूर्य प्रथम जिनको सुनाया,
स्व सूत मनु को वे बतलाया ,
मनु स्व सूतों को बतलाया ,
पुत्र इक्ष्वाकु को समझाया ।

परंपरा से प्राप्त इस योग को ,
राजऋषियों ने तब  जाना ,
बहुत काल तक लुप्त रहा यह ,
सब विज्ञों ने ऐसा माना ।

प्रिय सखा तू भक्त है मेरा ,
इस हेतु यह योग बताया ,
इस रहस्य को है समझाया ,
मुक्ति मार्ग को है दिखलाया
गोपनीय यह इसको मानो ,
गुप्त रखो मन में यह ठानो।


अर्जुन बोला - हे श्रीमान !
एक प्रश्न और कृपानिधान ,
सूरज का जन्म बहुत पुराना ,
कल्प आदि में कहे जमाना ,
इस युग में है जन्मे आप ,
नहीं समझ में आती बात,
सूर्य से कैसे कहे आप,
कृपा कर बतलाएं नाथ ।

अर्जुन से तब बोले- नाथ ,
इसका उत्तर सुन तू पार्थ ,
तेरा मेरा जन्म अनेक ,
इस युग में उनमें से एक ,
अपने पूर्व जन्म को तू ,
नहीं जानता अर्जुन तू ,
अपने पूर्व जन्म को अर्जुन ,
अच्छी तरह जानता , सुन ।

अजन्मा ,अविनाशी मैं,
सभी जीवों का मैं हूं नाथ ,
योगमाया से हो प्रकट ,
सब जीवों का देता साथ ,
अपनी प्रकृति कर अधीन ,
जन्म लेता , होता विलीन ।

जब जब होती धर्म की हानि ,
बढ़े अधर्म  जभी इस भू पर ,
तब तब जन्म है होता मेरा ,
जिससे विजय करे सु कु  पर।
अथवा
जब-जब धर्म की होती हानि,
और अधर्म है भू पर बढ़ता ,
धर्म उत्थान के हेतु अर्जुन ,
वैसी आत्मा सृजन करता ।

पाप कर्म के नाश के हेतु ,
साधु जन उधार करन को। ,
युग-युग में मैं प्रकट हुआ हूं ,
आश्रय दिया  और धर्म को।

मेरा जन्म कर्म सुन अर्जुन,
दिव्य अलौकिक है तू जान ,
तत्त्व से लेता जान है जो जन ,
पूनर्जन्म नहीं होता मान ,
मेरे लोक को वह पा जाता ,
मुझे प्राप्त कर वह तर जाता।

राग भय और क्रोध से मुक्ति ,
पाकर के पहले भी बहुत जन ,
मेरे शरण और दिव्य प्रेम को ,
प्राप्त किया है उनका तन मन।

मुझको जो भजता है जैसा ,
मैं भी उनको मिलता वैसा ,
सब अपनाते मेरा मार्ग ,
और न भू पर कोई मार्ग ।

मनुज लोक में रहने वाला ,
कर्म फल को चाहने वाला,
देवों को पूजते ऐसा जन ,
शीघ्र फल चाहे उनका मन।

गुण और कर्म के अनुसार,
चारों वर्ण रचा हूं यार ,
मुझे ही जानो सबका कर्त्ता ,
वास्तव में मैं हूं अकर्त्ता ।

नहीं कर्म के फल में स्पृहा है मेरी ,
अत: कर्म नहीं मुझे लिप्त सम्मोहित करता ,
मुझे तत्त्वों से जान समझ लेता है कोई ,
उसे कर्म भी नहीं लिप्त या मोहित करता।
( स्पृहा = चाहत )

इसी ज्ञान के ही अनुसार ,
पूर्वकाल के वासी यार ,
मुक्ति  अभिलाषी जन- मन ,
कर्म किया है उनका तन ।
पूर्वजों के ही अनुसार ,
कर्म करो नहीं कर तकरार ।

क्या है कर्म और अकर्म ?
इसे बताता है सुधर्म ,
इसे समझना बहुत गहन,
भ्रमित हो जाता बुद्धिजन ,
अर्जुन पुनः मैं उसे सुनाता ,
जिसे सुन सब मुक्त हो जाता।

क्या है कर्म ,विकर्म ,अकर्म ,
इन्हें समझना मानव धर्म ,
इसे समझ जो जाता है,
विज्ञ वही कहलाता है ।
( विकर्म = वर्जित कर्म , अकर्म = निष्क्रियता )

कर्म ,अकर्म , विकर्म जो जाने ,
कहे कृष्ण वही सज्जन है ,
इन तीनों को हरदम समझो ,
क्योंकि कर्म की गति गहन है।

कर्म में देखें जो अकर्म ,
और अकर्म में देखे कर्म ,
मनुज़ो में वह विज्ञ कहाता ,
सभी कर्म स्वयं सिद्ध हो जाता।
अथवा
कर्मों में अकर्म जो देखे,
या अकर्म में देखे कर्म ,
सभी कर्म के कर्त्ता ए नर ,
विज्ञ मनुज का यही धर्म ।

लोभ लालच हीन जिसका ह्रदय ,
ज्ञान युक्त कर्म हो जिनका ,
शास्त्र सम्मत सुकर्म हो जिनका ,
पंडित सा मन होता उनका ।

कर्म फलों की सब आसक्ति,
जिन्हें नहीं है विचलित करती ,
सदा तुष्ट रहता उनका मन,
और स्वतंत्र रहता है ए जन ,
सभी कर्म के कर्त्ता यह तन ,
फिर भी अकर्त्ता है यह जन ।

जिनका मन बुद्धि है संयमित ,
स्वामित्व धन संपत्ति को त्यागा ,
तन निर्वाह के लिए कर्म करे ,
उनसे दूर पाप है भागा ।

अपने लाभ से तुष्ट है जो जन ,
मन: द्वन्द ईर्ष्या से मुक्त मन ,
सिद्धि असिद्धि में सम जो ,
कर्म नहीं बांधे उनका तन ,
कर्म करें फिर भी अकर्त्ता,
कर्म योगी संसार है कहता ।

देह अभिमान हीन  जिनका तन ,
भौतिक गुण से मुक्त है जो जन ,
दिव्य ज्ञान  में स्थित है मन ,
ब्रह्म ही बन जाता उनका धन ,
उनका कर्म ब्रह्मलीन  होता ,
ऐसा जन नहीं पापी होता ।

ब्रह्म यज्ञ और हवन ब्रह्म हो,
आहुति व कर्म ब्रह्म हो ,
इस सब का भी फल ब्रह्म है,
पुनीत पावन इनका मर्म है।

कुछ जन यज्ञों के ही द्वारा ,
देवों की है पूजा करते ,
परम ब्रह्म रूपी अग्नि में ,
और कुछ आहुति करते ।

अपने मन पर करके वश,
श्रोत्र आदि पर लाते कस ,
कुछ योगी लाते हैं वश ,
शब्द आदि पर करते कस ।

इंद्रियों का कार्यकलाप ,
प्राणों का भी सभी आलाप ,
आत्म संयम से रोके जो ,
ज्ञान योग कहलाता वो ।

बहुत द्रव्य से करते यज्ञ ,
तप यज्ञ करते कुछ सज्ञ,
योग यज्ञ करते कुछ ध्यानी ,
स्वाध्याय यज्ञ करते हैं ज्ञानी ।

अपान वायु में प्राण वायु को
हवन है करते कुछ विज्ञानी ,
प्राण वायु में अपान वायु को
भस्म हैं करते कुछ ध्यानी ।
( अपान = निम्नगामी )

नियमित आहार के कर्त्ता
प्राणायाम परायण जन ,
प्राण और अपान आयु रोक ,
करे प्राण को आत्म हवन ,
यज्ञों द्वारा यह सब साधक ,
पापों का नाश हैं करते ,
यज्ञ विज्ञ कहलाते हैं ये ,
नहीं किसी भय से ए डरते।

यज्ञ फल अमृत को पीकर ,
परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाते ,
पुनर्जन्म से मुक्ति पाकर ,
पुनः नहीं धारा पर आते ,
बिना यज्ञ के ऐसा जन जब ,
इस जीवन में रह नहीं सकते ,
पुनर्जन्म ले ऐसा जन तब
यज्ञ बिना कैसे रह सकते।

ए सब यज्ञ वेद है कहता ,
सज्ञ विज्ञ है जिसको करता ,
मन से ,कर्म से ,इंद्रियों से ,
जान तत्त्व से तू भी कर ,
कर्म बंधन से मुक्त तू होगा,
नहीं किसी भय से तू डर ।

द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ
होता सर्वोत्तम जानो ,
सभी कर्म का अंत सुनो ,
ज्ञान में है होता मानो।

नमन विनय सेवा जिज्ञासा
से विज्ञ प्रसन्न हो जाते ,
अकड़ छोड़ जो प्रश्न है करता ,
उसका उत्तर हैं बतलाते ,
और विशेष में इन ज्ञानों को ,
इन विज्ञों से समझो जाकर ,
सब संशय मिट जाता  अर्जुन,
ऐसा साधु संगत पाकर।

मोह नाश सब है हो जाता ,
इन ज्ञानों के कारण अर्जुन ,
स्व आत्मा पहचानेगा तू
मुझको तत्त्व से जानेगा तू ,
सब पाओगे अपने मन में,
अपने को तू मेरे तन में।

सभी प्राणियों से भी ज्यादा
अपने को गर पापी मानो ,
ज्ञान रूपी नौका पाकर के
तर जाओगे ऐसा जानो।

प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला से
सभी ईंधन जलते हैं जैसे ,
सभी कर्मफल भय सुन अर्जुन ,
ज्ञान अग्नि में जलते वैसे ।

सुनो वीर अर्जुन महान ,
ना कुछ पावन ज्ञान समान ,
कर्म योग में रमता जो तन ,
स्व आत्मा में पता वह जन ।

श्रद्धालु है ज्ञान को पाते ,
इंद्रियों पर वश तब लाते ,
जितेंद्रिय बन सुख पाते ,
परम शांति में रम जाते ।

अविश्वासी श्रद्धाहीन
अज्ञ नहीं पाते हैं सुख को ,
इस लोक और परलोक में
खोजते रहते हैं वो दुख को ,
संदेह ही उनका आचार ,
उनका कर्म है भ्रष्टाचार।

दिव्य ज्ञान से संशय को
नाश किया है जो विद्वान ,
कर्म फलों पर ध्यान न देकर
परब्रह्म भजता सुजान ,
कर्म न बांधे ऐसा मन ,
कहलाता है विज्ञ सजन ।

अतः हे अर्जुन! तू दो ध्यान ,
ज्ञान से जीतो मन अज्ञान ,
मन संशय को करके नाश ,
कर्म योग पर कर विश्वास ,
युद्ध के लिए हो तैयार ,
न दुविधा में पड़ तू यार।

*********अध्याय- 4 समाप्त *************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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सोमवार, 9 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 3 )

 

ज्ञान और कर्म में श्रेष्ठ कौन अर्जुन का प्रश्र और श्रीकृष्ण का उत्तर

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 3
इस अध्याय में अर्जुन के प्रश्न ज्ञान और कर्म में कौन श्रेष्ठ है  का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया है। इस अध्याय को कर्म योग भी कहते हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
कर्म से बुद्धि ( ज्ञान ) गर है श्रेष्ठ ,
फिर क्यों कर्म करे भगवान ,
फिर क्यों दारूण कर्म क्षेत्र में ,
मुझे ढकेलते हैं श्रीमान ।

बहुत अर्थयुक्त इन बातों से ,
भ्रम युक्त है मेरी बुद्धि ,
अतः आप स्पष्ट बताएं ,
जिससे पाऊं मैं सुबुद्धि।

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन सज्ञान ,
आत्मज्ञान का दो प्रकार ,
पहले ही कह चुका हूं यार ,
ज्ञान से पाते सांख्य योगी ,
कर्म से पाते कर्मयोगी।

कर्म से विमुख हो कोई,
नहीं कर्म से मुक्ति पाया ,
ना सन्यास को अपनाकर
कोई सिद्ध पुरुष कहलाया।

न जन कोई किसी काल में ,
बिना कर्म क्षणभर रह सकता ,
प्रकृति गुण से सब मंडित ,
अतः विवश हो कर्म है करता ।

इंद्रियों को बलपूर्वक रोके ,
मन से विषयों को ना हटाए ,
मिथ्याचारी दम्भी वह है ,
ऐसा जन मुझको नहीं भाए ।

मन से इंद्रियों पर वश कर ,
कर्म करे मुझको वह भाए ,
नहीं लोभ लालच है जिसको,
कर्म नहीं उसको भरमाए ।

शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर ,
क्योंकि कर्म है श्रेष्ठ कहाता ,
तन निर्वाह के हेतु अर्जुन ,
कर्म सभी से उत्तम आता ।

यज्ञ कर्म ही मानव मुक्ति ,
दूजा कर्म कर्म का बंधन ,
फल की चिंता कर्म का बंधन,
चिंता रहित कर्म अबंधन ,
कहा कृष्ण सुनो हे अर्जुन!
फल-भय रहित कर्म अबंधन ।

कल्प आदि में यज्ञ सहित
प्रजा रचे प्रजापति ,
प्रजा से बोले श्रीमान ,
यज्ञ करो तुम सब विद्वान ,
सब बुद्धि , भोग व धन ,
देगा यज्ञ सुनो सब जन ।

यज्ञ उन्नत करता सब देव ,
देव उन्नत करता सब जन ,
एक दूजे को करो उन्नत ,
प्रेम पूर्वक रहो सब जन ।

देवता जब होंगे उन्नत ,
इच्छित भोग करें प्रदान ,
इन भोगों का कुछ अंश ,
नहीं पुनः जो करता दान ,
बिना दान स्वयं भोग जाता,
चोर नीच जन वह कहलाता ।

यज्ञ से बचा हुआ जो अन्न
को खाए है उत्तम जन ,
मन: दोष पापों को हरता ,
मन में मधुर शांति भरता ,
सिर्फ पेट पाले जो जन ,
सब कहते  उसे अधम ।

प्राणी की उत्पत्ति अन्न से ,
अन्न पे आश्रित है सब प्राणी ,
वृष्टि करती अन्न उत्पादन ,
यज्ञ पे आश्रित है सब दानी ,
नियत कर्मों से यज्ञ है होता ,
इसे सुनो तू अर्जुन ज्ञानी।

वेदों से उत्पति कर्म की ,
ऐसा कहते हैं विज्ञानी ,
परमब्रह्म अक्षर से अर्जुन ,
जन्मा वेद सुनो तू ध्यानी ,
परम ब्रह्म शाश्र्वत ईश्वर को
यज्ञों में स्थित तू जानो ,
अतः कर्म कर यही धर्म है ,
धर्म न दूजा है यह मानो ।

परंपरागत प्रचलित कर्मों को
नहीं करता जो ,
कर्म हीन कर्तव्य च्युत वह
है नहीं सज्जन सो,
इंद्रिय भोग हेतु कर्म को करता ,
स्वार्थ में जीता ,स्वार्थ में मरता ,

अतः तू अर्जुन सुन यह बात ,
जिसे बताता हूं मैं तात!
आत्मा में ही करे रमन ,
आत्मा में ही तृप्त जो जन ,
आत्मा से संतुष्ट है जो
सभी कर्म से मुक्त है वो।

ऐसा जन तू सुन सुजान ,
नहीं कर्म पर देता ध्यान ,
नहीं स्वार्थ से है संबंध ,
आत्मायोग में रहता बद्ध ,
ऐसा जन निर्लिप्त कहाता ,
सभी ग्रंथ ऐसा  बतलाता।

बिन आसक्ति होकर तू ,
कर्म करो यह नीति सु ,
अनासक्त जो करता कर्म ,
प्राप्त है करता परमब्रह्म ।

जनक आदि भी ज्ञानी जन ,
बिना आसक्ति किए थे कर्म ,
परम सिद्ध कहलाते आज ,
पुरुषों में बने सिरताज ,
जनहित में तू करो कर्म ,
और न दूजा तेरा धर्म ।

श्रेष्ठ पुरुष जो जो हैं करते ,
अन्य पुरुष उसको अपनाते ,
जो आदर्श वह प्रस्तुत करते ,
वो आदर्श नियम बन जाते ।

ना कुछ करना मुझे शेष है ,
न अप्राप्त कुछ अर्जुन मुझको ,
फिर भी कर्म को करता हूं मैं ,
ताकि करें सभी जन उसको ।

गर मैं कर्म करूं नहीं अर्जुन ,
सब अकर्मक बन जाएंगे ,
सभी मार्ग अपनाते मेरा ,
बिन कर्मों के मर जाएंगे ।

यह संसार हमें दोषी मानेगा ,
नष्ट भ्रष्ट समाज हमें भोगी जानेगा ,
वर्णसंकरों  से समाज संपूर्ण हो जाए ,
क्योंकि मेरा कर्म सभी जन मन को भाए ।

आसक्त अज्ञानी जन
चाहे कर्म हैं करते जैसा ,
निर्लिप्त ज्ञानी जन
छेड़ें नहीं कर्म को वैसा ,
क्योंकि अज्ञानी जड़ होते ,
अनुचित इनका घर होते ।

हठी को हठ से नहीं तोड़ो ,
नहीं मूर्खता पर ही छोड़ो ,
उचित कर्म और विनम्र हो ,
ज्ञानी जन उनका मन मोड़ो।

प्रकृति के गुणों द्वारा ही ,
सभी कर्म को जन है करता ,
जिसका मन अहंकार युक्त है ,
अपने ही को कहता कर्त्ता ।

गुण विभाग और कर्म विभाग
के तत्त्व जो जाने ,
सभी धर्म और सभी ग्रंथ
इन्हें ज्ञानी माने ,
इन्हें आसक्ति ना भरमाती ,
ना कोई माया नाच नाचाती ।

प्रकृति गुणों कर्मों में
लिप्त हैं रहते भू के प्राणी ,
अतः यह कर्तव्य है बनता
न विचलित करें इनको ज्ञानी ।

अपने सभी कर्मों  को मुझ पर
छोड़ पार्थ तू युद्ध करो ,
आशाहीन संतापहीन निर्मम
मन करके तू वध करो ,
मुझ पर तू विश्वास करो ,
दुर्योधनों को नाश करो ।

श्रद्धा युक्त अदोष दृष्टि से
इस मत को जो माने मन ,
सभी कर्मों से मुक्ति पाकर
पाप मुक्त तर जाते जन ।

मुझ में दोषारोपण करते
अज्ञानी मन ,
इन मतों के साथ न चलते ,
ए मूर्ख जन ,
भ्रम युक्त मोहित मन इनका,
कलह क्लेश कर्म है जिनका ,
नष्ट भ्रष्ट ऐसा जन होते ,
अंत में अपना कर्म पर रोते ।

सभी प्राणी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करते कर्म ,
ज्ञानी  भी प्रकृति वश हो
अपने ढंग से करें सुकर्म
हठी इसमें विघ्न ले आते ,
अपने को नेता बतलाते ।

सभी इंद्रियों के विषयों में
राग द्वेष स्थित है जानो ,
ज्ञानी इनके वश नहीं होते ,
ऐसा मेरा मत है मानो ,
राग द्वेष से न कल्याण ,
ए हैं विघ्न व शत्रु महान ।

अपना धर्म गर गुण रहित हो ,
दूसरे के सुधर्म से उत्तम ,
अपने धर्म में मर जाना भी,
पर धर्म से है सर्वोत्तम ,
अपना धर्म कल्याण का कर्त्ता ,
पर का धर्म भय है भरता ।

अर्जुन उवाच-
कहा पार्थ - सुने भगवान ,
जन क्यों करता पाप महान ?
उससे कौन कराता पाप ?
मुझे बताएं प्रभु आप ।

श्रीकृष्ण उवाच -
काम कामना जनक क्रोध का ,
रजोगुण इन सबका दाता ,
नहीं तृप्ति होती है इनसे ,
महानाश नर इनसे पाता ।

धूम्र से अग्नि , मैल से दर्पण ,
झिल्ली गर्भ को ढकती जैसे ,
ज्ञान को काम क्रोध है ढककर ,
नर में बैठे रहते वैसे ।

काम रूपी भीषण अग्नि में ,
ज्ञानरूपी आत्मा जल जाती ,
मन अशांत नर का हो जाता,
अच्छी बातें समझ नहीं आती।

मन इन्द्रियां बुद्धि अर्जुन ,
इनके बास का स्थल जानो ,
इन उपरोक्तों के कारण से
ज्ञान आच्छादित ऐसा मानो,
  जीव आत्मा को मोहित करता ,
जिससे मानव भ्रम में पड़ता ।

पहले इंद्रियां तू वश कर ,
जिससे नाश नहीं हो ज्ञान ,
पापी काम को जीतो मन से,
जिससे विजय करे विज्ञान ।

जड़ से काम इंद्रियां श्रेष्ठ है ,
मन इनसे होता है जेष्ठ ,
मन से बुद्धि होती उत्तम ,
पर आत्मा सब में सर्वोत्तम ।

सूक्ष्म आत्मा को बुद्धि से ,
जानो पार्थ , बनो विद्वान ,
मन को वश करो बुद्धि से ,
दूर करो अपना अज्ञान ,
नहीं काम से हारो अर्जुन ,
पहले काम को मारो अर्जुन ।

**********अध्याय-3 समाप्त ****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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रविवार, 8 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय २ )

 

शोकाकुल अर्जुन को युद्ध करने का उपदेश देते श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय २
शोक आकुल अर्जुन को युद्ध करने हेतु भगवान कृष्ण का उपदेश जिसे कुछ रचनाकार सांख्य योग भी कहते हैं इस अध्याय में वर्णित है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

संजय उवाच -
संजय बोला- सुने नृप महान ,
व्याकुल हैं अर्जुन सुजान,
शोक युक्त आंसू से तर,
करुणा युक्त दिखे नजर ,
ऐसा अर्जुन से श्रीमान !
यह बोले केशव भगवान ।

समझ न आती हे अर्जुन !
मोह कहां से आया बन ,
इस समय में तू मोहित ,
नहीं विजय हेतु है हित ,
नहीं श्रेष्ठ जन द्वारा मान्य,
नहीं स्वर्ग हेतू सुजान ,
नहीं यश कृति ले आए ,
उल्टे नर अपयश को पाए ।

अतः हे अर्जुन ! सुन दे ध्यान,
कायरता का कर नहीं मान ,
मन की दुर्बलता कर त्याग ,
युद्ध करो ,मत सोओ , जाग ।

केशव से बोला तब पार्थ ,
सुने प्रभु , सुने हे नाथ !
पितामह ,आचार्य से युद्ध ,
कैसे लडूंगा बन के क्रुद्ध ,
पूजनीय ये दोनों नाथ ,
सदा नवाया इन पर माथ ।

इन गुरुओं को न मैं मार ,
भीख मांगने को तैयार ,
रुधिर से सने हुए यह भोग ,
अर्थ , कामना ,काम का रोग ,
नहीं चाहता हूं माधव ,
नहीं चाहता हूं यादव ।

नहीं समझ आती माधव ,
शांति श्रेष्ठ या युद्ध यादव ,
हम जीते या वे जीते ,
यह भी समझ नहीं पाते ,
धृतराष्ट्र पुत्रों को माधव ,
नहीं मारना चाहूं यादव।

कायरता दोष से मैं मोहित ,
धर्म समझ नहीं आता मुझको ,
क्या है उचित और अनुचित ,
मंगलमय बतलाए उसको ,
मैं हूं शिष्य उबारे मुझको,
शरणागत हूं तारे मुझको।

इस भू का निष्कलंक राज व
धन्य-धान्य से युक्त समृद्धि ,
इंद्रासन भी अगर मिल जाए ,
सभी शोक में करते वृद्धि ,
नजर न आता कोई साधन ,
जिससे शांत बने मेरा मन ।

संजय बोला- हे नृप ! महान ,
आगे यह है हाल सुजान ,
नहीं लडूंगा मैं  गोविंद ,
नहीं लडूंगा हे अरविंद !

संजय बोला- हे  महाराज !
सुने आगे का यह हाल ,
समर बीच शोक से आकुल ,
अर्जुन बैठे हैं व्याकुल ,
विहस प्रसन्न मुख से श्रीमान ,
अर्जुन से बोले भगवान ।

अर्जुन से बोले- भगवान ,
सुनो वीर अर्जुन महान ,
शोक योग्य जो है नहीं जन ,
फिर आकुल क्यों तेरा मन ?
जो भी होते हैं विद्वान ,
नहीं शोक करते सुजान  ,
नहीं जीवित हेतु आकुल ,
नहीं भूत हेतु व्याकुल।

नहीं कोई काल कि जिसमें
तू नहीं था ,
नहीं है कोई काल कि जिसमें
मैं नहीं था ,
ना कोई है काल कि जिसमें
ए नृप नहीं थे,
ना है आगे काल कि हम सब
न रहेंगे ।

बाल अवस्था ,युवा अवस्था ,
वृद्ध अवस्था तन में जैसे ,
भिन्न-भिन्न शरीर को आत्मा ,
मरने पर है पाता वैसे ,
धीर पुरुष इसे सहज में लेते ,
अधीर सम्मोहित मोहित होते ।

सर्दी-गर्मी , सुख-दुख का ,
विषय और इंद्रियां कारण ,
उत्पत्ति-विनाश ,अनित्य-क्षणिक
जिसको विज्ञ हैं करते धारण।
अतः इसे अनित्य जानकर ,
सहन करो इसे नित्य मानकर ।

इंद्रियां और विषय-वासना ,
सुख-दुख का प्रभाव न होता ,
शांत चित्त निर्लिप्त बना वह ,
मोक्ष योग्य नर वह है होता ।

असत् वस्तु की सत्ता ना होती ,
सत् का ना होता अभाव ,
तत्त्वज्ञानी इसे तत्त्व से देखे ,
अज्ञानी का उल्टा भाव।

नाश रहित आत्मा तू जान ,
पूर्ण जगत सर्वत्र तू मान ,
इस अविनाशी के विनाश को ,
नहीं कोई समर्थ है जान ।

अविनाशी , अप्रेमय , शाश्वत
आत्मा के सब भौतिक तन
नाशवान है जानो अर्जुन ,
अतः युद्ध में रतकर मन।
(अप्रेमय = न मापने योग्य )

मूरख जन प्रायः अर्जुन सुन ,
इसका वध और मरा समझते ,
अमर अवध यह ब्रह्मांश है ,
वास्तव में वे नहीं जानते ।

नहीं जन्म ले ,नहीं मरण हो ,
ना पैदा होता , नहीं मरता,
नित्य सनातन अज पुरातन ,
मरता तन पर यह नहीं मरता।

नाश रहित नित्य अजन्मा ,
व अव्यय जो  इसको माने ,
नहीं मार सकता ,मरवाता ,
इसी तत्त्व को है जो जाने ।

जीर्ण वस्त्र को छोड़कर जन तन ,
नया वस्त्र को धरता जैसे ,
जीर्ण शरीर को त्याग जीवात्मा ,
नया देह में जाता वैसे ।

शस्त्र न काटे ,जल न गलाए ,
नहीं जलाती इसको आग ,
नहीं सुखाए इसको वायु ,
नहीं किसी का लगता दाग ।

यह आत्मा अच्छेद्य ,अशोष्य ,
अदाह्य , स्थिर  और अचल ,
सर्वव्यापी और नित्य सनातन ,
अघुलनशील और निर्मल ।

यह आत्मा अव्यक्त ,अचिंत्य ,
मल रहित और निर्मल जानो ,
जैसा वर्णन ऊपर आया ,
उसको भली-भांति पहचानो ,
अतः शोक नहीं कर तू भाई,
शोक बहुत ही है दुखदाई ।

अगर इस आत्मा को तुम अर्जुन,
सदा जन्मने वाला माने ,
इसकी मृत्यु भी होती है
ऐसा तेरा मन है जाने ,
तो भी शोक नहीं कर भाई ,
शोक बहुत ही है दुखदाई।

जो जन्में मृत्यु है निश्चित ,
मरे हुए का जन्म है निश्चित ,
अपरिहार्य यह विषय तू जानो ,
इस पर शोक व्यर्थ है मानो।
( अपरिहार्य = अवश्यंभावी )

जन्म से पहले सब प्रकट नहीं ,
मरने पर भी सब अप्रकट ,
जन्म मरण के बीच ही अर्जुन,
सभी प्राणी रहता है प्रकट ,
जब ऐसी स्थिति है यार ,
इस पर चिंता है बेकार।

कुछ इसको आश्चर्य से देखें ,
कुछ इसको आश्चर्य से सुने ,
कुछ तत्त्व से कहते इसको ,
कुछ सुनकर न माने इसको।

नित्य अवध सदा यह आत्मा ,
जो है रहता सब के तन में ,
सब भूतों के लिए अतः तू
शोक नहीं कर अपने मन में।

तू है क्षत्री युद्ध धर्म है ,
और न दूजा कर्म है तेरा,
अतः नहीं भयभीत हो अर्जुन ,
नहीं शोक का कर्म है तेरा ।

ऐसा युद्ध के अवसर पाते ,
भाग्यवान क्षत्री सुन अर्जुन ,
सुलभ स्वर्ग उनको होता है,
अतः इसे लड़ो सुन अर्जुन।

धर्म युक्त इस युद्ध को ,
तू यदि नहीं करेगा ,
धर्म और कृति को खोकर ,
बहुत बड़ा पाप करेगा।

बहुत काल तक कथन करेंगे ,
अपयश तेरा भू के सब जन ,
अपयश मृत्यु सा है उनको ,
जो है मानित सम्मानित जन।

युद्ध नहीं करने से अर्जुन ,
कायर में गिना जाएगा ,
जिनकी नजरों में शूरवीर है,
उन नजरों से गिर जाएगा ,
सभी तुझे कायर कहेंगे ,
निर्बल नर तुझे बतलाएगें ।

बैरी जन निंदा करेंगे ,
अकथनीय वचन कहेंगे ,
जिससे तू दुख प्राप्त करेगा ,
अपनी शांति नष्ट करेगा।

अत: युद्ध कर हे तू अर्जुन !
मरने पर भी स्वर्ग धरेगा ,
अगर जीता संग्राम तू अर्जुन ,
धारा के तू राज्य करेगा ।

जय- पराजय , लाभ -हानि व
सुख- दुख को तू ,
एक समान समझकर के अब
युद्ध करो तू ,
इस प्रकार पापी जन में तू
नहीं आएगा ,
पराक्रमी शूरवीर उत्तम जन में
गिना जाएगा ।

ज्ञान योग का विषय बताया,
कर्म योग का अब सुन अर्जुन ,
गर इस पर तू ध्यान करेगा ,
कर्म का बंधन नहीं धरेगा ।

इस कर्म योग प्रयास में ,
नहीं ह्रास नहीं हानि होती ,
अल्प प्रगति भी मंगलमय ,
सभी भय से रक्षा करती ।

दृढ़ प्रतिज्ञ होते कर्मयोगी ,
लक्ष्य भी उनका निश्चित होता ,
ज्ञानहीन का लक्ष्य अस्थिर ,
कर्म अनिश्चित उनका होता ,
जब पाते अवसर वो जैसा ,
कर्म मर्म बदलते वैसे ।
         अथवा
स्थिर बुद्धि व्यवसायी की ,
कर्मक भी कहा यह जाता ,
इनका लक्ष्य भी एक है होता,
नहीं समय यह व्यर्थ में खोता ,
अकर्मक व अव्यवसायी का ,
कोई नहीं लक्ष्य है होता ,
अस्थिर चंचल वह है रहता ,
सदा कलह व द्वेश है करता।

अलंकारिक वेद शब्दो में ,
अज्ञानी है भटका करते ,
स्वर्ग की प्राप्ति हेतु अच्छे जन,
प्रभुसत्ता हेतु कर्म हैं करते ,
इंद्रिय तृप्ति, ऐश्वर्य इत्यादि
हेतु जो जीवन गंवाते ,
अपने को सर्वज्ञ बताते ,
अंत आने पर है पछताते ।
अस्थिर जन इनको जानो ,
त्याज हैं ए ऐसा तू मानो ।

इंद्रिय भोग ,भौतिक ऐश्वर्य में ,
अत्याधिक लिप्त जो होते ,
इसके मोह में भटका करते ,
परम ब्रह्म को प्राप्त न करते ।

प्रकृति के तीनों गुणों का ,
वेदो में वर्णन है जानो ,
इन तीनों से ऊपर उठकर
अभय बनो सत्य पहचानो ,
लाभ सुरक्षा की चिंताओं
से अपने को मुक्त बनाओ,
द्वैत- अद्वैत का अंतर जानो ,
आत्म परायणता को पहचानो।
( द्वैत अद्वैत = ज्ञान अज्ञान )

बड़ा जलाशय के रहने पर,
कूप भी उपयोगी है जैसे ,
ब्रह्म को तत्व से जानने वाला,
वेदों को भी जाने वैसे ।

सिर्फ कर्म अधिकार तुम्हारा ,
कर्म-फल चिंतक है हारा ,
कर्म-फल भय करे अकर्मक,
हारा नहीं है कोई कर्मक ।

पहले आसक्ति को त्यागो ,
सिद्धि असिद्धि में हो सम  ,
कर्म योगी बन कर्म करोगे ,
समत्व योग का पद पाओगे ।

गर्हित कर्म से दूर रहो तुम ,
गर्हित कर्म त्याज है जानो ,
ज्ञान योग का आश्रय लेकर
किया कर्म को उत्तम मानो,
सिर्फ कर्म फल की आशा में ,
उत्कट इच्छा अभिलाषा में ,
बिना विचारे जो करता है,
नीच कृपण का पद धरता है ।
( गर्हित = निंदनीय )

सम बुद्धि से युक्त  विज्ञ जन ,
इसी लोक में मुक्त हो जाता ,
पाप-पुण्य ,उत्तम व अधम
कर्म नहीं उसको भरमाता ,
अतः समत्व योग है उत्तम ,
अपनाओ यह है सर्वोत्तम ।

बुद्धि युक्त ज्ञानी जन अर्जुन ,
कर्मफल पर ध्यान न देते ,
कर्म को करते, कर्म में जीते ,
जन्म बंधन से मुक्ति पाते ,
निश्चित परम पद पा जाते ,
सभी शास्त्र ए सीख  सिखाते ।

मोह रूपी दलदल को अर्जुन ,
ज्योंहि बुद्धि पार करेगी ,
भूत भविष्य परलोक की
सब भोगों को भूल जाएगी,
बैरागी खुद बन जाओगे,
नहीं कर्म पर पछताओगे ।

नाना ढंग के वचनों द्वारा
विचलित हुई है जो बुद्धि ,
परमात्मा में स्थिर होगी
सज्ञ कहेंगे तुमको योगी ।

केशव से तब पूछा पार्थ
स्थिर बुद्धि क्या है नाथ ?
लक्षण स्थिर बुद्धि क्या ?
कृपा कर इसे करें बयां ,
स्थिर बुद्धि जन बोलते कैसे ?
स्थिर बुद्धि जन चलते कैसे ?
कैसे बैठते समाधिस्थ हो ?
परमात्मा को भेजते कैसे ?

अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो वीर ए ज्ञान महान ,
मन कामना को त्यागे जो ,
स्थिर प्रज्ञ कहलाता  वो ,
अपने आप में जो संतुष्ट ,
आत्मा से आत्मा में तुष्ट ,
सभी काल यह ज्ञान बताता ,
स्थिर जन है यह कहलाता ।

दुख आने पर ना घबराए ,
सुख पाने पर न इतराए ,
राग क्रोध भयहीन है जो ,
स्थिर जन कहलाता सो ।

शुभ में खुशी ,न अशुभ में द्वेष ,
निर्लिप्त सा रखता भेष ,
सब में ए जन उत्तम आता,
स्थिर ज्ञानी ए कहलाता।

सब अंगों को समेट के कछुआ ,
आसपास से स्थिर जैसे,
इंद्रियों को विषयों से दूर
मानव कर लेता जब वैसे ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाता,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता ।

इंद्रिय भोग से निवृत्त होकर
इसकी इच्छा तब भी रहती ,
जिससे मानव मुक्त न होता,
आसक्ति आकर है धरती ,
अध्यात्म मुक्ति दिलाता ,
परमात्मा का पथ दिखलाता ।

आसक्ति अविनाशी अर्जुन ,
इंद्रियां इस हेतु प्रबल ,
वेगवान इतनी है अर्जुन ,
रोक नहीं सकता कोई बल ,
जिससे मन को हर ले जाती ,
ज्ञानी को भी यह भरमाती।

सब इंद्रियों को वश करके ,
मुझको समाहित चित्त जपता ,
इंद्रजीत वह ध्यान में बैठे
अपने मन को स्थिर करता ,
स्थिर बुद्धि वह कहलाता ,
ऐसा ही सब शास्त्र बताता।

विषयों का चिंतन मोह आसक्ति ,
आसक्ति कर्म कामना उपजाता ,
क्रोध भयंकर प्रकट है होता ,
कामना में जब विघ्न है आता ।

क्रोध से मूढ़ बुद्धि है आती ,
इससे स्मृति खो जाती ,
जिससे भ्रम में नर पड़ जाता ,
बुद्धि ज्ञान नष्ट हो जाता ।

अंतःकरण जिनके अधीन ,
राग द्वेष से है वह हीन ,
मन प्रसन्नता प्राप्त है करता ,
सदा आनंद में विचरण करता ।

अंतःकरण प्रसन्न जब होता ,
सब दुखों का हो अभाव,
बुद्धि शुद्ध निर्मल बन जाती,
जिस जन का ऐसा सुभाव ,
परम ब्रह्म को खुद पा जाता ,
सभी विज्ञ यह भेद बताता ।

मन इंद्रियां अजीत जिनका ,
स्थिर बुद्धि है नहीं पाते ,
अंतः करण भावहीन होता ,
ऐसा जन नहीं शांति पाते ,
शांतिहीन कभी सुख नहीं पाए ,
सभी विज्ञ यह भेद बताए ।

जल पर जाती सुंदर नौका ,
वायु दूर बहा ले जाती ,
विषय युक्त गर एक भी इंद्री ,
मन को विचलित है कर जाती ,
मानव मन जब व्यग्र हो जाता ,
अपनी बुद्धि को खो जाता ।

विषयों से इंद्रियां जिनका
दूर है , मन निग्रह है उनका ,
स्थिर बुद्धि जन कहलाते ,
सभी विज्ञ यह भेद बताते।

सोता जब सब जीव जगत का,
संयमी जागे रहते इसमें ,
जागे जब सब जीव जगत का ,
संयमी सोते रहते उसमें ।

नाना नदियों से जल पाकर ,
सागर स्थिर रहता जैसे ,
इच्छाओं के प्रचंड प्रहार से
विज्ञ अविचलित रहते वैसे ,
परम शांति को पाते ये जन ,
न अशांति टिक पाती मन ।

कामना हीन और इच्छा हीन
और अहंकार से वंचित जो जन ,
ममता न प्रभाव दिखाती ,
परम शांति को पाए सो मन ।

आध्यात्मिक जीवन का यह पथ
ईश्वरीय भी है कहलाता ,
नहीं मोह प्रभावित करता
जो इस मार्ग को है पा जाता ,
जीवन का अंतिम जब आता,
इस पथ से जो मानव जाता ,
परमानंद को प्राप्त हो जाता ,
ऐसा ही सब विज्ञ बताता।

*******अध्याय दूसरा समाप्त ************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 7 मई 2022

गुणी पुरुषों का लक्षण





इंजीनियर पशुपति की नजर में गुणी पुरुष


कविता
गुणी पुरुषों के लक्षण
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

गुणी पुरुषों का देश नहीं ,
आज कहीं बसे , कल कहीं चले ,
विद्या आदर विश्वास मिले ,
ये बिना बुलाए वहां चले।

जहां नहीं उपरोक्त बातें,
ए बिना कहे वहां से टले,
जहां पर घोर अपमान मिले,
बिन आग के स्वयं जले ।

जहां करूणा सौहार्द मिले,
ए मोम बनें वहां पर गले,
जहां सज्जन विद्वान मिले,
बिना भोजन वहां पे पले।

जहां सौंदर्य मधुरता हो,
बिन साधन वहां पे फले,
जहां सभ्यता अनुशासन,
ए अपना नियम भी बदले।

जहां दुष्ट , शठ , धूर्त , चोर,
वहां नहला पे बने दहले ,
जहां अंतरंग मित्रता हो ,
वहां ए जाते हैं पहले।

दीनों हेतु ए दीनबंधु ,
जनकल्याण धर्म इनका ,
परोपकार दिनचर्या है ,
अपना फिक्र नहीं जिनका।

उन्नत समाज बनता इनसे ,
ए हैं रक्षक मानवता का ,
अनुसंधान सब इनकी देन,
ए वैरी हैं दानवता का।

इनका आदर और सम्मान,
करना चाहिए हम जन को ,
सब विकसित है इनके कारण,
नहीं जा पाये पतन को।
**********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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चुगलखोर ( व्यंग्य )

 

कान में दूसरे की चुगली करते लेडी


चुगलखोर को तंग करते बच्चे


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           व्यंग्य
  ** चुगलखोर **
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लेखक - इंजीनियर पशुपति नाथ प्रसाद
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इतिहास -
आज तक वैज्ञानिकों ने बहुत सा तत्वों की खोज की है , लेकिन मैंने एक ऐसा तत्व खोजा है जिसे  चुगलखोर कहते हैं । इनके निम्नलिखित गुणों तथा अणु संरचना के आधार पर आवर्त सारणी ( Periodic Table ) के अधातु वर्ग में रखा गया है ।

उपस्थिति ( Occurrence ) -- सामाजिक वातावरण में ये मुक्तावस्था में  नहीं के बराबर पाये जाते हैं । लेकिन कमरा के तापक्रम और साधारण दाब व छद्म वेश में ये प्रत्येक समाज , सभा , भीड़ , जाति , काल तथा संसार के हरेक कोना में समान प्रकृति , कर्म एवं कार्यक्रम में रत मिलते हैं । किसी अक्षांश और देशांतर की रोक नहीं ।

अयस्क ( Ore ) --
यों तो इनके बहुत से अयस्क हैं , लेकिन कुछ महत्वपूर्ण अयस्क निम्नलिखित हैं जो पाठकों के ज्ञानवर्धन हेतु दिया जा रहा है ।--
1. वह व्यक्ति या समाज जो ऊँच महत्वाकांक्षा रखता हो , लेकिन योग्यता अल्प हो । यानी अल्प योग्यता संग ऊँच चाहत ।
२. आलसी व्यक्तियों में ।
3. ईर्ष्यालु एवं डाही में ।
4. भाग्यहीन तथा अभागा वगैरह ।

इनके उत्पादन की अन्य विधियाँ --
1. ऊँच आकांक्षा अल्प योग्यता के संग संयोग कर  चुगलखोर को जन्म देती है ।-
समीकरण -
ऊँच आकांक्षा + अल्प योग्यता = चुगलखोर
2 . असफल व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा/यश की रक्षा मे  चुगलखोर में वदल जाता है । -
समीकरण -
असफल व्यक्ति + प्रतिष्ठा / यश = चुगलखोर
3. सिर्फ साधारण तापक्रम एवं दाब यानी कमरा के तापक्रम एवं दाब  पर अभागा / भाग्यहीन चुगलखोर में परिवर्तित हो जाता है ।-
समीकरण -
अभागा / भाग्यहीन ----35° सी ( c ) ---> चुगलखोर

प्रयोगशाला विधि -
साधारण तापक्रम एवं दाब ( सा . ता . दा . ) पर तथा दुर्बल एवं कमजोर प्रशासन की उपस्थिति में ईर्ष्या एवं द्वेष से व्यक्ति सरलता से प्रतिक्रिया कर जाता है तथा प्रतिक्रिया के फलस्वरूप शुद्ध रूप में चुगलखोर की प्राप्ति होती है । यहाँ दुर्बल तथा कमजोर प्रशासन उत्प्रेरक का काम करता है ।-
समीकरण -
व्यक्ति + ईर्ष्या / द्वेश + कमजोर एवं दुर्बल प्रशासन = चुगलखोर

सावधानियाँ -
इन्हे बनाते समय निम्नलिखित सावधानियों पर ध्यान रखना चाहिए । जैसे -
1. कमरा बिलकुल बंद हो यानी एयर टाइट ( air tight )।
2. व्यक्ति दुश्मन का दुश्मन होना चाहिए ।
3. प्रशासन दुर्बल तथा भ्रष्ट हो। तथा समाज द्वेषी एवं ईर्ष्यालु वगैरह ।

भौतिक गुण -
1. ये समाजहीन , प्रभावहीन , गुणहीन तथा लोभयुक्त तत्व हैं ।
2. समाज नामक घोलक में ये बिलकुल अघुलनशील हैं ।
3. ऊँच तापक्रम तथा दाब पर इनका बहुत अल्प मात्रा समाज नामक घोलक में घुलता है ।
4. इनका बहुरूप ( alltrope ) समाज में व्याप्त है , तथा अपने कर्मों से समाज में अराजकता पैदा करता रहता है । यानी समाज के लिए ये बड़ा ही हानिकारक होते हैं । झगड़ा की जड़ वगैरह ।

रसायनिक गुण -
1. अपने ईर्षायलु एवं द्वेशी गुणों के कारण ये स्वयं जलनशील हैं , तथा जलन के पोषक भी ।
2. विकाश तथा प्रगति के ये कट्टर दुश्मन हैं ।

3. अम्ल से प्रतिक्रिया ---
एक अम्ल जिसे ठिठोली कहते है , इसके साथ ये तेजी से प्रतिक्रिया करते हैं तथा गाली गलौज नामक यौगिक की संरचना करते हैं ।
समीकरण -
चुगलखोर + ठिठोली = गाली गलौज

4. क्षार से प्रतिक्रिया ---
साधारण तापक्रम तथा दाब पर एक क्षार जिसे व्यंग्य कहते हैं जिसके साथ ये तेजी से प्रतिक्रिया कर झगड़ा , फसाद , खून खराबा इत्यादि जटिल यौगिक का निर्माण करते हैं । तथा इस जटिल यौगिक का उपयोग प्राय: समाज के विनाश में होता है ।
समीकरण -
चुगलखोर + व्यंग्य = झगड़ा , फसाद इत्यादि
5. सधारण ताप और दाब पर जगह 2 घूम 2 कर ये अपना बहुरूप तैयार करने की कोशिश करते रहते हैं ।

अणु संरचना  ( atomic structure ) ---
इनका न्यूक्लिअस ( nucleus ) थोड़ा ढक होता है , तथा बाहरी कक्षा ( outer most orbit ) में शून्य इलेक्ट्रोन ( electron ) रहता है , यानी इनका कोई मित्र साथी नहीं होता , किसी पर ये विश्वास नहीं करते , न कोई इन पर विश्वास करता है ।
   ये धैर्यहीन तत्व हैं । अशांति , अर्थहीन व्यस्तता इनका प्रमुख लक्षण हैं , यानी प्रटोन , न्यूट्रोन वगैरह ।

पहचान -
1. ये समाज में प्रकट अथवा स्वतंत्र रूप में नहीं पाये जाते । ये सदा गुप्त रूप तथा छद्म वेश में रहते हैं तथा मिलते हैं ।
2  ये चापलूस , लोभी , चुगली तथा कलहकारी प्रकृति के तत्व हैं ।

इनका व्यवहारिक उपयोग तथा भौतिक सार्थकता --
1. समाज , देश , राज्य , परिवार एवं व्यक्ति के विनाश , कलह इत्यादि  में ।
2. राजनीतिज्ञों , नेताओं तथा चतुरजनों के हथियार के रूप में वगैरह ।

******     ****** समाप्त     ******       ******     
    
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शुक्रवार, 6 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 1 )

 

विषाद में अर्जुन

शंख बजाते कृष्ण और अर्जुन


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय १
महाभारत युद्ध स्थल पर सैन्य निरीक्षण के बाद अर्जुन के मन में उपजा विषाद
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

कुरूक्षेत्र  के धर्म भूमि में
युद्ध कामना वाले ,
मेरे और पांडू पुत्र जो
दिख रहे मतवाले ,
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय !
अपना मुंह तू खोलो ,
जो जो देख रहे हो
उसको सत्य सत्य तुम बोलो ।

संजय उवाच -
व्यूह युक्त पांडव सेना को
देखा दुर्योधन ,
द्रोणाचार्य के निकट में जाकर ,
अपना मुंह खोला ,
मन ही मन में सोच समझकर ,
सुने हे राजन !
गुरु द्रोण से अति विनम्र हो ,
ये बातें बोला -

सुने धीर आचार्य महान ,
द्रुपद पुत्र दिखे बुद्धिमान ,
पांडू सेना में डाला प्राण ,
शिष्य आपका कहे जहान ।

इस सेना में बहुत सा वीर
अर्जुन भीम सा दिखता धीर ,
महारथी द्रुपद विराट ,
ययुधान लगते सम्राट ।

पुरुजित व काशीराज ,
धृष्टकेतु व शैव्य सिरताज ,
कुंतीभोज और चेकितान ,
दिखे सभी योद्धा महान ।

युधामन्यु ,उतमौजा वीर ,
पुत्र सुभद्रा दिखते धीर ,
द्रोपदी सूत सब हैं बलवान ,
महारथी सब हैं बुद्धिमान ।

ब्राह्मण श्रेष्ठ सुने आचार्य ,
अपने पक्ष में जो हैं आर्य ,
सेनापति और प्रधान ,
उसे सुनाएं सुने श्रीमान ।

अश्वत्थामा और कृपाचार्य ,
कर्ण , विकर्ण और  खुद आचार्य ,
भीष्म पितामह दादा तुल्य ,
भूरिश्रवा सब शिव त्रिशूल ।

और बहुत से वीर महान ,
अस्त्र-शस्त्र में हैं विद्वान ,
युद्ध हेतु सब हैं निडर ,
नहीं मृत्यु का तनिक भी डर।

है मेरी सेना सबल ,
जिसे पितामह देते बल ,
पांडु सेना है निर्बल
भीम चाहे दे कितना बल।

एक निवेदन है श्रीमान ,
सब मोर्चा का वीर जवान ,
रखें पितामह का ही ध्यान ,
इनकी रक्षा जीत सुजान ।

पितामह प्रतापी भीष्म ,
सब में वृद्ध  सब तरह समृद्ध ,
शंख बजा किया चिग्घाड़ ,
जैसे सिंह करे दहाड़ ,
हर्ष हुआ दुर्योधन वीर ,
पांडू सेना हुई अधीर ।

शंख मृदंग और ढोल नगाड़े ,
नरसिंघें बाजे अब बाजा ,
शव्द भयंकर हुआ समर में ,
हे राजन ! यह हाल है ताजा ।

शुभ्र अश्व युक्त उत्तम रथ में ,
अर्जुन कृष्ण ने यह सब देखा ,
अपना अपना शंख बजाकर ,
क्या प्रभाव हुआ यह पेखा ।

पांचजन्य श्री कृष्ण बजाया ,
शंख देवदत्त अर्जुन धीर ,
पांडू महाशंख को लेकर
फूंका भीमसेन गंभीर ।

अनंतविजय राजा युधिष्ठिर ,
सुघोष  फूंक दिया नकुल ,
मणिपुष्पक सहदेव बजाया ,
हुआ दुर्योधन सुन आकुल ।

काशीराज, शिखंडी आदि ,
धुष्टधुम्र , विराट इत्यादि ,
अभिमन्यु , सात्यकि , द्रुपद अब ,
पांच पुत्र द्रोपदी मिलकर सब ,
अपना-अपना शंख बजाए ,
घोर ध्वनि चहु ओर छितराए ।

नभ , पृथ्वी और दसों दिशाएं
शब्द भयंकर से हैं छाए ,
दुर्योधन ,दुशासन आदि ,
सैन्य सभी आदि इत्यादि ,
आकुल व्याकुल दिखता मुझको ,
ताजा हाल सुनाया तुझको ।

कपिध्वज रथ पर अर्जुन ने
भली-भांति सेना को देखा ,
चारों दिशाएं सब संबंधी
धनुष उठा कर फिर वह पेखा ,
दोनों सेनाओं के बीच में
खड़ा करें रथ को श्रीमान ,
विनय भाव से श्री कृष्ण से
बोला अर्जुन वीर महान ।

किन-किन के संग युद्ध है करना
भली-भांति देख लूं न जब तक ,
नम्र निवेदन करता माधव
कृपा कर रखें रथ तब तक ।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का जयघोष मनाने
जो जो नृप लोग हैं आए ,
आवश्यक अवलोकन उनका
माधव से अर्जुन बतलाए।

संजय उवाच -
भीष्म , द्रोण संपूर्ण राजाओं
के समक्ष रथ को है लाकर ,
उत्तम रथ को खड़ा किया है 
दोनों सेनाओं बीच आकर  ,
अर्जुन से बोला भगवान ,
भली भांति परखो सुजान ।

ताऊ, चाचा , भ्रताओं को ,
दादा , परदादाओं को ,
गुरुओं को , मित्रों को परखो ,
पुत्रों को , मामाओं को ,
पौत्रों को ,ससुरों को परखो ,
सुहृदयों का हृदय निरखो ।

इन सज्जनों को निरख के अर्जुन ,
आकुल व्याकुल होकर बोला ,
शोक संतप्त हृदय युक्त अर्जुन
केशव से अपना मुंह खोला -
सुने कृष्ण रूपी भगवान ,
इन स्वजनों को देख श्रीमान ,
मेरे अंदर का वर्तमान ,
तन मन मस्तक प्रधान ।

धधक रहा अग्नि में तात ,
सूख रहा मुख देखें आप ,
शिथिलता छा रही है धीर ,
कांप रहा है पूर्ण शरीर ।

गिर रहा गांडीव हाथ से ,
धधक रही त्वचा में आग ,
नहीं खड़ा रहने की शक्ति ,
मन में भ्रम और विराग ।

उल्टा लक्षण देख रहा हूं ,
नहीं दिखता है कल्याण ,
स्वजन मारकर क्या पाऊंगा,
बोला अर्जुन वीर महान ।

नहीं विजय की चाहत मेरी ,
नहीं सूख और ऐसा राज ,
नहीं भोग और जीवन ऐसा ,
लेकर क्या होगा सिरताज ।

सुख भोग और यह राज ,
जिनके लिए अभीष्ट है धीर ,
धन जीवन कर त्याग युद्ध में
लड़ने को उद्यत सुधीर ।

गुरु , पिता और पुत्र ,पितामह ,
पौत्र , ससुर ,मामा व साला ,
भिन्न-भिन्न संबंधी देखके
उठ रही है मन में ज्वाला ।

इस धरती की है क्या विसात ,
आ जाए अगर त्रिलोक हाथ ,
इनका बध तब भी उचित नहीं ,
मेरा मंतव्य सुने श्रीनाथ ।

धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को ,
मार केशव क्या पाएंगे ,
इन दुष्टों को मार युद्ध में ,
नरहंता कहलाएंगे ।

योग्य नहीं पता हूं खुद को
धृतराष्ट्र के पुत्र वध को ,
अपने कुटुंब मारकर माधव
नहीं चाहता हूं मैं सुख को।

भ्रष्ट चित्त लोभी कुलनाशक ,
मित्र द्रोही हैं ये पापी जन ,
इनसे बचने हेतु माधव ,
क्यों न विचारे हम साधु जन ।

कुल नाश से कुल धर्म ही
नष्ट हो जाता ,
कुल धर्म ना रहा कुल में
पाप फैलाता ।

पाप बढ़ा कुल की त्रिया
दूषित हो जाती है ,
दूषित त्रिया ही वर्णसंकर
को जन्माती ।

वर्णसंकर कुल घात करें
और नरक ले जाए,
इनके कर्म धर्म से
पूर्वज ही गिर जाए ।

वर्णसंकर कारक दोष हैं
ये कहलाते ,
ऐसे पापों के कारण से
पापी आते ,
कुल धर्म और जाति धर्म
और धर्म सनातन नष्ट हो जाते ।

कुल धर्म नष्ट है जिनका ,
नर्क वास होता है उनका ,
बहुत काल तक कष्ट हैं करते ,
यहां अनिश्चित सा बन रहते ।

सब कहते मुझको विद्वान ,
कर रहा हूं पाप महान ,
राज्य सुख के लोभ में रत हूं ,
स्वजन वध हेतु उद्यत हूं ।

शस्त्रधारी धृतराष्ट्र पुत्र प्रभु !
मार डाले यदि मुझको रण में ,
तो भी मंगलमय मैं मानू ,
तनिक भय नहीं मेरे मन में।

संजय उवाच -
ऐसा कहके धनुष बाण छोड़
शोक युक्त मतवाला ,
पार्श्व भाग में रथ के अंदर
जा बैठा बलवाला।
********* प्रथम अध्याय समाप्त **********

नोट - यह पोस्ट मेरी स्वरचित पुस्तक " गीता काव्यानुवाद " से प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह से सभी १८ अध्याय प्रस्तुत किया जाएगा। अवश्य पढ़ें।
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , बेतिया ,बिहार ,भारत 845453
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चाणक्य नीति काव्यानुवाद पुस्तक समीक्षा

  पुस्तक समीक्षा

चाणक्य नीति काव्यानुवाद पुस्तक का संक्षिप्त परिचय

यह पुस्तक " चाणक्य नीति , काव्यानुवाद " महर्षि चाणक्य रचित " कौटिल्य अर्थशास्त्र " से लिया गया      " चाणक्य नीति " पुस्तक का हिंदी में सरल और सटीक काव्यानुवाद है । सरल कविता में होने से इसे याद रखना सहज  होगा ,क्योंकि गद्य याद रखने से पद्य याद रखना सरल होता है । इसके अलावां यह गेय भी है।
इसमें १७ अध्याय है जो ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म , जीवन शैली , आचार-विचार ,  कर्तव्य-अकर्तव्य , सफलता-असफलता , नीति , कुटनीति , राजनीति आदि पर प्रकाश डालता है। जैसे--

जहां निरादर , न जीविका हो ,
न लाभ विद्या ,न भाई बंधु ।
वहां कदापि क्षण नहीं रहना ,
रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।। अध्याय - १ से ।।

जो निश्चित को छोड़ जगत में ,
अनिश्चित की ओर है जाता ।
निश्चित बन जाता  अनिश्चित ,
अनिश्चित कब का है निश्चित ।। अ. १ से ।।

बिगाड़े परोक्ष जो बंदा कर्म को ,
सुनाए प्रत्यक्ष वह मीठे वचन को ।
तजो ऐसी यारी विष अंदर भरा हो ,
घड़ा मुख पर जैसे अमृत धरा हो।। अ. २ से ।।

दुर्जन सर्प में चुनो सर्प को ,
काटे सर्प काल के आने पर ।
चुनो न दुर्जन , दुर्जन नहीं जन ,
दुर्जन डसता हर पग पग पर ।। अ. ३ से ।।

पर अधिकार से धन छिन जाता ,
आलस से नहीं विद्या आती ।
कमी बीज की नाशे खेती ,
बिन नायक सेना मर जाती ।। अ. ५ से ।।

जहां धन है मित्र बहुत हैं ,
बहुत हैं बंधु धनी अगर जन ।
जो है धनी कहाये पंडित,
श्रेष्ठ गिनाए जिसको है धन ।। अ. ८ से ।।

धनहीन नहीं कहाये निर्धन ,
विद्याहीन सदा ही निर्धन ।
धनहीन निर्धन नहीं गिनाता ,
विद्याहीन जनों में निर्जन  ।। अ. १० से ।।

न साधुता आती दुर्जन में ,
शिक्षण दो कितना ही भांति ।
सींचों पय से अथवा घी से ,
नीम न पाये मधु की पांती ।। अ. ११ से ।।

राजा धर्मी प्रजा धर्मी ,
पापी राजा प्रजा हो पापी ।
राजा सम तो प्रजा सम हो ,
राजा गुण अपनाती प्रजा ।
अत: राजा से बनती प्रजा ,
जैसा राजा वैसी प्रजा ।। अ. १३ से ।।

दूर न दूरी करती उसको,
जो बसता है मन के अंदर ।
निकट नहीं भी निकट के वासी ,
गर मन उससे करता अंतर ।। अ. १४ से ।।

मीठे वचन संतुष्टि है जन की ,
बोलो इसे क्या कमी है वचन की ।। अ. १६ से ।।

निर्बल जन साधु बनता है ,
निर्धन बनता है ब्रह्मचारी ।
दुखी देव भक्त बनता है ,
पतिव्रता बने बूढ़ी नारी ।। अ. १७ से ।।

अगर ज्ञानी जनों को मेरा यह तुच्छ प्रयास पसंद आये तो मेरा मेहनत और जीवन सार्थक हो जाय । त्रुटियों के लिए क्षमापार्थी हूं । ज्ञानी और पाठक जनों से सुझाव सादर आमंत्रित है ।
धन्यवाद

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अनुसंधानशाला , रोआरी ,
प. चम्पारण , बिहार , भारत
पिन 845453
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गुरुवार, 5 मई 2022

विचार ( भाग २ )

अनुसंधानशाला से विचार भाग 2 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद 




कोटेशन
विचार ( २ )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


** जिस प्रकार कच्चा फल खाद्य नहीं , उसी प्रकार कच्चा विचार ग्राह्य नहीं । जिस प्रकार पका फल खाद्य है , तृप्तिदायक है , उसी प्रकार परिपक्व विचार ग्राह्य है , फलदायक है । **

** परिपक्व विचार कल्याण कारक है तथा अपरिपक्व इसके विपरीत । **

** ब्रह्म परिपक्व विचार दायक है तथा ब्रह्मांड इसका पालक । **

** बन्द वक्र पर परिक्रमा करते जीव के लिए आदि और अंत एक ही बिन्दु है । तथा अनंत , निरंतर परिक्रमा । **

** असमर्थ की समस्या समर्थ के लिए आम ( साधारण ) बात है । जिसका निदान समर्थ ही कर सकता है , असमर्थ नहीं । 
       ठीक इसके विपरीत समर्थ की प्रत्येक घटना असमर्थ के लिए महत्वपूर्ण और मार्ग दर्शक बन जाती है । अतैव समर्थ को काफी सावधान एवं चौकस रहना चाहिए । **

** दुष्ट चाहे जितना प्रबल हो , उसकी प्रबल से प्रबल दुष्टता साधु के लिए रुकावट बन सकती है क्षण मात्र के लिए , सदा के लिए नहीं । **

** दुष्ट की दुष्टता नाग का वह विष है जो शिव के लिए अमृत है , लेकिन आम जीवन के लिए मौत है । **

* जिनका साथी अच्छी पुस्तकें हो उन्हे दूसरो का मार्ग दर्शन की जरूरत नहीं । तथा जो स्वयं  का साथी हो उन्हे किसी की जरूरत नहीं । **

** मधुमक्खी जैसे हजार जगहों से सत निकाल कर मधु बनाती है , वैसे ही गुणी समग्र विश्व से सत्व निकाल कर गुण , विचार , ज्ञान वगैरह । **

** धातु समय के साथ अपनी चमक खोती है । सोना समय के साथ अपनी चमक कायम रखता है । परंतु गुण समय के साथ और परिपक्व होता है । **

** बहिश्त में पैगम्बर ने खुदा से कहा , ठीक उसी समय स्वर्ग में भक्त ने भगवान से कहा , ठीक उसी समय देवदूत ने ईश्वर से कहा , ठीक उसी समय पृथ्वी पर हैवान ने इन्सान से कहा -- " अयोध्या की बाबरी मस्जिद टूट गयी " -- सबका जवाब था  -- " यदि हमारा वश चले तो संसार के सभी मंदिर , मस्जिद , गिरजा , गुरूद्वरा तोड़कर एक कर दें । **

** समय पर काम आये वही स्वजन है । तथा जिनके कारण आत्मा तकलीफ में हो वही दुर्जन है । **

** उर्जा का रूपांतर एवं स्थानान्तरण ने प्रकृति पैदा की ; प्रकृति ने ब्रह्म , ग्रह और नक्षत्र इत्यादि ; ब्रह्म , ग्रह और नक्षत्र ने जीव ; जीव ने पुन्यात्मा और दुरात्मा ; और ये दोनो कमश: मनुज एवं दनुज ; तथा मनुज और दनुज ने सभ्यता , असभ्यता , देश , समाज इत्यादि ।
      ये सृष्टि का क्रम है । **

** दुर्जन अपनी दुर्जनाता से कभी नहीं थकता । उसका मुख्य कर्म सज्जन को तकलीफ देना ही है । क्योकि दुर्विचार का लक्ष्य एक ही होता है , और वह है विनाश । अतैव दुर्जनों में एका सज्जनों की तुलना में सरल है । विद्वानो में मतभेद होता है , क्योकि ज्ञान अनेक है ।
    लेकिन दुर्जनों का एका बालू की भीत है जो हल्का झटका भी नहीं सह पाती , जल्द गिर जाती है । परंतु विद्वानों की अनेकता में भी एकता है । **

** सावन की बून्दों जैसा कितने बिचार आते हैं और जाते हैं । जो बुलबुला बनकर फूट गये वे लुप्त हो गये । तथा जो जमा हो गये वे काम आते हैं , प्यास बुझाते हैं , ज्ञान बढ़ाते हैं । **

** क्या , कौन , कहाँ एवं कैसे से बुद्धि निर्मित है । जिस दिन क्या , कौन , कहाँ और कैसे का अंत हो जायेगा उस दिन बुद्धि का भी अंत हो जायेगा , तब मानव का भी अंत हो जायेगा । और यह सुन्दर संसार निरस एवं निष्क्रिय हो जायेगा । **

** एक तरह से देखा जाय तो विश्व पागल है --कोई थोड़ा है , तो कोई ज्यादा । इस समाज का जीव उस समाज के लिए पागल है , उस चीज के लिए पागल है , उस ज्ञान के लिए पागल है , तथा पागल करने के लिए पागल है ।

      और जो किसी के लिए पागल नहीं ; वह स्थिर , अचल , अक्षर , प्रशांत , अनंत , सर्वव्यापी , विश्व संचालक , परब्रह् परमेश्वर है जो निराकार होते हुए भी अनुभूत है । **

** पागल संज्ञा , सर्वानाम नहीं विशेषण है ।पागल का शाब्दिक अर्थ मूर्ख , मतिछिन्न , गंवार , हैवान और उदंड है ; तो विशेष अर्थ पंडित , विद्वान और भगवान है -- जैसे -
    कृष्ण पागल थे -- राधा के लिए ,
    पांडव -- विजय के लिए ,
     मीरा -- कृष्ण के लिए ,
     गाँधी -- स्वतंत्रता के लिए ,
    आइन्सटिन -- अनुसंधान के लिए,
     खुसरू -- संगीत के लिए ,
     गालिब -- शायरी के लिए ,
और मैं पागल हूँ " मैं " के लिए वगैरह । **

** जिस प्रकार बरात बिदा हो जाने पर एक बोझ हट जाने के बाद भी द्वार उदास हो जाता है , काँटा निकल जाने के बाद भी दर्द की टीस बनी रहती है , वैसा ही मन है , जो कभी कभी बिन कारण उदास , चिन्तित हो जाता है । 

** जैसे रंगीन गिलास पानी को रंगीन दिखाता है , गंदा गिलास पानी को गंदा कर देता है , सही मापक सही मान देता है , गलत मापक गलत मान देता है , वैसा ही समाचार माध्यम है , जैसा होगा वैसा समाज बनेगा । **

** कुछ लोगों का मत है कि जैसा समाज होगा वैसा समाचार माध्यम लिखेगा ; मेरे विचार से समाज समाचार माध्यम एवं साहित्य नहीं बनाता , बल्कि वे समाज का निर्माण करते हैं , क्योकि वे बुध्दिजीवी हैं तथा समाज परजीवी । वे अगुवा हैं तथा ये पिछलगा । वे चीनी हैं और ये मिठाई तथा प्रशासन हलवाई । **

** समाज गाड़ी है तो बुध्दिजीवी घोड़ा तथा प्रशासन सारथी । ये दोनो की कुशलता कुशल समाज का द्योतक है । **

** प्राय: गणतंत्र में यह पाया जाता है कि अधिकार के प्रति लोग ज्यादा चिंतित तथा चौकस रहते हैं । जबकि उन्हें कर्त्तब्य के प्रति लड़ना चाहिए । क्योकि अधिकार संघर्ष बढ़ाता है , उच्छृंखल बनाता है । तथा कर्त्तब्य अनुशासन लाता है , उन्नत बनाता है । **

( स्वरचित पुस्तक " विचार से )
क्रमशः

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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बुधवार, 4 मई 2022

प्यार का लक्षण

 

* गीत *
प्यार का लक्षण
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

जब दिन में सपना आए ,
जब मुख पे पसीना छाए,
जब नैना चार हो जाए ,
इकरार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं।


भूल जाते प्रेमी जात पात ,
नहीं भाता है दाल भात ,
मन घूमता रहता पात पात ,
बाहर इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं ।


खोजते रहते ए आठ पहर ,
कैसे पा जाएं एक नजर ,
मन में उठती रहती है लहर ,
मन सोचता रहता आठों पहर ,
आंखें देखती रहती डगर ,

इंतजार इसी को कहते हैं ,

सब प्यार इसी को कहते हैं ।


मन ही मन प्रेमी मचलते हैं ,
निर्जन जगह को चलते हैं ,
कुछ मिट जाते , कुछ मिलते हैं ,
दीदार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं।


कुछ सच्चा प्रेमी होते हैं ,
कुछ प्रेम भी अपना खोते हैं ,
कुछ हंसते हैं, कुछ रोते हैं ,
संसार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं


इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

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मंगलवार, 3 मई 2022

विचार ( भाग १ )


इंजीनियर पशुपतिनाथ चिंतनशील मुद्रा में


 कोटेशन                  

 विचार  ( १ )

रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद              

  ** कोई कुछ भी महत्वपूर्ण  नहीं , नहीं कोई ईश्वर या खुदा है । किसी को महत्वपूर्ण या भगवान बनाती है मान्यतता , और मान्यता और कुछ नहीं लोकमत है ।। **


** लोकमत अपना कर्तब्य तथा मत को विश्व  पटल पर प्रस्तुत कर प्राप्त की गयी प्रशंसा का अंश है । यह अंश जितना बड़ा होगा वह उतना बडा़ तथा महान है । **



** अगर अंको में देखा जाय तो विद्वानो  तथा महानो की प्रशंसा का अंक मूर्खों तथा साधारण पुरुषो की प्रशंसा के अंक से ज्यादा होता है ।
इसलिए एक विद्वान तथा महान् द्वारा की गयी किसी की प्रशंसा का महत्व ज्यादा  होता है । यह सौ , हजार जन की प्रशंसा के बराबर होता है । **



** दुष्ट और दुष्टता उत्तेजना पैदा करते हैं । उत्तेजना विवेक नष्ट करता है । अपना विवेक अनुसार कार्य करना ही सर्वोत्तम उपाय है । **


** किसी की सफलता उसके कर्मो का द्योतक है ।और कर्म ; उसके मन , इच्छा और मस्तिष्क में उपजे बिचारों का । और मन , इच्छा , बिचार  उसके चारो ओर के वातावरण , वातावरण को देखने का नजरिया एवं अध्ययन मनन का । **


** वैसे तो मानसिक अस्थिरता का कोई निदान नहीं , लेकिन सिलसिलवार कार्य , समय पर कार्य , पूर्व नियोजित कार्य , शठ संगत परित्याग तथा फालतू बातों कों उपेक्षित कर के चलना दो तिहाई निदान है । **

** लोग जितना योजना बनाने पर ध्यान देते , उतना ही यदि उसके कार्यान्वयन पर दे तो लाभ अधिक होता ।**


** जिवन में किसी क्षण , जगह ,आवस्था में शिथिलता निराशा का ही द्योत्तक है । तथा यह सफलता , सुख , समृध्दि को दूर ही करता है । **


** योजना तथा समय की माँग में तालमेल हो तो वह सही है । यदि दोनो की दिशा दो हो तो अराजकता पैदा होती है । **


** आवश्यकता पैसा का दास है ; पैसा सही योोजना का ; और सही योयना समय की माँग तथा कार्यान्वयन का । **


** आयु , विचार एवं इच्छा मन पर निर्भर है । था मन वातावरण पर । **


** समय की मांग , अपना सामर्थ्य तथा अपना मन के अनुसार कार्य करना ही सर्वोत्तम रास्ता है । **


** प्रारब्ध तथा कर्म में किसे चुना जाय -- तो कर्म को -- क्योंकि प्रारब्ध ईश्वरीय है -- शायद अचल भी और अपना वश से बाहर । लेकिन कर्म हस्ताधिन है । अत: अपना पूरा ध्यान , शक्ति से कर्म करना सर्वोत्तम रास्ता है । **


** अपनी योजना , अपना विचार से काम करने पर यदि असफलता भी मिले तो भी यह दूसरों से बेहतर है , क्योंकि इसमें सुधार की गुंजाइस है , तथा दूसरो में नहीं है।**


** व्याकरण भाषा का संविधान है , और सभ्यता समाज का ।**


** किसी वस्तु ( पदार्थ ) की उत्पत्ति का कारण प्रकाश , ध्वनि एवं ताप है । तथा किसी भी वस्तु का पूर्ण विनाश से यहीं तीन प्राप्त होता है । **


** प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक तरंग होता है ।वही उसकी आत्मा है , वही उसकी गतिशीलता है । यदि यह तरंग क्षीण हो जाय तो वह निराश हो जाता है । यदि यह तरंग लुप्त हो जाय तो उसकी मृत्यु हो जाती है ।  संगीत यही तरंग उत्पन्न करता है । इसलिए व्यक्ति अपने मन के अनुसार संगीत पसंद करता है । **

           

** निराश से निराश व्यक्ति के मन - तरंग के अनुसार संगीत सुना दिया जाय तो उसका जीवन की शक्ति बढ़ जाती है । **


"* बिचार ,मन एवं इच्छा , प्रकाश की तीव्रता , समय तथा वातावरण पर निर्भर करते हैं । यही कारण है कि विभिन्न रंग , जगह और समय में भिन्न विचार , भाव तथा इच्छा उत्पन्न होतें हैं ।**


** मेरे दादा कहते थे कि अगर कोई बारह वर्ष तक झूठ नहीं बोले तो उसके बाद जो कहेगा वह सत्य होगा । कारण , इतने दिनों का अभ्यास उसे इतना अभ्यस्त कर देगा कि वह वही कहेगा जो हो रहा है , हुआ है या होनेवाला है , अथवा बोलेगा ही नहीं , चुप रहेगा । **


** किंवदन्तियाँ एकदम असत्य है ऐसी बात नहीं ,   बल्कि  समयान्तराल में पानी मिलाये दुध सा अशुध्द हो गयी हैं ।** 


** लोकोक्तियाँ , मुहावरा एवं कहावतें समाज रूपी समुद्र मन्थन से निकली रत्न हैं , जो अर्जुन के तीर सा कलेजा और मस्तिष्क में चुभकर अच्छाई के प्रति दर्द उत्पन्न कर सजग करती हैं । **


** भावात्मक सोच ( विचार ) एवं वौध्दिक सोच में किसे यथार्थ माना जाय -- तो वौध्दिक सोच को -- क्योकि जहाँ भावात्मक सोच प्राय: तन्द्रा अवस्था की देन है वहाँ वौध्दिक सोच पूर्णत: सजग एवं तार्किक अवस्था की । **

( स्वरचित पुस्तक " विचार " से )
क्रमशः

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