सोमवार, 23 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 13 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रेत्र और श्रेत्रज्ञ के विषय में ज्ञान देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 13
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में बताया है।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान
सुनो शरीर यह क्षेत्र कहाता ,
इसे तत्त्व से है जो जाने ,
वह क्षेत्रज्ञ है माना जाता ।

उपरोक्त दो था अनजान ,
इसे बताया तत्त्व से ज्ञान ,
सबका श्रेय तू मुझको जान ,
मेरा मत है इसको मान ।

इन दो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को
सुनो मैं कहता कर विस्तार ,
गुण-दोष , कारण व हेतु
व प्रभाव सुने संसार ।

बहु विधि इन तत्त्वों को
ऋषियों ने बतलाया है ,
गीत, छंद व ब्रह्मसूत्र पद
में भरकर दर्शाया है ।
( ब्रह्मसूत्र पद = वेद )

पांच महाभूत ,अहंकार व
बुद्धि , अव्यक्त प्रकृति आदि ,
पांच इंद्रियां विषय , एक मन ,
दस इंद्रियां सुन इत्यादि ।
( पंच महाभूत = क्षिति , जल ,पावक,
गगन , समीर )

इच्छा , द्वेष , सुख-दुख , धृति ,
देह चेतना क्षेत्र कहाए ,
विकारों संग उक्त क्षेत्र सब
मूल रूप में तुझे बताए ।

दंभहीन ,अभिमानहीन स्थिर मन
सेवा क्षमा शुद्धता ,
आत्मनिग्रह , अहिंसा व
सरल चित्त और सरल सरलता ,
गुरु की सेवा , तन की शुद्धि ,
आत्म संयम और मन की शुद्धि।

लौकिक परलौकिक आसक्ति ,
अहंकार अभाव ,
जन्म- मरण और रोग जरा में
धैर्य और सुभाव ।

पत्नी पुत्र गृह व धन संग
आसक्ति अभाव ,
मोह हीन प्रिय व अप्रिय संग 
समता का हो भाव ।

शुद्ध देश  एकांत प्रिय हो ,
बुरे जनों संग प्रेम न करता ,
परम पुरुष मुझ परमेश्वर में
परम भक्ति का भाव है धरता ।

अध्यात्म ज्ञान तत्त्व नित्य बखाने ,
तत्त्व ज्ञान का अर्थ है जाने ,
उपरोक्त सुन सब है ज्ञान ,
उल्टा  इनके है अज्ञान ।

सुनो पार्थ अब ज्ञेय बताता ,
जान जिसे जन ब्रह्म पा जाता ,
अनादि परम ब्रह्म नहीं सत् ,
न कभी रहता  असत्
( ज्ञेय = अनुकरणीय , जानने योग्य )

हाथ, पैर व नेत्र , सिर व
मुख , कान है चारो ओर ,
सभी जगह है व्याप्त जगत में
नहीं खाली है कोई छोर ।

निर्गुण है पर गुण सब भोगे ,
बिन इंद्रियों के इंद्रिय सुख ,
नहीं आसक्ति रखे जगत से
फिर भी हरता है सबका दुख ।

सब भूतों के बाहर भीतर
चर अचर में करता वास,
सूक्ष्म होने से अज्ञेय वह
दूर समीप अति करे निवास ।

अविभक्त होने पर भी वह 
सब भूतों में है विभक्त ,
पालनकर्त्ता  विष्णु सा वह
रूद्र रूप संहार सशक्त ।

ब्रह्मा रूप सबका पिता वह
जानने योग्य वह पिता परम ,
उसके सिवा नहीं कोई दूजा
सुनो पार्थ कहे सभी धरम।

ज्योति की ज्योति बोधगम्य वह
माया से परे कहा जाता ,
सब ह्रदय मे स्थित वह है,
विज्ञ तत्त्व से वश है लाता ,
जानने योग्य सरल उसे पाना ,
आदिकाल से पूजे जमाना ।

क्षेत्र ज्ञान  व ज्ञेय बताया
इस प्रकार संक्षिप्त रूप में ,
भक्त मेरे हैं इसे समझ कर
आ जाते मेरे स्वरूप में ।

पुरुष और प्रकृति दो ही
अनादि है ऐसा तू जान ,
त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ को
प्रकृति से जन्मा मान ,
राग द्वेश आदि विकार भी
प्रकृति ने किया उत्पन्न ,
सुनो पार्थ इसे ध्यान लगाकर
स्थिर करके अपना मन।
( त्रिगुणात्मक - सत , रज ,तम )

प्रकृति उत्पन्न है करती
कार्य और कारण ,
जिससे सुख-दुख जीवात्मा
भोग है करता ,
सुनो पार्थ प्रकृति कारक
विज्ञ बताते ,
जीवात्मा उसके अधीन
सब है समझाते ।

त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ जिसे
प्रकृति ने उत्पन्न किया ,
प्रकृति में स्थित पुरुष जिसे
सदियों से है भोग किया ,
इन गुणों के संग के कारण
जीवात्मा बनता है चारण ,
अच्छी बुरी योनी में जाकर
पुनर्जन्म लेता है आकर ।

पुरुष प्रकृति में स्थित हो
प्रकृति गुण भोग है करता ,
प्रकृति संग के कारण
सत् असत् योनी है धरता ,
रूचता जिसको गुण है जैसा ,
योनी धरता है वह वैसा।

इस शरीर में एक और है
परम पुरुष विद्यमान ,
जो है ईश्वर परम स्वामी
परमात्मा समान ,
साक्षी और अनुभूति कर्त्ता ,
जिसकी विज्ञ हैं करते चर्चा ।

पुरुष और प्रकृति गुणों को
जो मनुष्य तत्त्व से जाने ,
करता हुआ सभी कार्यों को
अपना शुभ कर्तव्य को माने,
पुन: नहीं जन्म को पाता ,
वह सीधे मुक्त हो जाता।

परमात्मा के परम रूप को
कुछ ने देखा करके ध्यान ,
आत्म मनन व चिंतन से कुछ
व कुछ करके अर्जित ज्ञान ,
कर्म योग कर्तव्य भी करके
सहज प्राप्त उसको कुछ करते ।

मंदबुद्धि कुछ ऐसे  भू पर
उपरोक्त व्यक्तियों से सुन कर ,
इन तत्त्वों को मन में धरते ,
परमब्रह्म पा वे भी तरते।

स्थावर जंगम सब प्राणी
धारा पर जन्म है पाता ,
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ  संयोग से
जन्म है लेकर भू पर आता ।

सभी चराचर भूत नाश को
पाए एक दिन,
इनमें स्थित परमेश्वर सिर्फ
अजर अमर है ,
विज्ञ पुरुष जो करता है
ऐसा अवलोकन ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
करता लोकन ।

सभी जगह दिखे विद्यमान ,
सब जीवों में एक समान ,
स्वयं स्वयं को करे न नाश ,
परम में करता है निवास ।

सभी कर्म निष्पादित होता
प्रकृति से ,
आत्मा इसमें अकर्त्ता रहता
है हरदम ,
ज्ञान चक्षु है जिन पुरुषों का
ऐसा देखे ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
ऐसा पेखे।

पृथक-पृथक भूतों के
सुनो पृथक भाव को ,
एक परम पिता में सुनो
जो जन माने ,
यह विचार है मन में जिनके
ज्योंहि आए ,
परम ब्रह्म को समझो त्योंहि
प्राप्त हो जाए।

अनादि निर्गुण अविनाशी
परमात्मा है स्थित तन में ,
ना कुछ करता , लिप्त न रहता ,
उत्प्रेरक सा युक्त है रहता।

सर्व व्याप्त सूक्ष्म आकाश
लिप्त नहीं रहता है  जैसे ,
सर्व स्थित निर्गुण आत्मा
तन गुणों से लिप्त न वैसे।

एक रवि संपूर्ण ब्रह्मांड को
प्रकाशित करता है जैसे ,
एक आत्मा पूर्ण क्षेत्र को
प्रकाशित करता है वैसे ।

ज्ञान चक्षु से क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ व
प्रकृति को तत्त्व से जाने ,
परम ब्रह्म को प्राप्त है करता
दुनिया उसको विज्ञ है माने ।

**********समाप्त*******************.

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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रविवार, 22 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 12 )

       अर्जुन को भक्ति की महिमा का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण


कविता 

गीता काव्यानुवाद

अध्याय 12

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्ति की श्रेष्ठता का उपदेश दिए हैं।


रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


अर्जुन उवाच-
भक्ति पूर्वक भजे आप सा
सगुण ब्रह्म ईश्वर साकार ,
और जो दूजा भजे ज्ञान रूप
अविनाशी ब्रह्म नि:आकार ,
इन सज्ञों में श्रेष्ठ कौन है ?
इन विज्ञों में जेष्ठ कौन है ?

भगवान उवाच-
मुझमें मन को करके स्थिर
भजे भक्त वह श्रेष्ठ कहाए ,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को
भजता वह नर जेष्ठ कहाए ।

निराकार अविनाशी अचल
सदा एकरस रहने वाला ,
सर्वव्यापी नित्य व अक्षर
मन बुद्धि से परे विलक्षण ।

भजता जो नर ऐसे ब्रह्म को ,
ऐसा नर भी पाए मुझको ,
ऐसा नर भी श्रेष्ठ कहाए ,
निर्गुण भजकर मुझको पाए ।

उपर्युक्त इस निर्गुण ब्रह्म को
समझ ना पाए सब देहधारी ,
कठिन श्रम व कठिन तप से
सिर्फ समझते विज्ञ आचारी ।

मेरे परायण रहने वाले सभी भक्तजन,
सब कर्मों को मुझ में अर्पित करके जपते ,
ध्यान योग अनन्य भाव से नित्य निरंतर,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को है वे भजते।

जिनका चित्त मुझ में रमता है ,
जिनके मन को मैं हूं भाता ,
मृत्युलोक इस भवसागर से
उन भक्तों को पार लगाता।

तन मन बुद्धि गर अर्पित कर
मेरे मन में वास करेगा,
इसमें कुछ संदेह नहीं है ,
मुझमें ही निवास करेगा।

अपना मन मुझमें स्थिर गर
तू स्थापित ना कर सकता ,
अभ्यास योग से इच्छा कर
उससे भी मैं प्राप्त हो सकता ।

उपर्युक्त अभ्यास योग में
भी तू गर समर्थ नहीं है ,
मेरे परम कर्म को कर तू
उसमें तू असमर्थ नहीं है ,
मेरे निमित्त कर्म जो करता ,
मुझे प्राप्त कर सिद्ध हो बढ़ता।

उपरोक्त कर्म करने में
भी अक्षम है पार्थ अगर तू ,
मन बुद्धि पर विजय प्राप्त कर
फल-चिंता हीन कर्म करो तू।

लक्ष्य हीन व दिशा हीन
अभ्यास कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है ,
बिना ध्यान के ज्ञान न फलता
अतः ज्ञान से ध्यान जेष्ठ है ,
कर्म-फल भय त्याग न जब तक ,
मन में आता ध्यान न तब तक ,
अत: ध्यान से श्रेष्ठ कहाए,
त्याग कर्म फल जेष्ठ काहाए ,
कर्म-फल का भय नहीं जिनमें
परम शांति रमती उनमें ।

द्वेष भाव से हीन दयालु
मित्र भाव रखता जो सबसे ,
निरहंकारी क्षमावान हो
माया ममता निष्फल जिसपे ,
सुख-दुख में सम जो कहलाए ,
ऐसा ही नर मुझको भाए ।

तुष्ट निरंतर जो योगी हो ,
दृढ़ निश्चय है जिनके मन में ,
मन बुद्धि है जिनका रमता
भक्ति भाव से मेरे तन में ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता।

जिनका कर्म नहीं किसी
जीव को कभी सताए,
किसी जीव के कर्मों से
जो भय नहीं खाए,
हर्ष अमर्ष भय व्याकुलता
जिन पर निष्फल ,
ऐसा स्थिर ऐसा त्यागी
ऐसा कर्मठ मुझको भाए।

रहता शुद्ध जो तन से मन से
पक्षपात नहीं करे किसी से ,
निस्वार्थी परित्यागी जन यह
मेरी प्रीति रहे इसी से ,
नहीं दुख जिनको दहलाए ,
कठिन समय में भी मुस्काए,
शुभ कर्म का जनक कहाए
ऐसा विज्ञ ही मुझको भाए ।

हर्ष द्वेष शोक कामना
न जिन पर प्रभाव दिखाए ,
शुभ अशुभ का असर न जिन पर ,
परित्यागी है जो कहलाए ,
भक्तियुक्त ह्रदय है जिनका
ऐसा ही नर मुझको भाए।

शत्रु- मित्र ,अपमान-मान में
रहे एक सा जो नर नारी ,
सुख- दुख ,गर्मी व सर्दी
न विचलित करते जिस प्राणी ,
संग आसक्ति में नहीं खोता ,
मित्र हमारा ए नर होता ।

सर्वतुष्ट व मौनी चिंतक
स्तुति निंदा में जो अविचल ,
स्थिर मति व भक्तिमान जो
गृह माया से है जो अविकल ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता ।

उपरोक्त धर्ममय अमृत
उपदेश को पालन करता ,
श्रद्धापूर्वक परम भक्त बन
मुझ में जिसका मन है वसता,
ऐसा ही नर स्वजन हमारा ,
परम सखा यह मुझको प्यारा।

************समाप्त********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 21 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 11 )



              अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण विश्वरूप ( विराटरूप ) दिखाते हुए।


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 11
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप दर्शन यानी विराट रूप का परिचय कराया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
मुझ पर परम अनुग्रह करके
परम गुप्त अध्यात्म बताया ,
जिसे सुन मन-मोह कुबुद्धि
नष्ट हुआ व ज्ञान समाया।

सब भूतों व प्रलय काल का
सुना मैं तू जनक कहाए ,
अविनाशी महिमा से मंडित
तुम्हें सदा है जगत बताए  ।

जैसा तूने तू को बतलाया ,
देखना चाहूं वैसा तुझको ,
ज्ञान ऐश्वर्य तेज बल शक्ति
युक्त तुम्हारे ईश्वर रूप को ।

यदि है संभव देख पाना
तेरे उस अविनाशी रूप को ,
हे योगेश्वर ! देव दयामय !
मुझे दिखाओ उस स्वरूप को।

भगवान उवाच-
कोटि-कोटि व नाना विधि के ,
नाना वर्ण , आकृति वाला ,
अलौकिक रूपों को मेरे
देख पार्थ कहा जग रखवाला ।

आठ वसु व रूद्र ग्यारह ,
पुत्र अदिति देख तू  बारह ,
उनचास मरुतगण को भी देखो ,
अश्विनी दो ए अद्भुत पेखो ।

पूर्ण जगत को और चराचर
देख एकत्रित मेरे तन में ,
गुडाकेश ! सब कुछ देखो तू ,
जो इच्छा है तेरे मन में ।

अपने इन नेत्रों के द्वारा
देख नहीं सकता है मुझको ,
दिव्य रूप दर्शन के हेतु
दिव्य दृष्टि देता हूं तुझको ।

अविनाशी योगेश्वर हरि ने
ऐसा कह निज रूप बढ़ाया ,
परम अलौकिक वृहद डरावन
योगशक्ति दिव्य रूप दिखाया ।

अनेक मुख और नैन बहुत सा ,
देखने में यह अद्भुत लगता ,
दिव्य आभूषण , दिव्य अस्त्र से ,
दिव्य रूप यह अद्भुत जचता ।

दिव्य मालाएं, दिव्य वस्त्र से ,
दिव्य गंध से वासित तन है ,
अनंत दिशा में मुख सभी ओर ,
अद्भुत दिखता रूप परम है ।

कोटि-कोटि उदित सूर्य से
नहीं तेज होता है उतना ,
तेज पुंज चमक ज्वाला से
दिव्य रूप प्रकाशित जितना ।

पृथक- पृथक व तरह-तरह का
पूर्ण और संपूर्ण जगत को ,
केशव के तन में अर्जुन ने
देखा सत को और असत को ।

विश्वरूप इस परम ब्रह्म का
देख चकित व पुलकित होकर ,
परम भक्ति से हाथ जोड़कर
बोला अर्जुन तन- मन खोकर ।

अर्जुन उवाच -
ब्रह्मा शिव सभी ऋषियों को
सब भूतों के दल को पाता ,
दिव्य सर्प सब देव महादेव
तेरे तन में मुझे सुहाता ।

अनेक भुजा ,पेट , मुख , नेत्रों से
युक्त अनंत सा देखूं तुझको ,
नहीं आदि न अंत न मध्यम
विश्वरूप में दिखता मुझको।

मुकुट युक्त ,गदा ,चक्र मंडित
तेजपुंज से दीप्त अखंडित ,
सूरज की प्रदीप्त ज्योति हो ,
ऐसा अद्भुत दिखता मुझको ।

परम अक्षर तू वेत्ता वेदित
तुम में आस्था धाम पुरातन,
तुम्ही अनादि धर्म के रक्षक
तू अविनाशी पुरुष सनातन।
( वेत्ता = जानने वाला / ज्ञाता ,
   वेदित = ज्ञापित/ जाना हुआ )

आदि अंत व मध्य रहित है ,
अनंत शक्ति से मुख प्रज्वलित है ,
शशि सूर्य सा चक्षु हस्त है ,
दीप्त तेज से विश्व तप्त है ।

स्वर्ग और भू के बीच का
संपूर्ण अकाश व सभी दिशाएं ,
एक आपसे पूर्ण व्याप्त हो
भोग रहा संताप व्यथाएं ।

देवों का दल घुस रहा है ,
कुछ भयभीत खड़ा नतमस्तक ,
नाम गुण की गान करें कुछ ,
स्वस्ति कहता ऋषि दल मस्तक।
(स्वस्ति = कल्याण हो )

सिद्ध वसु ,आदित्य , रूद्र गण ,
विश्वदेव , मरूत व पितर ,
राक्षस , यक्ष, गंधर्व ,अश्विनी ,
देख रहे सब विस्मित होकर।

बहुत मुख, हस्त, नेत्र व जंघा ,
पैर ,उदर  विकराल दंत को ,
जग व्याकुल है , मैं भी आकुल ,
दर्शन कर इस महानंत को ।

नभ को छूता विविध वर्ण युक्त
विशाल चक्षु , दीप्त वृहद मुख ,
अवलोकन कर भय खाता हूं ,
धैर्य न शांति को पाता हूं।

विकराल दंत ,प्रज्वलित अग्नि मुख
प्रलय काल की वेला जैसे ,
दिग्भ्रमित कर श्रीहीन कर दे ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पे ।

धृतराष्ट्र के पुत्र सभी सब
घुस रहे राजाओं संग में ,
भीष्म , द्रोण व कर्ण इत्यादि 
दिख रहे हैं तेरे अंग में ।

मेरे पक्ष के वीर सभी सब
आप के मुख में दौड़ दौड़ कर ,
चूर्ण बने विशाल दंत से
पीस रहे हैं कौर बनकर ।

प्रबल जलधारा से सरिता
सागर में जा मिलती जैसे ,
आपके प्रज्वलित वृहद मुख में
वीर जगत के घुस रहे वैसे।

मोहित हो प्रज्वलित अग्नि से
नाश पतंगा पाते जैसे ,
आप के मुख में नाश के हेतु
पूर्ण जगत है दिखता वैसे ।

प्रज्वलित मुख व लपलप जीभ से
बना ग्रास संपूर्ण लोक है  ,
उग्र प्रकाश तेज से तपता
पूर्ण जगत में शोच शोक है।

देव श्रेष्ठ है नमन हमारा ,
कौन आप इस उग्र रूप में ?
नहीं प्रवृति ज्ञात तुम्हारी
मुझे बताएं बृहद रूप में ।

भगवान उवाच-
इन लोगों के नाश के हेतु
बढ़ा प्रवृत्त मैं महाकाल रब ,
युद्ध करो या नहीं करो तुम ,
नहीं बचेंगे ए  योद्धा सब ।

पहले ही मैं मार चुका हूं ,
देख रहा शूरवीर यहां पर ,
धन यश और राज्य को भोगों ,
निमित्त मात्र बन इन्हें जीतकर।

द्रोण  भीष्म , जयद्रथ, कर्ण सा
और बहुत शूरवीर संहारा ,
तू भी मार , न भय कर अर्जुन ,
जीतेगा सुपात्र न हारा।

वचन कृष्ण का ऐसा सुनकर
हाथ जोड़ अर्जुन मुख खोला ,
कुछ भयभीत हो नमस्कार कर
गदगद वाणी से वह बोला ।

अर्जुन उवाच-
स्थानों में ऋषिकेश तू ,
जग हर्षित है  पौरूष तेरा ,
राक्षस भाग रहे भय आकुल ,
साधु डाल रहे हैं फेरा ।

ब्रह्मा के भी आदिकर्त्ता
नमन तुझे है हे सर्वोत्तम !
अनंत देवेश ,हे जगन्निवास!
असत सत अक्षर तू उत्तम ।

आदिदेव तू पुरुष पौराणिक
परम निधि है आस्था तुझ में ,
परमधाम यह मान्य विश्वरूप
पूजनीय है दिव्य स्वरूप में।

हवा अनल यम वरुण चंद्र तू ,
ब्रह्मा ब्रह्मा के पिता भी ,
कोटि-कोटि है नमन हमारा ,
पुनः नमन स्वीकार करो भी ।

सर्व रूप में व्याप्त जगत में ,
बल विक्रम की अतुल धारा ,
अग्रभाग व पृष्ठ भाग से
सभी ओर से नमन हमारा ।

तेरी महिमा से अपरिचित
प्रेम युक्त या भ्रांत युक्त चित्त,
सखा मान मैं यह कहता हूं ,
हे यादव कृष्ण ! परम सखा तू।

मेरे शय्या , आसन ,भोजन
व बिहार के लिए प्रभु तू ,
कष्ट और अपमान सहा है ,
हे अचिंत्य !  सब क्षमा करो तू ।

जगत पिता तू , गुरु ना तुम सा
पूज्य चराचर में नहीं पाएं ,
और न कोई तुम सा दूजा
किसी लोक में मुझे सुहाए।

पिता-पुत्र को , सखा सखा को ,
प्रिय प्रियतमा क्षमा करें ज्यों ,
स्तुति नमन निवेदन करता ,
कृपा करके क्षमा करें त्यों।

अपूर्व अद्भुत इस दर्शन से
मन हर्षित है , भय भी खाए ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पर
रूप चतुर्भुज फिर अपनाएं ।

मुकुट गदा चक्र युक्त स्वरूप में
देखना चाहूं फिर से तुझको ,
अतः हे माधव! रूप चतुर्भुज
में दर्शन दें फिर से मुझको।

भगवान उवाच-
परम तेज सा विश्वरूप यह
आत्म योग से तुझे दिखाया ,
तेरे सिवा और नहीं दूजा
देखा इसको स्वयं बताया ।

नहीं यज्ञ अध्ययन वेदों से ,
नहीं दान , नहीं उग्र तपों से ,
नहीं क्रिया से इस नृलोक में ,
देखा यह रूप है त्रिलोक में।

देख इस विकराल रूप को
नहीं विमूढ़ हो ,ना हो आकुल ,
रूप चतुर्भुज देख पुन: तू ,
अभय बनो , न बन तू व्याकुल।

ऐसा कह कर रूप चतुर्भुज
पुनः दिखाया वासुदेव ने ,
सौम्य मूर्ति बन धैर्य दिलाया  ,
अर्जुन को श्रीकृष्ण देव ने ।

अर्जुन उवाच-
सौम्य शांत इस मनुज रूप को
देख के स्थिर चित्त को पाया ,
स्वभाविक स्थिति को पाकर
मेरे मन में मोद समाया।

भगवान उवाच-
रूप चतुर्भुज जो तू देखा
बड़ा ही दुर्लभ दर्शन इसका ,
करें आकांक्षा देव सदा से
पाने को है दर्शन जिसका ।

नहीं वेद यज्ञ दान और तप से
मुझको देखा कोई वैसा ,
सब्यसाची हे भक्त धनंजय!
मुझको देखा है तू जैसा।

अनन्य भक्ति के द्वारा मैं
दर्शन को प्रत्यक्ष रूप में ,
प्राप्त तत्त्व से जानने हेतु
भी संभव मैं अनेक रूप में ।

मेरी भक्ति मेरा परायण ,
मेरे लिए कर्म करता जो ,
वैर भाव आसक्ति हीन नर
मुझे प्राप्त हो जाता है वो।

*************समाप्त*********
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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शुक्रवार, 20 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 10 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी आत्म विभूतियों का परिचय कराते

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 10
इस अध्याय में अपनी आत्म विभूतियों का परिचय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताएं हैं।
( विभूति = ऐश्वर्य , वैभव , महत्ता इत्यादि )
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
हे पुरुषोत्तम ! महाबली तू ,
सुनो मेरे परम वचन को ,
जो सुखदायक व है लायक ,
कहता केवल भक्तजनों को ।

नहीं देवता ,नहीं महर्षि ,
जाने मेरे जन्म-मरण को ,
देव महर्षि का मैं आदि ,
पैदा करता मैं ही सबको ।

मेरा अजन्मा व अनादि
लोक महेश्वर तत्व जाने जो,
पाप मुक्त हो जाए वह नर ,
जब मृत्यु को पता है वो ।

बुद्धि ज्ञान सम्मोहन शम दम ,
सत्य क्षमा भी मुझको मान ,
सुख-दुख भय और निडरता ,
भाव अभाव भी मुझको जान ।

तप संतोष दान यश अपयश ,
अहिंसा समता ए नाना ,
सब जीवो में जन्मे मुझसे ,
कहता वेद पुराण जमाना।

चौदह मनु ,सनकादि पुरातन ,
सप्तर्षी जन्में मेरे संकल्प से ,
और सभी जन देख रहा तू ,
जन्मे हैं सब  इन ऋषियों से ।

मेरे इस विभूति योग के
तत्त्व सार को जाने जो जन,
परम विभूति को पाता है ,
अभय निडर होता उनका मन।

सबका मन प्रभाव है मुझसे ,
सब उत्पत्ति है मुझसे पाते ,
ऐसा मान जो भजते ज्ञानी ,
पुनः लौट कर मुझमें आते ।

शुद्ध चित्त और शुद्ध प्राण से
मेरी भक्ति करता जो जन ,
तुष्ट और संतुष्ट होकर
मुझ में रमता है उसका मन।

मेरा चिंतन करता है जो
प्रीति पूर्वक सतत हमेशा ,
बुद्धि योग को प्राप्त करे वह ,
भोगे समृद्धि स्वर्ग के ऐसा ।

परम अनुग्रह करने हेतु
स्थित हो ऐसा जन-मन को ,
हरता तम अज्ञान कुबुद्धि ,
प्रज्वलित करता ज्ञान रतन को।

अर्जुन उवाच-
परम ब्रह्म व परमधाम तू ,
परम पवित्र व पुरुष सनातन ,
आदि देव तू और अजन्मा ,
सर्वव्यापी तू हे रिपुसूदन !

असित , व्यास ,नारद व देवल
आदि ऋषिगण कहते ऐसा ,
स्वयं आप भी कहते ऐसा  ,
फिर क्यों मानूं जैसा तैसा ?

जो कुछ कहते मेरे प्रति तू ,
उन सबको मैं सत्य मानता ,
तेरे लीलामय स्वरूप को
नहीं दनुज , नहीं देव जानता।

स्वयं स्वयं को स्वयं तू जाने ,
हे पुरुषोत्तम ! हे भूतेष !
भूतों का हे सृजन कर्त्ता !
  जगतपति तू , हे देवेश !

अपनी आत्म विभूतियों को
कहे कृपा कर केशव मुझसे ,
सब लोकों में व्याप्त आप हैं ,
और हैं स्थित जिनके बल से ।

किस प्रकार से नित्य निरंतर
चिंतन करके तुमको जानूं,
किन-किन भावों में चिंतन कर ,
हे भगवान ! मैं तुमको मानूं।

अपनी योग विभूतियों को
मुझे सुनाएं , हे जनार्दन !
अमृतमय इन वचनों को
सुन तृप्त नहीं होता है मन।

भगवान उवाच-
अपनी आत्मा विभूतियों को
कहता तुमसे जो अनंत है,
अतः सुन संक्षिप्त रूप में ,
वृहद रूप का नहीं अंत है।

सब भूतो के ह्रदय स्थित
आत्मा हूं तू ऐसा जान ,
आदि, मध्य और अंत सभी का
गुडाकेश तू मुझको मान ।

अदिति पुत्रों में मैं विष्णु ,
ज्योतियों में मैं रवि हूं जान ,
मरुत गणों में स्वयं मरीचि ,
नक्षत्रों में शशि तू मान ।

वेदों में मैं सामवेद हूं ,
इंद्रियों में मन रंजना ,
देवों में मैं इंद्रदेव हूं ,
सब जीवों में हूं चेतना ।

पर्वतों में मेरु पर्वत ,
रूद्रों में तू शंकर जान ,
यक्ष राक्षसों में कुबेर हूं ,
वसुओं में तू अग्नि मान ।

बृहस्पति हूं पुरोहितों में ,
समुद्रों में स्थिर सागर ,
सेनापतियों में स्कंध मैं ,
बोला अर्जुन से नटनागर ।

महर्षियों में भृगु मुनि मैं ,
शब्दों में ओंकार अहम् ,
यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं ,
हिमालय सा अडिग स्वयं।

देवर्षियों में नारद मुनि मैं ,
गंधर्वों में चित्ररथ गुनी ,
सब वृक्षों में पीपल तरु मैं ,
सिद्धों  में कपिल मुनि ।

हाथियों में ऐरावत हूं ,
मनुजों में तू राजा मान ,
अश्वों में हूं उच्चैश्रवा ,
सागर से निकला था जान ।

गायों में मैं कामधेनु हूं ,
शस्त्रो में मैं बज्र कठोर ,
सर्पो में मैं स्वयं वासुकी,
कामदेव मैं काम चकोर ।

नागों में मैं शेषनाग हूं,
जलचरों का वरुण देवता ,
अयर्मा हूं सब पितरो में ,
यमराज सा शासन कर्त्ता ।

दैत्यों में प्रहलाद आज हूं ,
ज्योतिषियों का समय साज हूं ,
पशुओं में मैं मृगराज हूं ,
पक्षियों में मैं गरूड़ ताज हूं ।

पवित्र करता वायु मैं हूं ,
शस्त्र धारियों में मैं राम,
मगर मछलियों में मैं ही हूं ,
नदियों में मैं गंगा धाम ।

अध्यात्म यानी ब्रह्मविद्या
विद्याओं में मुझको जान ,
आदि ,अंत और मध्य सृष्टि का
विवादों ने वाद तू मान ।

अक्षरों में अकार भी मैं हूं ,
कालों में मैं महाकाल ,
समासों में द्वंद समास मैं ,
सबका पालक जग का भाल ।।

सबका नाश ,मृत्यु व उद्भव
और भविष्य हूं सब क्रिया में ,
कृर्ति ,श्री , धृति , स्मृति ,
वाक् , क्षमा ,मेधा त्रिया में ।

श्रुतियों में मैं वृहद साम हूं ,
मासों में मैं  माघ फुहार ,
छंदों में मैं छंद गायत्री ,
ऋतुओं में वसंत बहार।

छलों में मैं द्यूत जूआ हूं ,
तेजवान का तेज अनल ,
सभी उद्योग व विजय भी मुझसे ,
सात्त्विक जन का सात्त्विक बल।

वृष्णिवंशो में वासुदेव मैं ,
मुनियों में मैं व्यास आचार्य ,
पांडवों में मैं स्वयं धनंजय ,
कवियों में मैं शुक्राचार्य ।

दुष्ट दमन का दंड सान हूं ,
जेताओं की नीति- खान हूं ,
गुप्त भावों का मौन ध्यान हूं ,
विज्ञों का मैं तत्त्व ज्ञान हूं।
( सान = धार तेज करने का मशीन )

सब भूतों का जन्म मुझी से ,
अचर भूत हो अथवा चर ,
ना कोई है मुझसे वंचित
देव यक्ष हो अथवा नर।

मेरी दिव्य विभूतियों का
नहीं अंत है ऐसा जान,
कहा तुझे संक्षिप्त रूप में
बृहद रूप अनंत है मान ।

ऐश्वर्य , कांति और शक्ति
सभी विभूतियां मुझसे जान,
मेरे तेज के अंश से संभव
गुडाकेश ! तू ऐसा मान।

अपनी योगशक्ति के कारण
पूर्ण जगत मैं करता धारण ,
बहुत न जानो ,जानो मुझको ,
बने समृद्धि तेरे चारण ।

*************समाप्त********************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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गुरुवार, 19 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 9 )

अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण राजविद्या इत्यादि का उपदेश दे रहे हैं

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 9
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को राजविद्या इत्यादि विषय पर उपदेश किए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सखा सुनो बोले भगवान ,
गोपनीय परम विज्ञान ,
जिसे जान दुख से संसार
कर जाता भवसागर पार।

विज्ञान युक्त है यह ज्ञान ,
विद्याओं का राजा जान ,
गोपनीयों का नृप भी जानो ,
अति उत्तम पवित्र है मानो ,
भौतिक सुख का पादप जानो ,
प्रत्यक्ष फलवाला है मानो ,
धर्म युक्त यह है अविनाशी ,
सुगम सरल यह ज्ञान की राशि ।

इसमें जो विश्वास न करते ,
ऐसा जन मुझे नहीं समझते ,
श्रृद्धाहीन  जन मुझे न पाए ,
जन्म-मरण चक्र में फस जाए।

अव्यक्त रूप मेरा
व्याप्त है पूर्ण जगत में ,
और व्याप्त मैं  अप्रकट में ,
सभी भूत हैं मुझ में स्थित ,
नहीं किसी में मैं हूं स्थित ,
योग शक्ति से जनक कहाता ,
पालनकर्त्ता में मैं आता ।

नभ से जन्मा चंचल वायु ,
नभ में स्थित रहता जैसे ,
मेरे से जन्में सब प्राणी ,
मुझमें स्थित रहते वैसे ।

कल्प अंत में सभी
लीन हो जाते  मुझमें ,
कल्प आदि में सभी
जन्म है मुझसे पाते ,
बंद वक्र पर सभी
बिंदु ज्यों फिर कर आते ,
उसी तरह से सभी भूत
हैं आते-जाते ।

पूर्ण प्रकृति मेरे अंदर
स्वभाव से रचता जानो ,
भूतों का समूह जो दिखता
उनका कर्त्ता भी तू मानो ,
मेरी इच्छा से विनाश ,
मेरी इच्छा के सब दास ।

किसी कर्म का लोभ आकर्षण
मुझे न बांधे ऐसा जानो ,
रहूं तटस्थ मैं इन कर्मों में ,
सब जाने और तुम भी जानो।

मेरी अध्यक्षता में प्रकृति
रचती जड़ को व जंगम को ,
इस प्रकार से वृहद जगत
पाता रहता है अपने ढंग को।
(जगंम = चेतन , सजीव )

नहीं मूढ़ है मुझको माने ,
परम भाव नहीं मेरा जाने ,
कलह मचाए द्वन्द लड़ाए ,
रोकूं तो उपहास उड़ाए।

व्यर्थ की आशा व्यर्थ कर्म व
व्यर्थ ज्ञान के अज्ञानी जन ,
आसुरी राक्षसी मोहनी मन को
धारण कर घूमे इनका तन।

दैवी प्रकृति में आश्रित जन
भजते मुझको आदि मान ,
अविनाशी भी माने मुझको
मोह मुक्त हो ऐसा जान ।

दृढ़ संकल्प के साथ नित्य ए
मेरी महिमा कीर्तन करते ,
भक्ति भाव से पूर्ण समर्पित
होकर के ए जीते मरते ।

द्वैत भाव ,एकांत भाव
या अन्य भाव से,
अथवा पूर्ण जगत में
तुमको दिखती पूजा ,
ज्ञानी लोग या अन्य लोग
जो यज्ञ हैं करते ,
सभी उपासना है मेरी
नहीं और है दूजा ।

मैं हूं यज्ञ ,मंत्र हूं मैं ही ,
मैं ही अग्नि हवन क्रिया ,
क्रतु ,स्वधा ,औषधि भी मैं ही ,
सर्वमंगला सर्वप्रिया ।

ऋग , यजुर व साम भी मैं ही,
ओम और ओंकार अहम् ,
माता-पिता और आश्रय दाता ,
पिता के पिता भी स्वयम् ।

मैं ही लक्ष्य ,पालक व साक्षी
शरण, आश्रय धाम परम ,
ईश्वर , मित्र , बीज व सृष्टि ,
प्रलय ,भूमि व हूं अव्ययम्।

तपता मैं हूं सूरज बनकर,
बरसूं वर्षा बनकर भू पर ,
अमृत-मृत्यु मुझे ही जानो,
सत् -असत् मैं ही हूं मानो ।

सोमप व वेदज्ञ गुणी जन
यज्ञों द्वारा पूजे जानो ,
पाप मुक्त हो इंद्रलोक में
स्वर्ग सुख है भोगे मानो ।

वृहद स्वर्ग का भोग को करके
क्षीण पुण्य पर पृथ्वी पाते ,
धर्म ,अर्थ और काम कर्म कर,
पुण्य पूर्ण कर फिर वहां जाते ,
तीन धर्म मनु ने बनाया ,
गत , आगत , कामकामा कहाया ।
( कामकामा = भौतिक भोग इत्यादि,
गत = मृत्यु , आगत = जन्म )

अनन्य भाव से मेरा चिंतन
व पूजा करता है जो जन ,
आवश्यकता उनकी और सुरक्षा
नित्य निरंतर करता यह तन।

श्रद्धा पूर्वक अन्य देवता
को जो पूजे ,
वास्तव में मेरी पूजा
वह ही है करता ,
विधि-विधान उस पूजा का
है नहीं जानता,
इस प्रकार से समय नष्ट
वह अपना करता।

मुझे सभी यज्ञों का भोक्ता
व स्वामी मानो ,
मेरे दिव्य स्वरुप को अर्जुन
तत्त्व से जानो ,
जो जाने नहीं नीचे गिरता ,
प्राप्त पुनर्जन्म नहीं करता ।

देवता पूजता जो है व्यक्ति ,
देवलोक को प्राप्त है करता ,
पितर पूजन करने वाला
पितृलोक में वास है करता,
भूत जो पूजे भूत में जाता ,
मेरा भक्त है मुझ में आता ,
पुनर्जन्म नहीं है वह पाता ,
भवसागर के पार हो जाता ।

पुष्प पत्र फल जल इत्यादि
भक्ति पूर्वक जो है लाता ,
शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेम से
अर्पण करता तब मैं खाता ।

अपना कर्म दान तप भोजन ,
हवन वगैरह सुन धनंजय!
मुझको अर्पित कर निश्चित हो,
युद्ध करो और प्राप्त करो जय ।

इस प्रकार तू कर्म के बंधन ,
शुभ अशुभ फल भय आदि से
मुक्त हो मेरे लोक आओगे ,
परम सुख फल को पाओगे ।

सभी भूतों में व्याप्त हूं मैं
एक भाव से ,
ना कोई प्रिय , नहीं अप्रिय है
  लगता मुझको ,
जो कोई भक्ति पूर्वक चाहत
करता मेरी ,
प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर के
मिलता उसको ।

पक्षपात ना करूं किसी से ,
नहीं किसी से करता बैर ,
समभाव मैं रखूं सभी से ,
भक्तों का मैं करता खैर ।
भक्ति पूर्वक सेवे मुझको ,
प्रकट रूप में मिलता  उनको ,
मेरी भक्ति जिन्हें न भाए ,
उनके पास नहीं हम जाएं ।

पाप कर्म ,जघन्य कर्म के
भी कर्त्ता गर ,
मेरी भक्ति में  रत रहता
नित्य निरंतर ,
अपने अडिग संकल्प के कारण
भजता मुझको बनके चारण ,
ऐसा को भी साधु जानो ,
मेरी भक्ति की महिमा मानो।

धर्मात्मा में वह है आता ,
परम शांति को पा जाता ,
मेरा भक्त न नष्ट है होता ,
परमानंद में है वह सोता ।

वैश्य , शुद्र , नीच या त्रिया ,
मेरे शरण धाम में आकर ,
परम गति को प्राप्त है करता ,
वसता परमधाम में जाकर।

राजर्षि ,भक्त व ब्राह्मण
धर्मात्मा की बात ही क्या है ?
अतः पार्थ इन पर चिंतन कर ,
मेरा नित्य भजन कीर्तन कर ।

अपना मन मुझमें अर्पण कर ,
भक्त बनो पूजा तर्पण कर ,
नम्र बनो और नमस्कार कर ,
मेरे कण कण से तू प्यार कर ,
मुझको निश्चित प्राप्त करेगा ,
नहीं किसी से कभी डरेगा ।

*************समाप्त*************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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बुधवार, 18 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 8 )

अर्जुन को अक्षर ब्रह्म, अधिदैव ,अधिभूत और अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 8
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अक्षर ब्रह्म , अधिदैव , अधिभूत , अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
ब्रह्म क्या ,अध्यात्म क्या है ?
क्या है कर्म ? कहे पुरुषोत्तम!
अधिभूत हैं कहते किसको ?
अधिदैव क्या है सर्वोत्तम ?

अधियज्ञ क्या ,कहां है स्थित ?
इस नर तन में हे मधुसूदन!
स्थिर मन नर जानते कैसे ?
अंत समय में हे रिपुसूदन!

भगवान उवाच-
परम अक्षर को ब्रह्म तू जानो ,
स्वभाव अध्यात्म तू मानो ,
जीव आत्मा भी कुछ कहते ,
त्याग भूत-भाव कर्म हैं कहते ।

जिनका हो उत्पति-नाश
अधिभूत सुनो है कहलाता ,
हिरण्यगर्भा ( ब्रह्मा ) पुरुषोत्तम
अधिदैव सुनो माना जाता ,
हर तन अंदर अंतर्यामी
वास जो करता ,
उसके अंदर स्वयं मैं
निवास है करता ,
यही अंतर्यामी मैं
अधियज्ञ कहलाए ,
सुनो पार्थ यह ब्रह्म ज्ञान
तुमको बतलाए ।

अंत समय में जो जन मुझको
मन में लाता ,
देह त्याग पर वो जन मुझको
प्राप्त हो जाता ,
इसमें कुछ संदेह नहीं है ,
सत्य यही है ,सत्य यही है ।

अंत समय में जो जो भाव
है मन में आता ।
देह त्याग पर उसको ही नर
प्राप्त हो जाता ,
पूर्ण जीवन जिनका कर्म जैसा,
अंत समय भाव आता वैसा।

मुझ में मन तन अर्पित कर
और युद्ध भी कर तू ,
अंत समय में प्राप्त करेगा मुझे
तनिक न डर तू ।

स्थिर चित्त अभ्यास योग से
परम पुरुष का करता चिंतन ,
बिन संशय उस दिव्य पुरुष को
प्राप्त है करता ऐसा जन-मन ।

जो सर्वज्ञ अनादि नियंता
धारण -पोषण सबका करे ,
अचिंत्य रूप आदित्य वर्ण
अविद्या से अति परे ,
परिशुद्ध सच्चिदानंद घन
परमेश्वर का स्मरण करे।

भक्ति युक्त ऐसा नर मन का
अंत काल का समय है आता ,
योगबल से भृकुटी के बीच
प्राण को स्थिर कर पाता ,
स्थिर मन से परम ब्रह्म जप
परमात्मा में मिल जाता ।

जिसे वेदज्ञ कहे अविनाशी ,
वास करे जिनमें संन्यासी ,
ब्रह्मचर्य सीखे ब्रह्मचारी ,
उसे सुन अब गांडीवधारी ।

सब इंद्रियों को निरुद्ध कर,
मन हृदय में स्थिर कर जो ,
प्राण सुकेन्द्रित कर मस्तक में ,
योग धारणा में स्थित हो ।

एकाक्षर ब्रह्म ओम उच्चारे,
निर्गुण भजते स्वर्ग सिधारे ,
परम गति को यह नर पाए ,
पुनः नहीं धारा पर आए ।

अनन्य चित्त से नित्य निरंतर
भजता जो नर-मन है मुझको ,
सहज ही प्राप्त हो जाता हूं मैं ,
ऐसा योगी साधु जन को ।

परम सिद्धि को प्राप्त जो करता ,
मुझे स्वयं वह प्राप्त हो जाता ,
क्षणभंगुर और दुखों के घर
पुनर्जन्म को है नहीं पाता ।

मुझे प्राप्त कर लेता है जो
पुनर्जन्म नहीं लेता है सो ,
क्योंकि कालातीत नित्य मैं ,
अक्षर अनादि व आदित्य मैं ,
ब्रह्मलोक पर्यंत लोक सब ,
पुनरावर्ति कालाधिन रब ,
क्षर अनित्य है जाने सब नर ,
सिर्फ अक्षर मैं और सभी क्षर ।

ब्रह्मा के एक दिन में
होते चतुर्युग एक हजार ,
रात्रि को भी इतना जानो,
इसको माने सब संसार,
इन्हें तत्त्व से जो जन जाने ,
काल तत्त्व विद दुनिया माने।

ब्रह्मा के एक दिन के होते ही
ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से ,
जन्म पाए सब जीव चराचर
इस अव्यक्त अनंत हीर से ,
ब्रह्मा की रात्रि काल पुनः जब छाए ,
जीव चराचर पुनः लौटकर इसमें आए ,
लीन हो जाते ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ,
परम ब्रह्म के इस अव्यक्त अनंत हीर में।

पैदा होकर भूत समूह यह
लीन हो जाता रात्रि काल में ,
दिन होते फिर पैदा होता ,
हो प्रकृति वश काल क्रम  में ।

उपर्युक्त अव्यक्त भाव से
अलग पुरातन ,
पूर्ण ब्रह्म अव्यक्त भाव है
नित्य सनातन ,
सब का नाश हो जाता पर यह
अजर अमर है ,
सभी भूत हैं क्षर
मात्र यही अक्षर है।

परम गति कहते हैं सब जन ,
अक्षर नाम अव्यक्त भाव है ,
इसे प्राप्त कर पुनर्जन्म नहीं ,
यहीं मेरा  परम गांव है ।

सर्वभूत जिनके अंतर्गत ,
पूर्ण जगत परिपूर्ण है जिनसे ,
वह अव्यक्त सनातन ईश्वर
प्राप्त हैं होते परम भक्ति से ।

जिस मार्ग से गए साधु जन
पुनः जन्म नहीं पाए ,
जिस मार्ग से गए योगी जन
पुनः लौट कर आए,
इन मार्गों की सुनो कहानी ,
सुन जिसे जन बनता ज्ञानी ।

जिस मार्ग से ज्योतिर्मय
अग्नि अभिमानी ,
शुक्ल पक्ष और दिन अभिमानी
रहे देवता ,
छः मास उत्तरायण सूरज
चमक है भरता ,
इस मार्ग से जो जाता
वह नहीं लौटता ,
मुक्त हो जाता पुनर्जन्म से ,
धारा के मानव के तन से।

जिस मार्ग में धूम अभिमानी 
रात्रि अभिमानी रहे देवता ,
कृष्ण पक्ष दक्षिणायन सूरज
में जो प्राण त्याग है करता ,
चंद्रज्योति उपयोग है करता ,
स्वर्ग सुख का भोग है करता ,
पुनर्जन्म धारा पर पाता ,
भोग स्वर्ग सुख वापस आता ।

शुक्ल ( देवयान )  और कृष्ण ( पितृयान )
मार्ग गमन का माना जाता धर्म सनातन ,
प्रथम मार्ग से पुनर्जन्म नहीं ,
दूजा से फिर पाता है तन ।

इन मार्गों को तत्त्व से
जानकर साधु योगी ,
माया बंधन से विमुक्त
हो जाते ए जन ,
इस कारण से हे अर्जुन!
तू सभी काल में ,
योगयुक्त व माया मुक्त हो
प्राप्त करो तू स्थिर तन मन ।

वेद यज्ञ व तप दान में ,
कहा गया जो पुण्य फल है ,
आत्मसात इन सबका कर्त्ता ,
तत्त्व विज्ञ जो योगी दल  है ,
भव बंधन से पार हो जाते ,
परम गति को वे पा जाते ।

************समाप्त*************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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मंगलवार, 17 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 7 )


अर्जुन को ज्ञान और विज्ञान का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 7
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान विज्ञान के विषय में उपदेश दिए हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सुनो पार्थ अब ज्ञान विज्ञान ,
हर लेता जो सब अज्ञान ,
योगाभ्यास से मन कर स्थिर
मेरी भावना को निश्चय ,
बिन संशय तू जानो कैसे
उसका देता हूं परिचय  ?

आगे बोले फिर भगवान
सुनो ज्ञान और विज्ञान ,
जिसे जान नर हो सज्ञान ,
हर ले ए मन का अज्ञान ,
इसे जान कुछ भी नहीं शेष ,
बच जाता नहीं कुछ अवशेष ।

मेरी चाहत करे अनेक ,
नहीं तत्त्व से जाने एक ,
मनुज हजारों करते यत्न ,
नहीं यथार्थ उनका प्रयत्न ,
मुझे तत्त्व से जाने जो ,
सही रूप पहचाने वो ।

पृथ्वी ,जल ,बुद्धि ,वायु व
मन ,अग्नि , अहं ,आकाश ,
आठ विभक्त प्रकृति मेरी ,
जिस पर विज्ञ करे विश्वास ।

अपरा जड़ ए आठ कहाते ,
इनसे अलग सुन उसे बताते ,
पूर्ण जगत धारण है जिनसे ,
जीव और सुन आठो ए ,
पराशक्ति कहते हैं उसको
और चेतना कहते हैं जिसको ।
( अपरा= लौकिक , भौतिक )

इन दो प्रकृतियों के कारण
संपूर्ण भूत होता  उत्पन्न ,
अतः प्रभव व प्रलय में हूं ,
सभी कार्य मुझसे संपन्न ।
( प्रभव= उत्त्पत्ति )

मोती गुंथे धागा में जैसे ,
गुंथे मुझसे सब हैं वैसे ,
इसके सिवा न कारण दूजा ,
समझा ए जो मेरी पूजा।

नभ में शब्द ,जल में रस  हूं,
सोम सूर्य में हूं प्रकाश ,
वेदों में ओंकार भी मैं हूं ,
पुरुषों में पुरुषत्व विकास ।

पृथ्वी में पवित्र गंध मैं ,
पृथ्वी का मैं तेज अनल ,
सब भूतों का जीवन जानो ,
तपियों में मैं तप का बल ।

बीज सनातन सब भूतों का ,
तेजस्वियों का तेज अनल ,
बुद्धमानों की बुद्धि में हूं ,
सुन अर्जुन मत हो विकल ।

कामना ,इच्छा ,आशक्ति हीन
बलवानों का बल हूं जानो ,
धर्म शास्त्र के अनुकूल अर्जुन ,
भूतों में मैं काम हूं जानो ।

सतो रजो तमो गुण भाव
मुझसे है उत्पन्न तू जान ,
सब कुछ मेरे है आधीन ,
किंतु मुझे स्वतंत्र तू मान ।

सात्त्विक राजस तामस भाव
से मोहित प्राणी समुदाय ,
इन गुणों से परे न माने ,
मुझ अविनाशी को ना जाने ।

त्रिगुणमयी अद्भुत इस माया
में फंस जाती सबकी काया ,
मेरे शरण में जो आ जाए ,
इस माया से पार हो जाए।

निपट मूर्ख अधम मनुज व
माया ज्ञान हर ली है जिनका ,
असुर प्रकृति में रत जन जो ,
न बसता हूं मन में उनका ।

जिज्ञासु , आर्त और ज्ञानी ,
अर्थार्थी सुन स्वाभिमानी ,
मन में करके खूब विचार
मुझको भजते हैं यह चार ।

इन चारों में मुझको जो भाता ,
ज्ञानी भक्त है उत्तम आता ,
क्योंकि तत्त्व वह माने मेरा ,
रहता नम्र बना वह चेरा ।

और तीन उदार स्वरूप ,
पर ज्ञानी है मेरा रूप ,
मेरे मन और बुद्धि ज्ञान
में ज्ञानी है स्थित जान ।

बहुत जन्म जन्मों के बाद
जिसे ज्ञान करता आबाद ,
ऐसा दुर्लभ जन भी आ
मुझ वासुदेव को भजता पा।

भोग कामना के कारण ,
अन्य देवता पूजते जान ,
अपने अपने मन को मान ,
अपनाते भिन्न विधि-विधान ।

जिसके मन में श्रद्धा आए ,
जैसा देवता पूजना चाहे ,
उसके मन में कर निवास ,
उस देवता प्रति दूं विश्वास।

इस श्रद्धा विश्वास के कारण ,
सब अपना देवता के चारण ,
अपना मन इच्छा फल पाते ,
सब मेरे प्रसाद से आते ।

पर यह फल नहीं टिक पाता ,
अंत समय है ज्योंहि आता ,
लौट उस देवता पास है जाता ,
ऐसा जन देवलोक को पाता ,
मेरे भक्त मुझे जैसे भजते ,
अंत में मुझको प्राप्त हैं करते।

बुद्धिहीन पुरुष अनजान ,
मुझे माने भू जन सामान ,
सच्चिदानंद घन अविनाशी
निराकार परम विश्वासी ,
मेरी प्रकृति को नहीं जाने,
साधारण जन सा ही माने।

योगमाया अच्छादित अपनी
नहीं प्रकट हर जगह है तन ,
अविनाशी अजन्मा मुझको
नहीं देखता मूर्ख जन ।

भूत ,भविष्य और वर्तमान
के भूतों को जानूं जान ,
इनमें न कोई पुरुष सुजान
जो मुझको पहचाने मान ।

इच्छा द्वेष घृणा उत्पन्न ,
सुख-दुख , मोह से संपन्न ,
पूर्ण जगत जीव विकल ,
खोज रहे सब सुंदर फल ।

पूर्व जन्म और इस जन्म में
पुण्य कर्म किए जो तात ,
मोह मुक्त और पाप कर्म से
छूट चुका जिनका संताप ,
मेरी भक्ति ए जन करते,
दृढ निश्चयी भक्त ए भजते ।

जरा मृत्यु से चाहे मुक्ति
ऐसा जन करे मेरी भक्ति ,
ब्रह्म अध्यात्म और पुण्य कर्म जाने,
मेरे ज्ञान और मुझको माने।

अधिदैव ,अधियज्ञ , अधिभूत
सहित जाने मुझे सपूत ,
अंत समय जब उसका आए ,
मेरे लोक को स्वयं आ जाए।
( अधिदैव,अधियज्ञ, अधिभूत अगले अध्याय 8 में बृहद वर्णित है। )

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सोमवार, 16 मई 2022

मन

शांत मन से योग रत लड़की


 

प्रसन्न मन व्यक्ति


कविता
शीर्षक - मन
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

सभी कार्य और सभी कर्म,
सभी क्रियाएं ,सभी धर्म,
सभी यत्न , सभी प्रयत्न,
सभी श्रम , सभी कार्यक्रम ।

विभिन्न कलाएं , सब विद्याएं ,
अतुल ज्ञान , सभी विज्ञान ,
सभी ग्रंथ , सभी वेद पुराण,
विज्ञ , चतुरजन या सज्ञान ।

बाइबल , गीता और कुरान ,
ब्रह्म ज्ञान अथवा ब्रह्मांड ,
भूत, भविष्य और वर्तमान ,
पंडित ,ऋषि या विद्वान ।

इस ब्रह्मांड का एक एक कण ,
धारा पर रत एक एक क्षण ,
सब बातों का एक कथन ,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न ।

अगर न तन में रहता मन ,
जगत विचरता शून्य बन ,
दूजा पेट, प्रथम है मन ,
कर्म रत इस कारण तन ।

विश्व आकर्षण यही मन ,
इसकी सेवा हेतु धन ,
जैसे ही मर जाता मन ,
व्याधि से घिर जाता तन।

योगी होता ध्यान मग्न ,
एक बिंदु पर रहता मन ,
गहरी शांति पाता जन ,
ईश्वर में जब रमता मन ।

मन हेतु सब कार्यकलाप,
गीत ताल संगीत आलाप ,
चमक-दमक सब भोजन अन्न ,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न ।

नियमित क्रिया कार्यकलाप ,
जो है पूरा करता तात ,
नियंत्रित है उसका मन ,
कहलाते ये सज्ञ सज्जन ।

नहीं ज्ञान का है दर्शन ,
अनियमित है उनका मन ,
नहीं नियंत्रित जिसका मन ,
कहलाते ये मूर्ख जन ।

घूमते ए जन पागल बन ,
रचते कलह कालिमा रण ,
शांत है करता सिर्फ मरण ,
ऐसा पागल कलुषित जन।

अच्छी बातें सीख नहीं पाते ,
शांत पुरुष से कलह मचाते ,
इन्हें काल सिखलाता फन ,
सब बातों का एक कथन,
दुखी न मन हो रहे प्रसन्न।

*********समाप्त***********

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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रविवार, 15 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 6 )


आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 6
इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश दिये हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
कर्म फल का आश्रय न ले ,
और कर्म करे सुजान ,
संन्यासी योगी कहलाता,
ऐसा अर्जुन तू यह जान ,
मात्र अग्नि के त्याग से कोई ,
न संन्यासी बनता जैसे ,
न क्रियाओं के त्याग से
योगी कहलाता जन वैसे ।

जिसको कहते हैं संन्यास ,
योग वही है ऐसा जान ,
बिन इच्छा को त्यागे कोई
योगी नहीं हो सकता मान ।

नव साधक अष्टांग योगी हेतु
निष्काम कर्म साधन कहलाता ,
सब भौतिक कार्यों का त्याग से ,
योगी सिद्ध नर है बन जाता ।

भौतिक सब इच्छाओं को त्याग
इंद्रियों तृप्ति हेतु कार्य न करता,
न सकाम कार्यों में प्रवृत्त जो
योगारूढ़ प्रभु में विचरता ।

मन के कारण अधोगति
और मन के कारण हो उद्धार,
मन है मित्र और मन ही शत्रु ,
जैसा मन वैसा विचार ,
अतः मनुज को चाहिए जैसा
रखे नियंत्रण मन पर वैसा ।

जिसने मन पर किया वश ,
उनके लिए मन है मित्र ,
जिसने मन पर किया न वश ,
उनके लिए मन बना अमित्र ।

सर्दी -गर्मी , सुख -दुख आदि ,
मान और अपमान ,
इनमें दृढ़ बना जो जन है ,
उनको योगी मान ,
परमात्मा में उनका ध्यान ,
इसके सिवा न दूजा ज्ञान।

ज्ञान और विज्ञान से तृप्त जन ,
शुद्ध स्वच्छ है जिनका तन-मन ,
इंद्रियों पर जिसको वश ,
अपने ऊपर जिसको कस ,
सोना- मिट्टी  एक समान
और रत्नों पर भी नहीं ध्यान ,
सब कहते हैं ऐसा तन,
कहलाता है योगी जन ।

पापी ,वैरी , द्वेषी आदि
बंधु , मित्र , सुहृदय इत्यादि ,
उदासीन , मध्यस्थ , अभिमानी
के संग भी सम है जो प्राणी ,
श्रेष्ठ नर है वह कहलाता ,
योगी में गिना जन जाता।

इंद्रियों और मन पर तन पे ,
करे नियंत्रण जो जन  वश में ,
आकांक्षाओं और संग्रह से
रखे दूरी ,अकेलापन में
परमात्मा में ध्यान लगाए ,
ऐसा जन योगी कहलाए ।

योगाभ्यास का सुनो बयान ,
योगी चुनता जगह एकांत ,
कुश बिछा रखे मृगछाला ,
उन पर वस्त्र मुलायम डाला ,
आसन बहुत न ऊंचा नीचा ,
जगह पवित्र में है यह बिछा

उस पर बैठकर योगी तन
स्थिर करता अपना मन ,
इंद्रियों पर करता वश ,
अंतःकरण को करता कस ,
एक बिंदु पर रखे मन ,
इनको कहते योगी जन ।

तन ,गर्दन और सिर को ,
एक सीध में रखता योगी,
और नाक के अग्र भाग को
देखें आंखें  स्थिर हो ,
और न दूजा चीज उसे
देती दिखलाई
यही तरीका योग का
सब ने सिखलाई।

इस प्रकार वह मन को रोककर
और भयहीन होकर ,
विषयी जीवन से पूर्णतया
मुक्ति लेकर,
मन में मेरा चिंतन लाए ,
अपना परम लक्ष्य बनाए ।

जिस योगी का मन हो नियंत्रित ,
और मन मुझ में है रमता ,
परमानंद परम शांति को ,
सहज सरल में पा जाता वो ।

अति भोजन या नहीं भोजन ,
अति शयन या नहीं शयन ,
से नहीं योग की होती सिद्धि ,
ऐसा सोचे अज्ञ कुवुद्धि।

नियत कर्म और नियमित भोजन ,
नियमित आहार- बिहार ,
नियमित सोना , नियमित जागना,
नियमित सभी व्यवहार ,
ऐसा नियम जिसे है भाता ,
योगी जन वह नर कहलाता।

मानसिक कार्यकलापों पे कस ,
सभी भौतिक इच्छाओं पर वश ,
अध्यात्म में मन को लगाता ,
ऐसा नर योगी कहलाता।

हवा रहित स्थान में दीपक
हिलता-डुलता है नहीं जैसे ,
परमात्मा के ध्यान में योगी
अपना मन को रखता वैसे ।

योग के अभ्यास से
आत्म शक्ति आ जाती ,
परमात्मा के ध्यान से
बुद्धि शुद्ध हो जाती ,
उपरोक्त अभ्यास से
संतुष्टि मिल जाती ,
अंत समय आ जाता
तो मुक्ति मिल जाती ।

इंद्रियों से परे अति सूक्ष्म विशुद्ध
परमानंद आनंद को जो अपनाता है ,
जिस रूप से या जैसे जो भी पाता है,
सिद्ध सज्ञ नर वह योगी कहलाता है।

परम आत्मा की प्राप्ति
लाभ बड़ा कहलाया है ,
इसके सिवा लाभ न दूजा
जिसको कोई पाया है,
इस लाभ को जिसने पाया ,
कोई संकट नहीं सताया ।

दुख रूपी संसार है भोग ,
इसे छुड़ाता वह है योग ,
धैर्य और उत्साह के साथ
जो करता वह बनता नाथ ,
परम शांति पाए वो
इसको अपनाए नर सो।

संकल्प और श्रद्धा के साथ
योगाभ्यास में लगता जो ,
जो न कभी अपने पथ से
संकट पाकर विचलित हो,
भांति-भांति की इच्छाओं को
मन से त्याग है करता जो ,
सभी ज्ञान इंद्रियों पर
वश में रखता है जो नर ।

धीरे-धीरे दृढ़ता से
एक बिंदु पर रखे मन ,
अपने मन को आत्मा में
स्थित करता है जो जन ,
इसके सिवा न सोचे जो ,
योगी बन जाता है वो ।

चंचल मन नहीं रहता स्थिर ,
यत्र तत्र यह करता विचरण ,
इन्हें रोक जो वश में लाए,
सिद्ध पुरुष में गिना जाए।

शांत चित्त और मन हो जिसका ,
रजोगुण नहीं जिसे लुभाए ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म संग वह
एकी भाव से सुख को पाए ।

पाप रहित मानव निरंतर
परमात्मा में सब कुछ पाता ,
परम ब्रह्म संग रहे आनंदित ,
अनंत आनंद आत्मा में आता ।

सभी भूत स्थित आत्मा में ,
एकी भाव से देखने वाला ,
अपने को पाए सब मन में ,
सभी मन को अपने तन में।

सब भूतों को आत्म रूप में
मुझे देखता है साधक जो ,
उसके लिए अदृश्य नहीं मैं ,
नहीं अदृश्य मेरे लिए वो ।

परमात्मा और मुझे नहीं
माने जो दूजा ,
भक्ति पूर्वक जो करता
है मेरी पूजा ,
सदा है स्थित रहता मुझ में
ऐसा ही जन ,
विचलित कभी नहीं होता
इस योगी का मन ।

अपनी भांति सब भूतों को
जो है देखे ,
सुख और दुख में भी जो
सम है पेखे ,
परम श्रेष्ठ ऐसा योगी जन
है कहलाता,
सुनो पार्थ यह तत्त्व सदा
सब सज्ञ सुनाता ।

अर्जुन उवाच-
मधुसूदन से बोला पार्थ ,
कृपा कर प्रभु सुने आप ,
बतलाया जो योग दर्पण ,
समझ ना पाया मेरा मन ,
क्योंकि चंचल होता मन,
स्थिर नहीं कर पाता जन।

मन है चंचल, मन है हठी ,
मन बहुत बलवान ,
वश में करना ऐसा मन को
बड़ा कठिन भगवान ,
वश वायु  कर सकता नर ,
पर मन वश करना दुष्कर ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से ब़ोले भगवान -
मन चंचल है निश्चित जान ,
मुश्किल से यह वश में आता ,
दुष्ट मूर्ख नहीं वश कर पाता ,
अभ्यास वैराग्य से इस पर ,
सज्ञ विज्ञ है विजय बनाता ।

जिनका मन वश में नहीं जानो,
उनको योग कठिन है मानो ,
जिनका मन वश में है जानो ,
उनको योग सहज है मानो ,
ऐसा मेरा मत है जानो ,
अपने को अर्जुन पहचानो ।

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - कृपा निधान!
इस संशय का करें निदान ,
योग में श्रद्धा रखता जो ,
पर संन्यासी नहीं है वो ,
अंतकाल जब उसका आया ,
योग से मन को विचलित पाया ,
ऐसा जन क्या गति को पाए ?
कृपा कर श्रीमान बताएं ।

छिन्न-भिन्न मेघों की भांति
नष्ट हो जाता है क्या यह जन ?
अथवा भगवत् प्राप्ति करता
ऐसा जन मानस  का तन ।

अर्जुन  बोला- हे श्रीमान !
उपरोक्त का करें निदान ,
आप सिवा नहीं दूजा नर ,
इन प्रश्नों का दे उत्तर ।

भगवान उवाच -
कल्याण का करता कार्य ,
नहीं नाश वह पाता आर्य ,
लोक और परलोक कहीं ,
जहां कहीं भी रहे सही ,
अतः भलाई का यह प्यारा ,
नहीं बुराई से है हारा ।

योग भ्रष्ट भी योगी जन ,
स्वर्ग लोक पा जाता जान ,
बहुत वर्ष तक करके भोग ,
पुनः जन्म है लेता मान ,
सदाचारी समृद्ध धनवान
के घर जन्म है लेता जान।

नहीं नीच कुल को है पाता ,
सज्ञ विज्ञ के घर है आता ,
अज्ञों के हेतु दुर्लभ ,
पर योगियों के लिए सुलभ ।

पुनर्जन्म के पुण्यों से
पुनः योग संस्कार है पाता ,
पहले से भी बढ़कर वो ,
धर्म मार्ग में मन को लगाता ।

पूर्व जन्म के चेतना ज्ञान
स्वत: उसे आकर्षित करता ,
शास्त्र नियम नहीं उस पर लगता ,
परे शास्त्र से कार्य वो करता ।

पर सत्  कर्मक  इसी जन्म में ,
सब पापों से मुक्त हो जाता ,
पूर्व जन्म के पुण्यों के बल
परम गति को है पा जाता ।

तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी
शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ ,
कर्म सकाम करने वालों से
योगी हरदम होता है जेष्ठ,
अतः पार्थ तू योगी बन ,
स्थिर कर तू अपना मन ।

योगियों में भी श्रद्धावान
जो योगी मुझको भजता जान ,
ऐसा जन है मुझको भाता ,
मेरा परम भक्त कहलाता।

****************समाप्त****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 14 मई 2022

आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि की रचना की


आदिशक्ति 


महेश ,आदिशक्ति , विष्णु और ब्रह्मा ( बाएं से दाएं )


कविता
शीर्षक- आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि उत्पन्न की
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

पराग सदृश एक तेजस्वी का 
गुणोगान है इस भू पर ,
सबका  गुरु है यह गुणी
जिन्हें कहते कुछ शिवशंकर ,
त्रिनेत्र , मृत्युंजय आदि ,
कैलाशपति और शंभू भी ,
रामनाथ , गंगाधर जिनको भी
कहते हैं कभी-कभी ।

प्रभा युक्त इस चंद्रशेखर की
जन्म कथा बतलाता हूं ,
पौराणिक कथाओं के संग
वैज्ञानिक बात  दिखता हूं ,
महाप्रलय हो जाने पर
जब सब कुछ नष्ट हो जाता है,
विस्तृत भू ,चंद्र ,सूर्य
न जाने कहां खो जाता है।

एक शक्ति सिर्फ बच जाती है ,
जो आदिशक्ति कहलाती है,
इसी शक्ति के हेतु से
फिर नव सृष्टि बन जाती है ,
द्वय नवीन वस्तुओं का
जब मेल परस्पर होता है,
दोनों की क्रिया प्रतिक्रिया
एक नई वस्तु जन्माती है ।

जब चलता पवन है मंद मंद
कैसा मनमोहक होता है ,
अपनी शीतलता दान कर
यह मर्म हमारा छूता है ,
क्षुधित व्याघ्र सा यही कभी
विकराल रूप जब करता है ,
बड़े-बड़े पादप तक को भी
समूल नष्ट यह करता है।
( पादप= पेड़ )

ग्रीष्म ऋतु में प्रायः हम
एक ऐसी घटना पाते हैं ,
मंद वायु को कभी कभी
हम चक्रवात में पाते हैं ,
हल्दी एवं चूना का कभी
मेल परस्पर होता है ,
मिलने के चंद पलो बाद
लाल रंग मिल जाता है।

दूध दही का जनक रहा,
इससे भिज्ञ सारा जग है ,
बीज का ही पुत्र
कहलाता इस भू पर नग है ,
पतझड़ ऋतु में तरु के पत्ते
समग्र गिर जाते हैं ,
नर कंकाल सा सिर्फ तरु के
ढांचा मात्र बच जाते हैं।
( नग = पेड़-पौधा )

विगत दिनों की यादों में
ये अश्रु धारा बिखराते हैं ,
इसके कुछ ही दिनों बाद
एक नव घटना हम पाते हैं ,
सुंदर-सुंदर मुलायम कोपलें
आ जाते तब ,
मस्त हाथी सा झूमने लगते ,
अपनी दशा देख द्रुह अब ।
( द्रुह= पेड़ )

शाल्मली का लाल पुष्प
कितना चारुमय  होता है ,
इसकी मनमोहकता में
समग्र खग खो जाते हैं ,
प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
कुछ दिनों में बन रूई श्वेत ,
खग समूह को फल की आशा
को कर देता  मटियामेट ।
( शाल्मली = सेमर का पेड़ )

प्रतिक्रिया के कारण ही
यह खेल तमाशा होता है ,
नया रूप प्रकृति में
इसके कारण ही आता है ,
आदिशक्ति अभेदी है ,
अखंडित है निराकारी ,
प्रतिक्रिया के कारण यह
कभी  हो जाती है साकारी ।

इसी आदिशक्ति ने पहले
ब्रह्मा को था जन्माया ,
सृष्टि हेतु शादी अपने साथ
करने को फरमाया ,
माता के संग ऐसा प्रस्ताव को
ब्रह्मा ने अस्वीकार किया ,
इसके बदले मौत भली है
उन्होंने स्वीकार किया ।

नकारात्मक उत्तर कारण
ब्रह्मा स्वर्ग सिधारे थे ,
विष्णु जन्मे तत्पश्चात थे
प्यारे और दुलारे थे ,
प्रश्न वही शादी करने को
फिर उसने दोहराया था ,
कर्म निष्ठ  मर्यादा श्रेष्ठ
विष्णु को फिर  भरमाया था ।

नकारात्मक उत्तर से तब
विष्णु स्वर्ग सिधारे थे ,
तेजपुंज कैलाशपति
इसके ही बाद पधारे थे ,
प्रश्न वही पाणिग्रहण
इनके समक्ष भी आया था,
निम्नलिखित ढंग से तब
शिव शंभू ने सुलझाया था।
( पाणिग्रहण = विवाह )

तू जननी मैं सुत तेरा
कैसा यह पावन है नाता ,
इस रूप में यह क्रिया
तुम ही सोचो क्या हो सकता ?
दो शर्त्तों को मानो तो
यह सृष्टि  हो सकती है  ,
अपना पावन यह रूप तज
दूसरा रूप ले सकती है ।

स्वर्गीय भ्राता जिंदा हो
दूसरी शर्त है यह मेरी ,
सृष्टि करने हेतु  बस
इतनी कृपा है तेरी ,
सकारात्मक उत्तर से
इस धर्म कथा का हुआं अंत ,
आदिशक्ति बदली दुलहन में
और शिव शंभू बन गए कंत।

**********समाप्त****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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शुक्रवार, 13 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( भाग 5 )

कर्म और कर्म संन्यास का उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय- 5
इस अध्याय में कर्म और कर्म संन्यास के विषय में अर्जुन को उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण

रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग को ,
दोनों ही बतलाते आप,
दोनों में से हो एक उचित ,
कल्याण हेतु बताएं तात।

भगवान उवाच-
कर्म संन्यास और कर्म योग
दोनों जन के हितकारी है ,
कर्म संन्यास से कर्मयोग ,
सुगम परम उपकारी है ।

नहीं किसी से करे आकांक्षा ,
नहीं किसी से रखता द्वेष ,
कर्म योगी सदा संन्यासी ,
राग,द्वेष,द्वन्द रहे न शेष ,
सुख पूर्वक जीवन है पाता ,
सब बंधन से मुक्त हो जाता।

कर्म और संन्यास योग
है अलग-अलग नहीं विज्ञ बताते ,
एक ही फल के दाता दोनों,
अतः दोनों ही एक कहाते ।

सांख्य ( ज्ञान )योगी और कर्म योगी  ,
फल एक ही पाता ,
अतः दोनों को जो एक देखे ,
वह सही में देख है पाता ।

बिना कर्म योग , संन्यास
मानव का कर देता नाश ,
चौथापन ज्योंहि है आता,
कर्मयोग संन्यास कहाता,
परब्रह्म को प्राप्त हो जाता,
कर्मठ हरदम पूजा जाता।

जिसका मन है अपने वश में ,
योग युक्त विशुद्ध है आत्मा ,
जितेंद्रिय कहाता जो जन ,
भाए सर्वभूत परमात्मा ,
ऐसा कर्मठ कहीं लिप्त न होता ,
कहीं व्यर्थ में समय न खोता ।

पश्य, श्रवण, स्पर्श, गमन कर ,
भोजन , श्वास व नींद भी लेकर ,
त्याग, ग्रहण, बोलना आदि
सूंघना, लेन-देन इत्यादि ,
आंख मूंदना और खोलना  ,
सब इंद्रियों का रत रहना ,
इन सब को अकर्त्ता माने ,
तत्त्वविद इन्हें दुनिया जाने।

संग आसक्ति त्याग कर्म करे ,
परमात्मा में कर विश्वास,
लिप्त पाप से हो नहीं वैसे,
पद्म पत्र पर जल हो जैसे।

आसक्ति को त्याग मनुज जो ,
कर्म करे कर्म योगी कहाए ,
कर्म करे वह तन से मन से ,
बुद्धि से व इंद्रियों से ,
आत्म शुद्धि और शांति पाए ,
सभी ग्रंथ इसको बतलाए।

कर्म फल का भय जो त्यागे ,
शांति पूर्वक मुझमें राजे ,
कर्मफल का भय सताए,
आसक्ति में बंधता जाए ,
काम कामना के ही कारण ,
आसक्ति नर करता धारण।

नौ द्वार से बना शरीर,
अंदर बसता मन अजीर्ण ,
सभी कर्म का भोग है करके ,
भोग तज संन्यास में रम के ,
बिना किए कुछ सुखी है रहता,
ऐसा जन दुखी नहीं रहता।

प्रभु सब कुछ सृजन करके ,
प्रकृति को दिए भगवान ,
नहीं कर्म करने को कहते,
फिर भी कर्म करे इंसान ,
जीव अपने स्वभाव के कारण ,
कर्म क्रिया को करता धारण ,
प्रकृति गुण स्वभाव बनाता ,
जो जन जैसा वैसा भाता।

नहीं किसी के पाप पुण्य का
प्रभु होते उत्तरदाई ,
अज्ञान है दुख का सागर ,
ज्ञान सभी कहते सुखदाई ,
अज्ञान और मोह के कारण
ज्ञान बना रहता है चारण ।

ज्ञान है जैसे मानव पाता ,
अविद्या का नाश हो जाता ,
ज्ञान से सब कुछ प्रकट हो जाता ,
दिव्य दृष्टि उसको मिल जाता ,
दिन में सूरज जैसे आता ,
ज्ञान है वैसा ज्योति लाता ।

मन बुद्धि श्रद्धा से जो जन ,
प्रभु परायण बन जाता है ,
पूर्ण ज्ञान तब प्राप्त है करता ,
अविद्या सब छूट जाता है ,
मुक्ति पथ पर गमन है करता ,
रजगुण तमगुण चारण बनता ।

विद्या विनय पूर्ण यह व्यक्ति ,
समदर्शी गुण अपनाता है ,
ब्राह्मण गौ हाथी और कुत्ता ,
चंडालों में सम पाता है ।

जिसका मन सम भाव में स्थित,
जीता जीवित जग है जानो ,
परम पिता प्रभु गुण भी यही ,
अतः इन्हें परम ही मानो।

प्रिय न  जिनको हर्षित करता,
ना अप्रिय करे उद्विग्न,
ब्रह्मविद निर्मोही स्थिर
बुद्धिमान न होता खिन्न ,
परमात्मा संग नित्य विराजे ,
एकीभाव से ब्रह्म में राजे ।

बाह्य आसक्ति न जिन्हें लुभाए ,
भौतिक आकर्षण न खींच पाए ,
अपना मन आत्मा ही भाए ,
परब्रह्म को वह पा जाए ,
अक्षय आनंद का है यह सार ,
परमसुख का यह संसार ।

जो सुख मिलता इंद्रियों से ,
उसका आदि अंत है होता ,
इस अनित्य सुख में अर्जुन
विज्ञ रम कर समय ना खोता ।

काम क्रोध मन को उकसाए ,
इंद्रियों में वेग है लाए ,
दुर्जन इस में आग लगाए ,
आम पुरुष इसे रोक न पाए,
जो है रोका सही कहाए ,
साधक योगी वह कहलाए ।

अंतरात्मा में सुख पाता ,
अंतर्मुखी है वह कहलाता ,
अंतरात्मा में जो रमता,
अंतर्मुखी जग है कहता ,
आत्मा में ही ज्ञान है पाता ,
आत्मज्ञानी है वह कहलाता ,
परमात्मा संग ज्ञान है पाता,
सांख्य योगी है वह कहलाता ,
अंत समय जब उसका आता ,
शांत ब्रह्म को वह पा जाता।

सभी पाप नष्ट है जिनका ,
ज्ञान सभी संदेह हटाया ,
सभी जीवो के हित में रत जो ,
  स्थिर मन से स्थित ब्रह्म को ,
ब्रह्म वेत्ता जन यह कहलाता ,
ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त हो जाता।

जीत चुका भौतिक इच्छाएं ,
काम क्रोध नहीं उसको आए ,
आत्म संयमी वह बन जाता ,
परम शांत ब्रह्म को पा जाता ।

इंद्रिय विषयों को बाहर धर के ,
दृष्टि भृकुटी के बीच करके,
प्राण अपान रोके नाक के अंदर ,
इंद्रिया बुद्धि मन वश कर,
इच्छा भय क्रोध रहित हो जाता ,
मुक्त होकर वह मोक्ष पा जाता ,
यह अवस्था सदा रहे गर
परमानंद रहे उसके अंदर ।

सभी यज्ञ तपो का भोक्ता ,
सब ईश्वर का भी मैं ईश्वर ,
सब लोकों का भी मैं मालिक ,
सब देवों का मैं परमेश्वर ,
सभी जीवों का मैं उपकारी ,
मेरा कथन माने सुखकारी ,
मुझे तत्त्व से जाने जो जन ,
परम शांति पाता वह मन ।

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