बुधवार, 4 मई 2022

प्यार का लक्षण

 

* गीत *
प्यार का लक्षण
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

जब दिन में सपना आए ,
जब मुख पे पसीना छाए,
जब नैना चार हो जाए ,
इकरार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं।


भूल जाते प्रेमी जात पात ,
नहीं भाता है दाल भात ,
मन घूमता रहता पात पात ,
बाहर इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं ।


खोजते रहते ए आठ पहर ,
कैसे पा जाएं एक नजर ,
मन में उठती रहती है लहर ,
मन सोचता रहता आठों पहर ,
आंखें देखती रहती डगर ,

इंतजार इसी को कहते हैं ,

सब प्यार इसी को कहते हैं ।


मन ही मन प्रेमी मचलते हैं ,
निर्जन जगह को चलते हैं ,
कुछ मिट जाते , कुछ मिलते हैं ,
दीदार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं।


कुछ सच्चा प्रेमी होते हैं ,
कुछ प्रेम भी अपना खोते हैं ,
कुछ हंसते हैं, कुछ रोते हैं ,
संसार इसी को कहते हैं ,
सब प्यार इसी को कहते हैं


इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

रोआरी ,प चंपारण ,बिहार ,भारत

Mobile 6201400759

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मंगलवार, 3 मई 2022

विचार ( भाग १ )


इंजीनियर पशुपतिनाथ चिंतनशील मुद्रा में


 कोटेशन                  

 विचार  ( १ )

रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद              

  ** कोई कुछ भी महत्वपूर्ण  नहीं , नहीं कोई ईश्वर या खुदा है । किसी को महत्वपूर्ण या भगवान बनाती है मान्यतता , और मान्यता और कुछ नहीं लोकमत है ।। **


** लोकमत अपना कर्तब्य तथा मत को विश्व  पटल पर प्रस्तुत कर प्राप्त की गयी प्रशंसा का अंश है । यह अंश जितना बड़ा होगा वह उतना बडा़ तथा महान है । **



** अगर अंको में देखा जाय तो विद्वानो  तथा महानो की प्रशंसा का अंक मूर्खों तथा साधारण पुरुषो की प्रशंसा के अंक से ज्यादा होता है ।
इसलिए एक विद्वान तथा महान् द्वारा की गयी किसी की प्रशंसा का महत्व ज्यादा  होता है । यह सौ , हजार जन की प्रशंसा के बराबर होता है । **



** दुष्ट और दुष्टता उत्तेजना पैदा करते हैं । उत्तेजना विवेक नष्ट करता है । अपना विवेक अनुसार कार्य करना ही सर्वोत्तम उपाय है । **


** किसी की सफलता उसके कर्मो का द्योतक है ।और कर्म ; उसके मन , इच्छा और मस्तिष्क में उपजे बिचारों का । और मन , इच्छा , बिचार  उसके चारो ओर के वातावरण , वातावरण को देखने का नजरिया एवं अध्ययन मनन का । **


** वैसे तो मानसिक अस्थिरता का कोई निदान नहीं , लेकिन सिलसिलवार कार्य , समय पर कार्य , पूर्व नियोजित कार्य , शठ संगत परित्याग तथा फालतू बातों कों उपेक्षित कर के चलना दो तिहाई निदान है । **

** लोग जितना योजना बनाने पर ध्यान देते , उतना ही यदि उसके कार्यान्वयन पर दे तो लाभ अधिक होता ।**


** जिवन में किसी क्षण , जगह ,आवस्था में शिथिलता निराशा का ही द्योत्तक है । तथा यह सफलता , सुख , समृध्दि को दूर ही करता है । **


** योजना तथा समय की माँग में तालमेल हो तो वह सही है । यदि दोनो की दिशा दो हो तो अराजकता पैदा होती है । **


** आवश्यकता पैसा का दास है ; पैसा सही योोजना का ; और सही योयना समय की माँग तथा कार्यान्वयन का । **


** आयु , विचार एवं इच्छा मन पर निर्भर है । था मन वातावरण पर । **


** समय की मांग , अपना सामर्थ्य तथा अपना मन के अनुसार कार्य करना ही सर्वोत्तम रास्ता है । **


** प्रारब्ध तथा कर्म में किसे चुना जाय -- तो कर्म को -- क्योंकि प्रारब्ध ईश्वरीय है -- शायद अचल भी और अपना वश से बाहर । लेकिन कर्म हस्ताधिन है । अत: अपना पूरा ध्यान , शक्ति से कर्म करना सर्वोत्तम रास्ता है । **


** अपनी योजना , अपना विचार से काम करने पर यदि असफलता भी मिले तो भी यह दूसरों से बेहतर है , क्योंकि इसमें सुधार की गुंजाइस है , तथा दूसरो में नहीं है।**


** व्याकरण भाषा का संविधान है , और सभ्यता समाज का ।**


** किसी वस्तु ( पदार्थ ) की उत्पत्ति का कारण प्रकाश , ध्वनि एवं ताप है । तथा किसी भी वस्तु का पूर्ण विनाश से यहीं तीन प्राप्त होता है । **


** प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक तरंग होता है ।वही उसकी आत्मा है , वही उसकी गतिशीलता है । यदि यह तरंग क्षीण हो जाय तो वह निराश हो जाता है । यदि यह तरंग लुप्त हो जाय तो उसकी मृत्यु हो जाती है ।  संगीत यही तरंग उत्पन्न करता है । इसलिए व्यक्ति अपने मन के अनुसार संगीत पसंद करता है । **

           

** निराश से निराश व्यक्ति के मन - तरंग के अनुसार संगीत सुना दिया जाय तो उसका जीवन की शक्ति बढ़ जाती है । **


"* बिचार ,मन एवं इच्छा , प्रकाश की तीव्रता , समय तथा वातावरण पर निर्भर करते हैं । यही कारण है कि विभिन्न रंग , जगह और समय में भिन्न विचार , भाव तथा इच्छा उत्पन्न होतें हैं ।**


** मेरे दादा कहते थे कि अगर कोई बारह वर्ष तक झूठ नहीं बोले तो उसके बाद जो कहेगा वह सत्य होगा । कारण , इतने दिनों का अभ्यास उसे इतना अभ्यस्त कर देगा कि वह वही कहेगा जो हो रहा है , हुआ है या होनेवाला है , अथवा बोलेगा ही नहीं , चुप रहेगा । **


** किंवदन्तियाँ एकदम असत्य है ऐसी बात नहीं ,   बल्कि  समयान्तराल में पानी मिलाये दुध सा अशुध्द हो गयी हैं ।** 


** लोकोक्तियाँ , मुहावरा एवं कहावतें समाज रूपी समुद्र मन्थन से निकली रत्न हैं , जो अर्जुन के तीर सा कलेजा और मस्तिष्क में चुभकर अच्छाई के प्रति दर्द उत्पन्न कर सजग करती हैं । **


** भावात्मक सोच ( विचार ) एवं वौध्दिक सोच में किसे यथार्थ माना जाय -- तो वौध्दिक सोच को -- क्योकि जहाँ भावात्मक सोच प्राय: तन्द्रा अवस्था की देन है वहाँ वौध्दिक सोच पूर्णत: सजग एवं तार्किक अवस्था की । **

( स्वरचित पुस्तक " विचार " से )
क्रमशः

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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सोमवार, 2 मई 2022

संस्कृत वाङ्मय ( आर्ष ग्रन्थ ) में विज्ञान

    

संस्कृत वाङ्मय का मुख्य योगदान कर्त्ता श्री वेद व्यास



                    ( 1 )

           संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान

    लेखक - इंजीनियर पशुपति नाथ प्रसाद

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संस्कृत एक भाषा है । भाषा और लिपि में अन्तर है । मैंने अपनी  पुस्तक  " विचार " में भाषा और लिपि का अन्तर  बताया है । प्रस्तुत है उसका सारांश - " भाषा ध्वनियों की समय के  साथ गुँथी माला है , वहीं लिपि ध्वनियों यानी भाषा का प्रतिरूप " । कुछ मतानुसार संस्कृत भाषा की लिपि ब्राह्मी थी , बाद में देवनागरी में लिखी गयी ।

    हिन्दी शब्दकोशानुसार 'वाङ्मय' का शब्दार्थ है - " वचन संबंधी " , " पढ़ने लिखने के विषय का " । इस हिसाब से " संस्कृत वाङ्मय " का अर्थ होगा संस्कृत में आर्ष वचन संबंधी ज्ञान यानी ऋषियों द्वारा दिया गया ज्ञान ।

    अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत का अपना मूल ज्ञान क्या है ? कहाँ है ?  क्या वह आधुनिक विज्ञान के समतुल्य है , अथवा आधुनिक विज्ञान का जनक है वगैरह ।

    आयें , इस विषय पर एक एक कर विचारा जाय । किसी  भी भाषा का अपना मूल ज्ञान , विद्या की जड़ पुस्तकें हैं । अत: संस्कृत  वाङ्मय  की जड़ संस्कृत का मूल ग्रंथ है । और ये हैं - सर्व विदित विश्व प्राचीन चार वेद , छ: शास्त्र यानी दर्शन , अठारह पुराण , उपनिषद , स्मृति एवं संहिता इत्यादि ।

    आधुनिक वैज्ञानिक जगत इन पुस्तकों में संकलित ज्ञान को अध्यात्म तो मानता है , परन्तु  आधुनिक विज्ञान या विज्ञान का जनक मानने में संकोच करता है । और आधुनिक विज्ञान का मूल यूरोप या अमेरिका को मानता है । निसंदेह यूरोप या अमेरिका ने आधुनिक विज्ञान को समृद्ध किया , बढ़ाया , परंतु जनक है इससे मैं सहमत नहीं । 

    प्रसिद्ध भौतिकविद् अलबर्ट आइंस्टाइन लिखते हैं -- " वैज्ञानिक विचार पूर्वज्ञान ( Prescientific thought ) का विकाश है  ( आइडीयाज एन्ड ओपिनयन्स , पृष्ठ 276 )  ।" और पूर्वज्ञान और कुछ नहीं , अध्यात्म ही है , तथा संस्कृत वाङ्मय निसंदेह अध्यात्म का खजाना है ।   


                       ( 2 ,)

इससे प्रस्तुत है कुछ उद्धरण  ( extract ) - वैशेषिक दर्शन का रचयिता महर्षि कणाद से सभी परचित हैं । इन्होंने सर्व प्रथम ( आवोगाद्रो से बहुत पहले ) अणु की परिभाषा दी है - " अतो विपरीतमाणु ।। वै. अ. 7 आ. 1 सू. 10 ।। ( अर्थात् महत् यानी बड़ा के  विपरीत अणु कहना चाहिए )

अणुमहत् इति तस्मिन् विशेषभावात् विशेष अभावात् च ।। वै. अ. 7 आ.1 सू. 11 ।। ( अर्थात् अणु और महत् वस्तु में विशेष होने से और विशेष न होने से ही यह होता है ।)
इन्होंने गुरुत्व ( Gravity ) की परिभाषा न्यूटन साहब से बहुत पहले दी थी । प्रस्तुत है -
    संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् ।। वैै. अ. 5 आ. 1 सू. 7 ।। ( अर्थात् संयोग का अभाव हो जाने पर गुरुत्व के कारण गिरता है । )
इसके सिवाय वैशेषिक दर्शन विज्ञान का भंडार है ।


     शून्य और पाई का अविष्कारक तथा गुप्तकाल के महान् गणितज्ञ एवं खगोलविद् आर्यभट जगत प्रसिद्ध हैं । ये गणितज्ञ एवं खगोलविद् ही नहीं भौतिकविद् भी है । आपेक्षिक वेग ( Relative velocity ) पर प्रस्तुत है इनका विचार --
    अनुलोम गतिनस्थि: पश्यत्यचलं विलोमयं यद्वत् ।
    अचलानि मानि तद्वत् सम पश्चिमगानि लंकायाम् ।। आर्यभटीय गोलपाद - 6 ।। 

 अर्थात् जैसे ऊँचे से नीचे गतिशील को आस पास उलटा चलता दिखाई पड़ता है , उसी प्रकार पश्चिम की ओर गतिशील को लंका यानी दक्षिण में दूर स्थित वस्तु अचल ( स्थिर ) जान पड़ता है । 
    पृथ्वी गोल है तथा परिक्रमा करती है इस पर इनका कथन प्रस्तुत है -
    वृत्तभपंजरे मध्ये कक्षा परिवेष्टित: खमध्य गत: ।
    मृज्जल शिखि वायुमयो भू गोल: सर्वेता वृत: ।। उपरोक्त पुस्तक से ।।
अर्थात् वृत्ताकार ढाँचा मध्य में कक्षा से घिरा आकाश बीच गतिशील  मृदा , जल , अग्नि तथा हवा युक्त पृथ्वी चारो ओर से गोल है । 

            

                    ( 3 )

ये उपरोक्त उद्धरण गैलीलियो गैलिली , न्यूटन तथा दूसरे पश्चात् विद्वानों से पहले का है ।

    प्राय: आम धारणानुसार भौतिक शास्त्र के ज्ञान को विज्ञान माना जाता है तथा इनका उपयोग को प्रौद्योगिकी , परन्तु विज्ञान की वृहत् परिभाषा है - " संसार के क्रमबद्ध तथा सिलसलेवार ज्ञान को विज्ञान कहते हैं ।"

इसलिए समाज शास्त्र , राजनीति शास्त्र , गणित , ज्यामिति , खगोल और प्राणी शास्त्र वगैरह भी आज के युग में विज्ञान की श्रेणी पा गये हैं । आजकल सभी प्रश्नो का जवाब विज्ञान है । अब संस्कृत वाङ्मय  में इन विज्ञानों को अवलोकन करें ।

    यजुर वेद और गणित - " एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे ......।। यजु. वे. अ. 18 मं. 24 ।। ( अर्थात् एक में दो जोड़ो तीन , तीन में दो जोड़ो पाँच , पाँच में दो जोड़ो सात वगैरह । ) प्रस्तुत उद्धरण  श्रीमद् दयानंद सरस्वती रचित " सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋगवेदादि भाष्य भूमिका " से है ।

    वर्ण और शब्द तथा संस्कृत वाङ्मय  --- अब निम्न माहेश्वर चौदह सूत्रो को परखा जाय ।

1. अइउण्  2. ऋलृक्  3. एओङ्  4. ऐऔच्      5. हयवरट्  6. लण्  7. ञमङणनम्  8. झभञ्  9.घढधष्  10. जबगडदश्  11. खफछठथचटतव्  12. कपय्  13.शषसर्  14.     हल्  ।। अष्टाध्यायी , पाणिनि व्याकरण ।।

     उपरोक्त चौदह सूत्र और कुछ नहीं , बल्कि देवनागरी वर्णमालाएँ का जनक हैं । यानी --    अ आ इ ई उ ऊ , ए ऐ ओ औ अं अ: , क ख ग घ ङ , च छ ज झ ञ , ट ठ ड ढ ण , त थ द ध न , प फ ब भ म , य र ल व श ष स ह  , वगैरह ।

दूसरे शब्दों में इन उपरोक्त वर्णों से बने हैं ये चौदह शब्द ( सूत्र ) ।

महर्षि गौतम रचित न्याय दर्शन शब्द की परिभाषा ऐसे दिया है --

  आप्तोपदेश: शब्द: ।। न्या. दर्श. अ. 1 आ. 1 सू . 7 ।। ( अर्थात् विद्वानों का उपदेश कालांतर में शब्द बना । )

 

                    ( 4 )

अब उद्धृत है प्रथम मनु का उपदेश जो ब्रह्मऋषि भृगु द्वारा प्रसिद्ध संस्कृत  वाङ्मय मनुस्मृति में संकलित है -


ऋतु कालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरत: सदा ।
पूर्ववर्ज व्रजेच्चैना तद्व्रतो रतिकाम्यया ।।
ऋतु स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रय: षोडश स्मृता: |
चतुर्भिरितरै: सार्धमहोभि: सद्विगर्हितै:।।
तासामाद्याश्चतस्त्रस्तु निन्दितैकादशी च याम् ।
त्रयोदशीं च शेषास्तु प्रशस्या दश रात्रय: ।।
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोअ्युग्मासु रात्रिषु ।
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम् पुमान्पुंसोअ्धिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रिया:।
समोअ्पुमान्पुंस्त्रियौ वाक्षीणेअ्ल्पे च विपर्यय:।।
निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्।
ब्रह्मचार्येन भवति यत्रतत्राश्रमे वसन् ।।
   ( मनुस्मृति , अ. 3 , श्लोक  45, 46 , 47 , 48 , 49 , 50 कमश: )


इनका अर्थ है - रजो दर्शन ( मासिक धर्म ) से सोलह रात्रि तक स्त्रियों का ऋतुकाल होता है । ऋतुकाल में अपनी पत्नि के पास जायें , उससे संतुष्ट रहें । पूर्व चार दिन के साथ साथ ग्यारहवीं  तथा तेरहवीं रात्रि समागमार्थ यानी संम्भोग के लिए निन्दित है । शेष सब प्रशस्त एवं वैध मानी गई है ।

 
    समरात्रि यानी 6ठी , 8वी , 10वी ......आदि में समागम से पुत्र तथा विषम रात्रि यानी 5वी , 7वी , 9वी ........आदि में सहवास से कन्या उत्पन्न होती है । अत: पुत्र की इच्छावाले को युग्म यानी सम रात्रि तथा पुत्री हेतु विषम रात्रि में सहवास करना चाहिए ।


   वीर्य की अधिकता हो तो विषम रात्रि में भी पुत्र एवं रज की अधिकता हो तो सम रात्रि में भी कन्या हो सकती है । वीर्य और रज की समानता होने से नपुंसक या यमल यानी जोड़ा संतान तथा दूषित या अल्प वीर्य से गर्भ नहीं रहता ।


   उपरोक्त निंदित यानी वर्जित 6 रात्रियों के अतिरिक्त शेष 10 रात्रियों में केवल 2 रात्रियों में समागम करता है वह किसी भी आश्रम यानी ब्रह्मचर्य , गार्हस्थ्य , वानप्रस्थ तथा संन्यास में हो ब्रह्मचारी है ।


   इन बातों की पुष्टि तथा सत्यता ' सायंस रिपोर्टर ' नवम्बर , 1991 , लेख - ' इनफर्टिलिटि ( infertility ) पृष्ठ 47 के ग्राफ  से भी होती है। ऐसा लगता इन श्लोकों से ही ग्राफ बना है वगैरह ।
इस पुस्तक से कुछ और उदाहरण -


जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रज: ।
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणु प्रचक्षते ।।
त्रसरेणवोष्टो विज्ञेया लिक्षेका परिमाणत: ।
ता राजसर्षपस्तिस्त्रस्ते त्रयो गौरसर्षप: ।।
सर्षपा: षट् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् ।
पञ्चकृष्णलको माषक्ते सुवर्णस्तु षोडष: ।।
( मनुस्मृति अ. 8 , श्लो. 132 , 133 , 134 )


इनका अर्थ है - झरोखे से अंदर आनेवाला सूर्य रश्मियों में जो धूलिकण दिखता है , उसमें सबसे छोटा धूलिकण यानी प्रथम को त्रसरेणु कहा जाता है। ऐसे आठ त्रसरेणुओं का एक लिक्षा , तीन लिक्षाओं का एक राजसर्षप , तीन राजसर्षपों का एक गौरसर्षप तथा छ: सर्षपों  का एक रत्ती , पाँच रत्तियों का एक माशा तथा सोलह माशे का एक सुवर्ण यानी तोला होता है वगैरह ।
उपरोक्त प्रथम वैज्ञानिक अर्थशास्त्र है जो माप - तौल की व्याख्या करता है । यह ग्रंथ न्यायशास्त्र, व्यापार , एवं समाजशास्त्र वगैरह से भरा हुआ है ।


   विश्व का प्राचीन ग्रंथ वेद वैज्ञानिक दृष्टिकोण का खाजाना है ।
अब प्रस्तुत है गीता से समाज पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण ।
ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै : ।।
( गीता अ. 18 , श्लो. 41 )


अर्थ है - हे परंतप ! ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । यानी व्यक्ति का कर्म गुण द्वारा है , कुल द्वारा नहीं । अर्थात जाति गुण द्वारा बनी , कुल से  नहीं।


    प्रसिद्ध पुस्तकें  ' लीलावती ' गणित में  , '  सूर्य सिद्धांत ' खगोल विज्ञान में तथा ' कौटिल्य अर्थशास्त्र ' अर्थशास्त्र में संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान के अनूठे नमूने हैं।


   अब अंत में निम्न साधु वाक्यों से अपनी कलम को विराम देता हूँ ।
    पुराणमित्व न साधु सर्वं ।
    न साधु सर्वं नवमितवद्यम् ।।
    संत: परीक्षानत्यरद  भजंते ।
    मूढ़: परप्रत्ययेनहि बुद्धि: ।।


इनका अर्थ है - सभी पुरानी बातें सत्य नहीं तथा सभी नवीन बातें असत्य ही नहीं । विज्ञ एवं विद्वान परीक्षा करके ही उसे अपनाते एवं मूर्ख दूसरे के कहने से ।

*************समाप्त******************


इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद 

रोआरी, पं चंपारण ,बिहार ,भारत 845453

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रविवार, 1 मई 2022

बदली दुनिया



           जंग का परिणाम  ,बम से बिखरा आशियाना, गम में बेघर लोग 

जंग और बम से परेशान जन समूह


कविता 
बदली दुनिया
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

कहीं बम , कहीं गम , कहीं जंग ,
आज दुनिया का है यह ढंग ।

 इससे अच्छे थे हम पहले ,
आज देते सब नहले पर दहले ,
 इसका कारण है जन में अहं ,
 कहीं बम , कहीं गम , कहीं जंग ,
 आज दुनिया का है यह ढंग ।

 हवा , पानी और मन ,
दूषित किए हुए हैं  जन ,
आज धारा बनी है बेदरंग ,
कहीं बम , कहीं गम , कहीं जंग ,
 आज दुनिया का है ए ढंग ।

जहां जिंदा नहीं हो मानवता 
 वहां बसेगी नहीं सभ्यता ,
चाहे भरे कोई भी रंग ,
कहीं बम , कहीं गम ,कहीं जंग ,
 आज दुनिया का है यह ढंग ।।

धन जो लगा रहे शस्त्र में ,
जनकल्याण में लगाएं ,
मानवता व धारा को
नाश होने से बचाएं।

आज रो रही धारा , प्रकृति ,
मानव के इन कुकर्म से ,
प्रर्यावरण को बचाओ ,
बचेंगे सब इसी कर्म से।

करो सदुपयोग विज्ञान का ,
ज्ञान को अज्ञान न बनाओ ,
जनता के नाश में इसको ,
कभी नहीं सब लगाओ ।

अगर कोई हो समस्या ,
बातचीत से सुलझाओ ,
युद्ध नहीं है निपटारा ,
विश्वयुद्ध फिर न दुहराओ।

अहं को त्याग बनो मानव ,
जनकल्याण रखो मन में ,
अहं के कारण ही सब जंग ,
कहीं बम , कहीं गम , कहीं जंग ,
आज दुनिया के है यह ढंग।



इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
प चंपारण ,बिहार ,भारत
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सिसकता जीवन


कविता

सिसकता जीवन

रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


 सिसक सिसक कर

 जीवन जी रहा हूं ,

 हम ही जानते 

हमने कैसे निभाई ।


 जिधर देखता मैं 

तिमिर ही तिमिर है ,

खुदा ने है किस्मत 

 कैसी बनाई ,

 जीवन की गाड़ी 

 फंसी बीच धारा ,

 होगी हम पर कब 

 नजरें खुदाई ,

हम ही जानते

 हमने कैसे निभाई ।


 समझ नहीं आती 

 हम जाएं कहां पर ,

 होठों से हुई है 

 हंसी की विदाई ,

जो भी कर्म करता

 नहीं फल है मिलता ,

 आंखों से है फुटती

 हमेशा रुलाई ।

 हम ही जानते

 हमने कैसे निभाई ।


 सभी लोग अपना 

 बने हैं बेगाना ,

बताता नहीं कोई 

असली दवाई , 

मरेगा शरीर

 मौत के आने पर ,

 मरेगी नहीं 

"पशुपति" की रूबाई ,हम ही जानते 

हमने कैसे निभाई।


इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

रोआरी, प चंपारण , बिहार, भारत

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रविवार, 4 अगस्त 2019

बीता वक्त गुजरा न आना पीछड़ के ।

कविता

बीता वक्त गुजरा न आता पीछड़ के
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

बुरे फंस गए हम
चमन से बिछड़ के ,
बीता वक्त गुजरा
न आता पीछड के।

जहाँ नहीं विद्या
वहाँ नहीं जायें ,
जहाँ न विधायें
वहाँ नहीं खायें ,

जहाँ न कलायें
वहाँ नहीं गायें ,
जहाँ निर्धनता
वहाँ नहीं धायें ,

जहाँ श्रीहीनता
न रहूँ ठहर के ,
बीता वक्त गुजरा
न आना पीछड़ के।
बुरे फंस गए हम
चमन से बिछड़ के ।

इंजीनियर पशुपति नाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण ,बिहार ,भारत
मोबाइल 6201400759
Email er.pashupati57@gmail.com

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