सोमवार, 6 जून 2022

तू , वह और मैं

अनुसंधानशाला से " तू , वह और मैं " कविता प्रस्तुत करते हुए इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कविता
शीर्षक - तू , वह और मैं
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

कविता का भावार्थ यह कि यदि कोई अपने लिए मैं है तो सामने वाले के लिए तू है और परोक्ष वाले के लिए वह है। यानी एक ही व्यक्ति भिन्न परिस्थितियों में तू, वह और मैं है।ए तीनों व्यक्ति के नहीं आत्मा का वोध कराते हैं जो सभी में है और ए तीनों भी सभी में हैं।


अपना मन अग्नि रोक सदा ,
लहका करके न जलाओ तू ,
प्रचंड बना गर भड़का यह ,
इस ज्वाला में जल जाए भू ।

कालिमा राख की परत चढ़ा ,
मन चिंगारी न बुझाओ तू ,
चित्त चिनगी से चितचोर जला
मन को स्वच्छंद बनाओ तू ।

जो समझ रहे हो वह न समझ ,
वह समझ से बाहर समझ ले तू ,
गर समझ ही इतनी रहती तो
पहले ही जाता समझ ए भू ।

कालिमा राख का ढेर लगा
राहों का विघ्न नहीं बन तू ,
प्रचंड उठेगी आंधी जब ,
इस भस्म में भस्म हो जाए तू ।

जब तलक रहे भू चंद्र सूरज ,
चिंता तम में न गड़ा रह तू ,
सबका भोजन चलता जिनसे
उनको ही मान चला कर तू ।

मैं को न समझ जन भू जन सा
मैं ही है वह , मैं ही है तू ,
गर समझ ना पाए तू को तू ,
तब समझो  मैं  मैं ही है तू ।

उसको भी बता वह वह समझे ,
उसमें भी मैं उसमें भी तू ,
गर समझ ना पाए वह वह को ,
तो समझे मैं , मैं ही वह हूं ।

बढ़ता जा आगे कर्म के बल ,
फल चिंता तम में पड़ो ना तू ,
नित्य लक्ष्य निर्धारित कर कर के
बन कर्म पथिक रत रहना तू ।

बीती कल है सबने देखी ,
आगे की कल कब देखा भू ,
आज जो देखा आदि बना ,
इससे कल में न पड़ा रह तू।

न सोच निरर्थक की बातें  , 
ना व्यर्थ समय को बिताओ तू ,
मन समझ ना पाए अर्थ अगर
मन शांत समर्थ बनाओ तू ।

सुनने की आदत को डालो ,
बिना समझे मत बोलो तू ,
व्यर्थ की बातें न सुनकर ,
नित्य कर्मों में रत रहना तू ।

गर बैठोगे बिन कर्मों के
मन सोचेगा मैं , वह या तू ,
मन को गर कर्म में बाधोगे ,
मन सोचेगा सु और न कु ।

**********समाप्त**********

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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शुक्रवार, 3 जून 2022

विचार ( भाग 6 )

अनुसंधानशाला से विचार भाग 6 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कोटेशन
विचार ( भाग 6 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

** मात्र महत्त्वाकांक्षा यानी योग्यता रहित महत्वाकांक्षा अराजकता एवं पागलपन पैदा करती है । महत्वाकांक्षा रहित योग्यता लक्ष्य हीनता , शिथिलता , असफलता एवं कर्म हीनता पैदा करती है । तथा महत्वाकांक्षा युक्त योग्यता स्फूर्ति , लक्ष्य , सफलता एवं कर्मठता पैदा करती है।
विश्व मानव उपयुक्त इन्हीं तीन सिद्धांतों अनुसार विभक्त एवं कर्म रत है । **

** भगवान और शैतान दोनोें  एक दूसरे के विपरीत होते हैं । शैतान पूर्वार्ध समय में हावी रहता है । तथा भगवान उत्तरार्ध समय में । शैतान आक्रमण करता है , तथा भगवान परास्त । शैतान असफल होता है , और भगवान सफल । **

** भूत एवं वर्तमान का सही आकलन ही भविष्य का सही आकलन है । यानी सही भविष्यवाणी वशर्ते कि प्रकृति साथ दे ।
क्योंकि प्रकृति स्वतंत्र एवं अति सशक्त है तथा नित्य परिवर्तनशील । इसी कारण सभी भविष्यवाणियां सत्य नहीं होती । **

** लग्नशीलता , ईमानदारी एवं बुद्धिमत्ता ए तीन सफलता एवं समृद्धि दायक हैं।**

** कर्ज जहां दाता में अभिमान या अहंभाव देता है , वहां ग्राहक में लाचारी । प्रथम को लाभ ,  वहां द्वितीय को हानि।
सिर्फ एक सही मूल्य ही दाता एवं ग्राहक का संतुलन बिंदु है , जो दोनों को अहंभाव एवं संतुष्टि देता है , और दोनों को लाभ होता है । **

** भय का अंतिम परिणाम और सीमा मृत्यु है , तथा आरंभ जन्म । भय किसी न किसी रूप में उम्र भर व्याप्त रहता है । **

** साहित्यकार समाज का ब्रह्मा है ,
और समाज साहित्य का । जैसा ए होंगे निर्माण भी वैसा होगा । **

** जिस प्रकार कुम्हार के आवा से  कोई  पात्र बड़ा ही सुंदर पक जाता है , भट्टी से कोई कोई ईंट बड़ा ही सुंदर ढंग से पका हुआ निकल आता है , मां की कोख से कई संतानों में से कोई एक सुपुत्र निकल आता है , वैसे ही कवियों और लेखकों के बहुत लेखों और छंदों में कोई एक लेख और छंद बहुत ही चारू मनोरम और मनभावन बन आता है , जो अमरवाणी बन जाता है । **

** कुत्ता मुर्दा मांस तथा हड्डी खाता है , गिद्ध लाश की अतड़ी खाता है , शेर हत्या कर खून पीता है , कौवा मेला खाता है , पर दुर्जन और मूर्ख समय खाता है, भेजा खाता है ,और अंत में अपने आप को खाता है । **

** अपमान के जीवन से सम्मान की मौत श्रेयकर होती है । हजारों मूर्खो की संगत से एक साधु की संगत सुखदायक होती है । **

** परमात्मा अखंड अनंत ज्योर्तिपुंज एवं ऊर्जा स्रोत है । जैसे अतुल संपदा का स्वामी अपना धन का कुछ का भाग ऋण पत्र , अंशाधि पत्र इत्यादि में खर्च किए रहता है , तथा शेष राशि से अपनी शक्ति बनाए रखता है , वैसे ही परमात्मा का अनंत ऊर्जा का कुछ भाग अनंत जीवो में विद्यमान है , जोकि मृत्यु के बाद वह पुनः परमात्मा में लौट आता है , तथा पून: वहां से नए जीव में । यही सृष्टि क्रम है। जैसे अग्नि स्रोत से प्रकाश पुंज निकलकर अपने आसपास के स्थान को प्रभावित करता है ,  वैसे ही  अनंत ऊर्जा पुंज से बना परमात्मा अपने ब्रह्म से ब्रह्मांड को प्रभावित करता है । **

** सुपात्र से समय का सदुपयोग होता है । पात्र से समय कटता है । तथा कुपात्र से समय नष्ट होता है। पहला का संग उपयोगी है , दूसरा का संग कामचलाऊ है । तथा अंतिम का संग अवांछित है। प्रथम सुखदायक है , दूसरा लायक है , तथा तीसरा नालायक है । ** 

**   विचार विद्युत चुंबकीय तरंग है जो ब्रह्मांड में तैरता रहता है । विचार न नया होता है ना पुराना बल्कि यह शास्वत है । यह देश जाति भाषा तथा लिपि से परे सर्वव्यापी है । जैसे पानी विभिन्न पात्रों में अपना रूप बदलता है , उसी तरह विचार विभिन्न मानव मस्तिष्क में विभिन्न तरह से प्रकट होता है । यह विचार विज्ञान में वैज्ञानिक बनाता है , अध्यात्म में ईश्वर और आत्मा का ज्ञान  दे ऋषि , तथा  साहित्य में महाकवि कालिदास और राजनीति कूटनीति में कृष्ण और कौटिल्य वगैरह-वगैरह। **

** मौत न टूटने वाली अनंत नींद है । मौत अनंत शांति का दूसरा नाम है। मौत सभी चिंताओं से मुक्ति देती है । मौत सुनने में भयंकर , सोचने पर आश्चर्यजनक और पाने पर मुक्ति है । **

** परिवार , समाज , देश इत्यादि की उत्पत्ति का सही आकलन किया जाए तो इनके जन्म का जनक स्वार्थ ही है । स्वार्थ ही सभ्यता का जनक है । योगी , ज्ञानी , सन्यासी इत्यादि भी स्वार्थ से परे नहीं है , नहीं परे हैं ईश्वर । किसी को धन का स्वार्थ है , तो किसी को नाम और यश का , किसी को स्वर्ग , मोक्ष ,ज्ञान इत्यादि की चिंता है , तो ईश्वर को सृष्टि चलाने की।
स्वार्थ एक ऐसा आण्विक  बंधन है जो पूरे ब्रह्मांड को बांधा है । इसे कुछ लोग मोह भी कहते हैं। लालच और स्वार्थ में महान अंतर है।
लालच सामाजिक नियमों से च्युत  कर्म है , जबकि स्वार्थ समाजिक नियम अनुसार कर्म है । **

** ए विश्व अनंत के कई रंगमंचों में से एक है , इसके जीव इस पर कलाकार के रूप में अपनी अपनी योग्यता अनुसार अपनी कला दिखाते तथा परिश्रम पाते हैं । जो सुपात्र बनता है वह नायक या उसके समकक्ष पद प्राप्त करता है , और जो कुपात्र बनता है वह खलनायक या उसके समकक्ष पद पाता है। **

** परमात्मा के ही दिया हुआ और प्रेरित किया हुआ अच्छा और बुरा दोनों कर्म है , जिसे मानव करता है , जैसे श्वेत और श्याम , प्रकाश और अंधकार इत्यादि ।श्वेत कर्म यानी सुकर्म करने वाला श्वेत फल यानी नाम , यश , धन और श्याम कर्म यानी कुकर्म करने वाला श्याम फल  यानी दुख , अपयस  , गरीबी आदि तथा दोनों कर्म करने वाला दोनों फल पाता है । **

** किसी भी धर्म या सिद्धांत की महत्ता निम्न बातों पर निर्भर करती है -
1. अच्छा साहित्य जिसमें अच्छे विचार अर्थात जन कल्याण भाव हो ।
2. उसके संस्थापक एवं अनुयाई की प्रस्तुति का ढंग एवं  गुणवत्ता ।
3.  तथा उसकी आयु उसके अनुयायियों की बुद्धि , निस्वार्थता , सत्यता , निष्ठा एवं जन मन की आकर्षण पर निर्भर है । **

** अपमान खाकर और बिना उसका प्रतिकार किए अन्न खाना विष सा  है , और  जिंदा रहना जिंदा लाश सा । **

** एक समय  में जो वस्तु अरूचिकर , अप्रिय और त्याग्य लगता है , वही किसी समय विशेष में रुचिकर , प्रिय और ग्राह्य लगता है , जैसे जो अग्नि शरद ऋतु में अच्छी लगती है , वही गृष्म में नहीं लगती  , जो हवा , पानी गृष्म में प्रिय लगता वही शरद ऋतु में अच्छा नहीं लगता। जो विचार , भाव मस्तिष्क में रात में चंद किरण तले पैदा होते हैं वही दिन में सूर्य प्रकाश में  ठीक नहीं लगते । **

************  क्रमशः ***************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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गुरुवार, 2 जून 2022

विचार ( भाग 5 )

अनुसंधानशाला से विचार भाग 5 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कोटेशन
विचार ( भाग 5 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


** मुहब्बत सिर्फ गुण देखती है अवगुण नहीं , तथा घृणा सिर्फ अवगुण देखती है गुण नहीं , सिर्फ मनुजता गुण और अवगुण दोनों देखकर चलती है। **


** राजनीति और कुटनीति में नीच से नीच सिद्धांतों से प्राप्त जीत ऊंच से ऊंच सिद्धांतों और आदर्शों से प्राप्त हार से श्रेष्ठ होती है। **


** कल्पना बड़ी ही मधुर एवं मनोरम होती है । यही कारण है कि बड़े चाव से लोग उपन्यास एवं कथा पढ़ते हैं । और सत्य रुखा एवं सूखा होता है । यही कारण है कि कुछ लोग ही गणित और विज्ञान में रुचि लेते हैं । **


** कोई भी नई आदत अपना बनाने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है । और अभ्यास 1 दिन का काम नहीं , यह दिनों महीनों में होता है।**


** मानव जीवन में तीन ही महत्वपूर्ण तिथियां होती है । 1. जन्मदिन  2. विवाह दिन  और 3. मृत्यु दिन प्रथम उत्तम है सभी के लिए अर्थात सभी खुश होते हैं । दूसरा मध्यम होता है अर्थात संतान गृहस्थ में प्रवेश करता है तो माता-पिता वानप्रस्थ में । और तीसरा सर्वोत्तम है अर्थात वह सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है । हालाकि  परिवार जन शोक में डूबे रहते हैं । **


** सूअर सफाई से वैर रखता है । और मूर्ख , दुष्ट व्यवस्था से । **


** अपना से अयोग्य के कर्मों से जो शिक्षा लेता है अथवा नकल करता है , उसका नाश निश्चित होता है । तथा अपना से योग्य के कर्मों की जो नकल करता है या अपनाता है उसका विकास भी कोई नहीं रोक सकता। **


** दुष्ट के साथ दुष्टता करने वाला दुष्ट नहीं कहलाता । दुष्ट वह कहलाता है जो सज्जन के साथ दुष्टता करता है ।**


** जो जितना उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है उसकी कीमत उतना ही ज्यादा है । **


** मूर्ख और दुष्ट दोनों ही दुश्मन  का ही काम करते हैं । फिर भी दुष्ट अच्छा होता है ,क्योंकि दुष्ट से आदमी हमेशा सावधान रहता है , तथा बचकर चलता है। किंतु मूर्ख से सावधान नहीं रहता जिससे उसके कर्मों से ज्यादा हानि होती है । **


** आदमी की पूर्ण परिभाषा उसके अंत:परिवेश तथा वाह्य परिवेश से दिया जाता है।
अंत:परिवेश कुभावना एवं सुभावना से बनता है। तथा वाह्य परिवेश कुकर्म एवं सुकर्म से बनता है। इन्हीं 4 मूलभूत तत्त्वों एवं सिद्धांतों के आधार पर प्रत्येक मानव का आकलन होता है । **


** अनंत त्रिज्या से बना गोला का गुण यह भी होता है कि कोई इस गोला पर जहां से चलता है अनंत काल के बाद पुनः वहीं लौटता है , चाहे दिशा कुछ भी हो । जैसे पृथ्वी पर एक बिंदु से और एक दिशा में गमन करता व्यक्ति पुनः उसी बिंदु पर लौटता है । **


** मैला का यह अवगुण यह है कि वह अपना पूरा जीवन बदबू फैलाने में ही बिताता है । जब अपना नाश पाता है यानी  सड़ता है तब वह खाद बन उपयोगी बनता है ।
ठीक यही हालत मूर्ख और  दुष्ट का है । पूरा जीवन उडंता अव्यवस्था फैलाता है । जब अपना नाश कर लेता है तब विनम्रता तथा उचित समझता है । **


**  ताला लगाने के पीछे छिपा मनोविज्ञान एवं सिद्धांत यह है कि यह न तो चोर से रक्षा कर सकता है और ना डाकू से बचाव , बल्कि साधु चोर डाकू न बन जाए अर्थात अपना ईमान न खो दें इसके लिए है । **


** जैसे एक जीव दूसरे जीव का जन्म देता है , वैसा ही एक विचार दूसरे विचार का ।**


** अगर कोई छात्र परीक्षा में 0 अंक पाता है तो इससे मतलब निकलता है कि वह या तो सबसे बड़ा मूर्ख है या असाधारण । अगर वह असाधारण है तो परीक्षक शून्य है । अगर वह शून्य है तो परीक्षक असाधारण है। **


** अगर किसी की उत्तर पुस्तिका पर परीक्षक यह लिखता है कि परीक्षार्थी परीक्षक से योग्य एवं बेहतर है तो उससे योग्य शिक्षक या परीक्षक मेरे नजर में दूसरा कोई नहीं है । वह असाधारण परीक्षक है । **


** आजकल पैसा से बड़ा सहायक और मित्र दूसरा कोई नहीं। **


** जिस प्रकार त्रुटि पूर्ण अंग तीन तरह से - दवा से , चीरकर तथा अंत में अंग काटकर ठीक किया जाता है , उसी प्रकार त्रुटि युक्त मानव भी तीन प्रकार से  , प्रथम बात से  , दूजा लात से यानी पीटकर  और अन्तत: मौत से सुधार पाते हैं । **


** जहां रक्षक एवं भक्षक में एकता हो उस परिवेश जगह का त्याग ही कल्याण कारक एवं मंगलमय होता है **


** न जिसका अंत हो , न मध्य हो और न आदि हो ऐसी स्थिति मात्र बंद वक्र में पाई जाती है ।**


*" जैसे महिलाएं अपने प्रिय जनों की मौत पर भावुक हो जाती है , वैसा ही नेता गण चुनाव आने पर ।
जो नारी अपने प्रियजनों की सेवा जिंदा रहने पर नहीं करती , नित्य गाली से स्वागत करती है , वह भी मौत के बाद उसका गुणगान करते  नहीं थकती।
ठीक यही हालत नेताओं की है । जो नेता अपने क्षेत्र में कभी नहीं घूमता। जिसे क्षेत्र की गर्मी की लू लग जाती है । वही चुनाव के समय हाथ जोड़े , धूल गर्द से लीपा पुता ,  विनय की मूर्ति बने  ऐसा घूमता है जैसे स्वर्ग का आनंद ले रहा हो ।**


** प्रकाशन का स्तंभ है - प्रकाशक , प्रेस और वितरक । **


** कितना ज्यादा समय तक करते हो यह खूबी नहीं है । क्या करते हो यानी कार्य की गुणवत्ता और समाप्ति यह खूबी है । **


** भ्रम युक्त और संदेह युक्त मन कभी सफल नहीं होता। हमेशा असफल होता है । सिर्फ शुद्ध मन अर्थात संदेह रहित मन ही सफलता प्राप्त करता है।**


** वैज्ञानिक विचार 24 कैरेट सोना सा परिशुद्ध होता है । दार्शनिक विचार और ऐतिहासिक विचार 23 कैरेट सोना सा , साहित्यिक विचार 18 से 20 कैरेट सोना सा तथा अन्य सभी विचार 12 से 18 कैरेट सोना का शुद्ध होता है । तथा जो विचार जीरो से 12 कैरेट सोना सा होता है वह पानी के बुलबुलों सा क्षणभंगुर होता है अर्थात प्रति क्षण जन्मता और मिटता रहता है । **


** अनुसंधान के लिए तीन महत्वपूर्ण बातों का होना आवश्यक है ।
1. हम क्या करना चाहते हैं ?
2. इस संबंध में अभी तक क्या-क्या हुआ है इस संबंधी जानकारी इकट्ठा करना ।
तथा 3. किस तरह से इसे पूरा किया जाए इस पर सोचना विचारना और इसकी पूर्ति हेतु सामग्री इकट्ठा करना । **


** कर्म का मूल्य है सफलता , और सफलता का मूल्य है पैसा , तथा कर्म चक्र की गतिशीलता इसी आकर्षण के हेतु है । यह जितना प्रबल होगा कर्म चक्र उतना ही गतिशील । **


** किसी निश्चित क्रिया को निश्चित समय में पूरा करना ही साधना है अर्थात क्रिया और समय से संबंध ।
साधक नित्य अभ्यास द्वारा इसे पूरा करता है जब यह क्रिया निर्विघ्न साधक द्वारा निर्धारित समय अनुसार पूर्ण होती है तो उस कार्य को सिद्ध होना कहा जाता है । यह सिद्धांत प्रत्येक कार्य एवं समय संबंध पर लागू है । **


** किसी कार्य की पूर्ति का मानक समय कितना होना चाहिए ?
विश्व में लघुत्तम समय में जो उस कार्य को सफलता पूर्वक और गुणवत्ता के साथ पूरा किया हो उस कार्य के लिए मानक समय है। **


** मन की दृढ़ता तन का बल है । साहसइ इसकासुपुत्र , धैर्य इसका जनक , सफलता इसकी बेटी , शंका  , भय , शोक , आलस इत्यादि इसका वफादार गुलाम और चारण । खुशी , प्रसन्नता इसकी पत्नी और वैभव , समृद्धि इसकी मां। **


** आलोचना एक पक्षीय , समालोचना द्विपक्षीय और मौन सर्वपक्षीय होता है। **


*************** क्रमशः ***************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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बुधवार, 1 जून 2022

विचार ( भाग 4 )

अनुसंधानशाला से विचार ( भाग 4 ) प्रस्तुत करते हुए इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कोटेशन
विचार ( भाग 4 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

** किसी भी कार्य का प्राय: चार ही कारण है , नाम , यश ,धन और प्रभुत्व ।  इन्हीं चार के लिए आदि से आज तक और आगे भी भू के जन रत हैं। **


** धन काफी महत्वपूर्ण है । इसे अपने अधिकार में रखना उचित है। दूसरे के अधिकार में जाने पर कष्ट उठाना पड़ सकता है , चाहे अपना बेटा , पत्नी ही क्यों न हो। **


** मूर्खों के साथ विद्वता दिखना सबसे बड़ी मूर्खता है। उनके साथ मूर्ख बनकर रहना ही ठीक है।**


** ब्रह्मांड में अनेक तारें , ग्रह , नक्षत्र इत्यादि विद्यमान हैं । सवाल यह है कि क्या इन सबका प्रभाव मानव तन, मन, बुद्धि और विचार  इत्यादि पर पड़ता है ?
मेरे विचार में आकाशीय पिंड पृथ्वी पर दो तरह से प्रभाव डालते हैं ।
1. आकर्षण के रूप में ,
2. तथा दूसरा तरंग और किरणें उत्पन्न कर।
पृथ्वी पर कुल आकाशीय पिंडों  का आकर्षण
बल नियत रहता है । यदि नियत नहीं होता तो पृथ्वी का परिक्रमा कक्ष बदल जाता । अतः आकर्षण बल मानव मन विचार इत्यादि को प्रभावित नहीं करते।
सिर्फ आकाशीय प्रकाश , तरंग और किरणें प्रभाव डालता है। प्राचीन ऋषियों ने रत्नों का उपयोग इसी प्रभाव से बचने के लिए बताया है। **


** विचार , प्रकाश , ताप और ध्वनि में गहरा ‌संबंध है **


** प्रकाश , ध्वनि , स्वाद ,स्पर्श और गंध ये पांच मन का निर्माण करते हैं। **


**  हम जो बोलते हैं क्या यह आवाज वायुमंडल में रहता है ? अथवा आज से लाखों वर्ष पहले जो ध्वनि लोगों ने बोली है वह वायुमंडल में सुरक्षित है अथवा खत्म हो गई है?
मेरे विचार में सुरक्षित है । समय के साथ ध्वनि की तीव्रता ( intensity or loudness ) क्षीण होती गई है। अर्थात उनका आयाम ( amplitude ) घटता गया है। और वह इतना कम हो गया है जो लगभग  0.0° 1 हो गया है।
0.0000.........1 =  0.0°1 
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ध्वनि की तीव्रता समय का व्युत्क्रमानुपाति ( universally proportional ) होता है ।
अर्थात  तीव्रता = क × 1/ समय
या  समय = क × 1/ तीव्रता
और हम जानते हैं कि   तीव्रता  = (आयाम )^2
अतः समय = क × 1/ ( आयाम )^2
   
अर्थात समय ज्यादा होगा तो आयाम कम होगा और तीव्रता यानी लाउडनेस कम होगा।
यहां क को आयाम नियतांक कहते हैं। जिसका मान प्रयोग द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
यह विचार विगत आवाज के अनुसंधान में उपयोगी हो सकता है।
इसका उदाहरण नदी जल में ढेला फेंकने पर देखा जा सकता है। समय के साथ तरंग का आयाम ( amplitude ) क्षीण होता जाता है। **


** प्राकृत संख्या ( 1से 9 तक ) के पूर्व यानी पहले वास्तविक संख्या ( 0 ) अर्थ हीन है। लेकिन बाद में आकर अर्थ पूर्ण हो जाता और गणित का जन्म देता है। जैसे - 01 और 10 ।**


** कब कहां कैसे और किनका कौन सा हाव भाव किनको भा जाए , इसी को सौंदर्य और प्यार कहते हैं। **


** मूलत प्रकृति अपनी तीन आवस्था में परिवर्तन कर अपना नयापन अर्थात अपने यौवन को हमेशा कायम रखती है । और ए हैं - गर्मी , वर्षा और जाड़ा।
और ए तीनों अवस्था प्रकृति के तीन स्रोत पर प्रति क्षण आधारित हैं । और ए हैं - सूरज , बादल , हवा।
लगभग यही हालत मानव का भी है। मानव शरीर का नयापन ( सुंदरता ) भी तीन बातों पर निर्भर करता है। ये हैं - केश-सज्जा , परिधान, स्वच्छता और स्वास्थ्य , गुण ।
और ए तीन चार बातों पर निर्भर हैं । ए हैं - बुद्धि , विद्या , बल और धन। **


** जैसे पानी में दूध डालने पर पानी की गुणवत्ता और महत्ता बढ़ जाती है , परंतु दूध में पानी डालने पर दूध की गुणवत्ता और महत्ता कम होती है , वैसे ही सज्ञ जब अज्ञ का गुण ग्रहण करता है तो वह श्रीहीन बनता है और जब अज्ञ सज्ञ का गुण अपनाता है तो श्रीमान बनता है । **


** भगवान , शैतान एवं इंसान में फर्क यह होता है कि हैवान एवं शैतान सदा हिंसक होते हैं , और इसके विपरीत इंसान सदा अहिंसक तथा भगवान हैवान एवं शैतान के लिए सदा हिंसक तथा इंसान के लिए सदा अहिंसक होता है। **


**   घटना - बुद्धि = क
शर्त 1 - अगर क = 0  , तब घटना = बुद्धि
             अर्थात घटना का पूर्ण विश्लेषण होता है। इसका कोई भी अंश ज्ञान से परे नहीं है। और इसे विज्ञान कहते हैं।

शर्त 2-   यदि  क > 0 यानी धनात्मक
               तब  घटना > बुद्धि
          अर्थात घटना का पूर्ण विश्लेषण नहीं होता है , तथा इसका कुछ अंश ज्ञान से परे है। और इसे ही आश्चर्य , चमत्कार , रहस्य , जादू , असाधारण बातें इत्यादि कहते हैं।

शर्त 3 -  यदि  क < 0 यानी ऋणात्मक
               तब  घटना < बुद्धि
अर्थात घटना की व्याख्या कोई भी कर सकता है। यानी इसकी जानकारी आम है। रोजमर्रा की बातें वगैरह इसी के अंतर्गत आती है। जैसे - खाना ,सोना वगैरह-वगैरह।
ब्रह्मांड की सभी घटनाएं इन्हीं तीनों शर्तों के अंतर्गत आती है। **


** प्रत्येक व्यक्ति की एक नित्य प्राकृतिक आदत होती है । और दूसरी अनित्य आकस्मिक।**


*" दुष्ट की दुष्टता रोकने की एक ही रामबाण दवा है उसके साथ वैसा ही व्यवहार। यदि यह संभव नहीं तो उसका परित्याग। **


** समाज सोया रहता है , पर अपनी जुबान और कान खोले रहता है। यह आवाज व्यक्तिगत आवाज से भिन्न होती है । यह सत्य और निष्पक्ष आवाज होती। किसी चीज का सही विश्लेषण। **


** किसी भी समुदाय के कुशल प्रधान को निम्नलिखित चार चिंताएं रहती है -
1. आमद ( आय )   2. खर्च ( वर्तमान )। 3. लाभ 4. हानि
और उसके सदस्य को मात्र एक चिंता , और वह है खर्च की अर्थात् व्यय की। **


** मेरे विचार से मृत्यु  चार प्रकार से होती है।
1. परिपक्व स्वभाविक  -  सत्तर के बाद और रोग , दुर्घटना आदि रहित।
2. परिपक्व अस्वभाविक - सत्तर के बाद किंतु रोग या दुर्घटना आदि से ।
3. अपरिपक्व स्वभाविक - सत्तर से पहले किंतु रोग , दुर्घटना आदि रहित।
4. अपरिपक्व अस्वभाविक - सत्तर से पहले तथा रोग , दुर्घटना आदि से।
1 और 3 बढ़िया कहा जा सकता है। 2 और 4  दुर्भाग्य पूर्ण है। 4 तो सबसे शोकाकुल है। **


** अनुसंधान कार्य बाल से खाल निकालने जैसा है। दूसरे शब्दों में मक्खी के दूध से घी निकालने जैसा। **


** किसी भी कार्य का आरंभ संघर्षमय होता है , समाप्ति हर्षमय होती है और फल सुखमय होता है । **


** जीवन संघर्षमय , शादी हर्षमय और मौत शांतिमय होता है। **


** मकान के नक्शा बनाते समय इंजीनियर को तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए।  सूर्य प्रकाश , वर्षा और हवा ।
प्रथम यानी प्रकाश हर हालत में आवश्यक है। अतः व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जब चाहे प्रकाश अंदर आने दें और जब चाहे रोक दें।
दूसरे के लिए मकान के अंदर कोई जगह नहीं है। यानी वर्षा से पूर्ण सुरक्षित हो।
तीसरा के लिए खिड़की आमने-सामने हो य़दि संभव नहीं तो साइड में तो अवश्य होना चाहिए।**


** मौत के सिवा पूर्ण शांति और कोई नहीं दे सकता है। पूर्ण शांति का नाम ही मौत है। **


** दिमाग से पढ़ने वाला कम समय तक पढ़ता है और रटकर पढ़ने वाला पूर्ण जीवन।**


** यदि लिखने का अविष्कार नहीं हुआ रहता तो मानव बहुत सा  विचारों और जानकारियों से अनभिज्ञ रहता । नहीं अपने विचारों को भविष्य के लिए सुरक्षित रख पाता वगैरह-वगैरह। **

*****************क्रमशः****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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मंगलवार, 31 मई 2022

सही आदमी और मैं ( दो कविताएं )

 ब्रह्मा , विष्णु और महेश त्रिदेव ( तीन सवार )
ज्ञान चक्षु धारातल को ए सब दिए ,
ए मुनासिब सही आदमी के लिए ।


कविता
सही आदमी और ग़लत आदमी
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

क्या मुनासिब सही आदमी के लिए ,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए ।

सूरज सोचे सदा से सुबह के लिए ,
चांद सोचे सदा से पूनम के लिए ,
जल सोचे सदा से नदी के लिए ,
है मुनासिब यही आदमी के लिए ,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए ,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

दुष्ट सोचे सदा है कलह के लिए ,
विष सोचे हमेशा मरण के लिए ,
जो नाशे समय न कर्म को करे ,
ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

जो मुर्दा में पशुपति जीवन भरे ,
काल की कालिमा को उजाला करे ,
ज्ञान चक्षु धारातल को जो जन दिए ,
है मुनासिब यही आदमी के लिए ,
क्या मुनासिब सही आदमी के लिए ,
क्या मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

**********           **************
कविता
मैं
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद ( मेरा नाम भी भगवान शिव का पर्यायवाची है )


बना हूं नूर मैं
जमीं और सितारों में ,
मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में।

हूं मैं सब्ज रंग
इन सभी बहारों में ,
काला व श्याम हूं
मैं सभी सियरों में ।

गंध में सुगंध हूं
मैं सभी गुलाबों में ,
शाह शहंशाह हूं
मैं सभी गुलामों में ।

हुस्न की दुकान हूं
प्यार और दुलारो में ,
रौनके अरमान हूं
मैं सभी बाजारों में ,
मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में ।

मधुर मनोहर हूं
मैं सभी सुहागों में ,
साहस व आशा हूं
मैं सभी अभागों में ।

रंग और गुलाल हूं
मैं सभी नजारों में ,
हूरों की हीर हूं
मैं सभी उजाड़ो में ।

  रेखा लकीर हूं
मैं सभी कुभागों में ,
व्यक्त हूं अव्यक्त हूं
मैं सभी भागों में ।

आजाद हिंद फौज हूं
मैं सभी कतारों में ,
नदी का नीर हूं
मैं सभी कगारो में ।

मेरा भी नाम गिना
जाता तीन सवारों में ,
बना हूं नूर मैं
जमीं और सितारों में ।

*************          ************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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सोमवार, 30 मई 2022

विचार ( भाग 3 )

अनुसंधानशाला से विचार भाग 3 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कोटेशन
विचार ( भाग ३ )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

** संसार की सभी  भाषा और बोली समान ध्वनियों के हेर फेर से निर्मित है जिसे भाषा तुल्यांक कहते हैं ।   जैसे - अंग्रेजी शब्द का पेन , हिंदी का शब्द सापेक्ष और उर्दू का पेशाब वगैरह  में " पे " ध्वनि भाषा तुल्यांक है।**


** बल ,विद्या एवं बुद्धि प्रदान करते हैं नाम ,यश एवं धन । तथा नाम , यश और धन प्रदान करते हैं सुख ,समृद्धि तथा प्रभुत्व । **


** साहित्य - सत्य या असत्य कल्पना पर आधारित गल्प या आलेख है ।
विज्ञान - प्रयोग द्वारा सत्य पाया गया प्रमाणित सिद्धांत है ।
तथा इतिहास - प्रमाण पर आश्रित विगत सत्य घटनाएं है। **


**  जलन या खुशी अपने लोगों से या अपने पहचान वालों से होती है , मार्ग का विकास या विनाश अपने ही लोग करते हैं , क्योंकि जीवन का अधिक समय इनके ही साथ बितता है , अपरिचित के संग मात्र कुछ ही क्षण व्यतीत होता है ।
अतः इनसे विकास- विनाश का ज्यादा लेना देना नहीं होता । **


** जैसे तोता डाली पर लटके आम पर ठोकर मारता है और उसमें से कुछ ठोकर मारते ही गिर जाते हैं , कुछ कच्चे निकलते हैं , कुछ पके होने पर भी खट्टे निकलते हैं , तथा कुछ पके मधुर एवं सरस गोपी फल निकलते हैं , जिससे वह संतुष्ट एवं तृप्त होता है ।
जीवन का क्रम ऐसा ही है । सफल व्यक्ति मधुर सरस गोपी अवसर की तलाश करता है , सफल होकर तृप्त होता है ।
दुष्ट जल्दबाज़ होता है , कलह में अपना समय ज्यादा देता है , उसे कच्चे-पक्के और मधुर स्वाद में फर्क करने का समयाभाव है , अतः अरूचि ही उसकी रूचि है । **


** जैसे 32 दांतो के बीच जीभ है ,वैसे ही विपुल सफलता को प्राप्त करने वाला व्यक्ति दुष्टों के बीच घिरा रहता है । जैसे जरा सा असावधान होने पर दांत जीभ को काटकर तकलीफ देता है , वैसा ही वह व्यक्ति जरा भी असावधान हुआ कि दुष्ट उसकी एकाग्रता भंग कर उसे दुष्टता की तरफ धकेलने लगते हैं
यदि व्यक्ति में आत्म बल , दृढ़ता एवं निर्भयता की कमी है तो उसकी एकाग्रता खत्म होती है और वह नाश को पाता है । यदि इन तीनों की प्रचुरता हो तो लक्ष्य को ।
ये जन जान पहचान वाले ही होते हैं ,गैर नहीं , क्योंकि गैरों की दुष्टता क्षणिक होती है , जबकि अपनों की स्थाई । **


** अगर जीवन का हर पल सदुपयोग किया जाए और सभी पल का कर्म सफल हो , उसमें विघ्न नहीं पड़े  तो शायद करने का कुछ भी नहीं रह जाएगा ।
जीवन का 10% पल एकाग्र भाव से काम करने में तथा 90% विघ्न बाधाओं से लड़ने में खर्च होता है। **


** जैसे दुख का उपचार दवा और परहेज है , वैसा ही गलत हिज्जे का उपचार लिखना तथा ध्यान से पढ़ना है । एवं उच्चारण का उपचार बोलकर पढ़़ना तथा ध्यान से सुनना है । तथा याद का उपचार एक ही चीज को बार बार ध्यान देना एवं दुहराना है , कम से कम 3 बार । **


** पागलपन और कुछ नहीं बल्कि उत्कट इच्छा और महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होना है । जिसमें सामाजिक व्यंग उत्प्रेरक का काम करता है । तथा इसका इलाज समाजिक प्यार और सद्व्यवहार है। इसमें भी परिवारिक प्यार और सद्व्यवहार तो अमृत के सदृश है ।**


**दैनिक कार्यों से उसी दिन निपट लेना ही मानसिक शांति है । वैसे तो दैनिक कार्य अनेक हैं परंतु नित्यकर्म अर्थात सुबह का कार्य जैसे - हाथ- मुंह धोना , पखाना जाना तथा विशेषकर स्नान यदि ब्रह्म मुहूर्त में या सूर्योदय के पहले पूरा कर लिया जाए तो दैनिक कार्यों में 50% कार्यों का निपटारा हो जाता है । और सब कार्यों के लिए काफी समय मिल जाता है । **


** मानसिक तनाव का कारण क्रोध है , और क्रोध मन की शांति भंग होने से उठता है , तथा इसका इलाज इन कारणों को हटना है जिससे मन की शांति भंग होती है । **


** प्रकाश की तीव्रता एवं रंग , आवाज , गंध , स्वाद एवं स्पर्श इत्यादि के अनुसार मन एवं मस्तिष्क की तरंगे बनती और बदलती है । **


**  जैसे तीसरे बिंदु की प्रामाणिकता के लिए कम से कम 2 परिचित बिंदुओं की आवश्यकता होती है । उसी प्रकार जीवन या ब्रह्मांड की किसी भी समस्या का हल किया जा सकता है यदि दो महत्वपूर्ण बातें आस्था और आत्मा या परमात्मा को समझ लिया जाए। **


** सबका कुछ न कुछ तकिया कलाम होता है, भारतीय नेताओं का तकिया कलाम है देश का विकास , जनता का विकास , जन कल्याण ,भले ही वह करें या ना करें । **


** जैसे सावन की हवा बादलों को विभिन्न रूपों में बनाती और बिगड़ती है , वैसे ही मन में अनेकों विचार बनते और पुनः बिगड़ते हैं ।**


** विस्तृत प्रकृति में अनेकों क्रियाएं पल प्रतिपल होती रहती है , कई ऐसे विचित्र कार्य कलाप
भी होते रहते हैं , इन्हीं कार्य कलापों का रहस्य अनावरण करना विज्ञों का काम रहा है जिसे ऋषि , रिसर्चर या वैज्ञानिक कहते हैं । **


** समय के प्रत्येक अंश के साथ प्रकृति अपने आप में परिवर्तन करती रहती है , हमें यह परिवर्तन तब मालूम होता है जब कुछ खास घटित होती है ।**


** प्रकृति की जिस घटना को मानव  विश्लेषण नहीं कर सकता या समझ नहीं पाता , उसे ही रहस्य कहते हैं ।*"


** प्रकृति मानव के लिए हमेशा रहस्य तथा चुनौती रही है , तथा इससे सामना करना मानव का काम रहा है । **


** जिसने अपने तर्क और बुद्धि से  प्रकृति के  रहस्यों को सुलझाया है उसे विज्ञ और वैज्ञानिक कहते हैं । **


** प्राचीन राजाओं की विरुदावली और गुणगान गाने के लिए कुछ चारण होते थे , आजकल यह काम आकाशवाणी और दूरदर्शन बखूबी निभा रहे हैं । **


** कहीं पढ़ा था पहले के संपादक अपना सब कुछ गंवा कर अपने सम्मान की रक्षा के करते थे , आजकल अपना सम्मान बेचकर सब कुछ प्राप्त करते हैं । **


** पहले नेता होते थे डंडा खाने के लिए और आजकल के होते हैं डंडा बरसाने के लिए । **


** पहले के नेता आग झेलते थे और आज कल के आग लगाते हैं । **


** पहले के  चोर डाकू सूरज उगने पर छिप जाते थे , और आजकल सीना ताने घूमते रहते हैं । **


** कहावत है -अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ता , लेकिन अकेला भाड़ बहुत से चने को फोड़ डालता है । **


** पहले के चोर और डाकू में इतनी नैतिकता थी कि खुद को  गलत समझते थे , किंतु आज इसे अपना सर्वोपरि गुण समझते हैं । **


** कच्चा खरबूजा से कच्चा खरबुजा रंग नहीं बदलता , लेकिन एक पका खरबूजा बहुत कच्चे को रंग डालता है । **


** घी नीम की कड़वाहट को मिटा नहीं सकता , लेकिन कम तो कर ही सकता है । **


** जोश का उद्गम बिंदु दिल है , और होश का दिमाग , जहां दोनों ही हो वहां क्या पूछना । **


**  दिल से काम करने वाला हमेशा असफल होता है , और दिमाग से काम करने वाला असफल होकर भी हाथ नहीं मलता , बल्कि सफलता का नया आयाम जुटा ही लेता है । **


** जोश में होश  खोना श्रेयकर नहीं , बल्कि जोश में होश रखना सर्वोत्तम है । **


** आशाएं लॉटरी है । पूरी भी हो सकती है और नहीं भी । केवल इसी पर निर्भर रहना सही नहीं है । **


**लोग पुलिस से इसलिए दूर भागते हैं , क्योंकि वह कुछ देती नहीं , बल्कि लेती है । यह लेना आर्थिक , मानसिक और सामाजिक शोषण के रूप में हो सकता है । और प्रत्येक आदमी अपने सम्मान की रक्षा चाहता है । **


** औरत और पुरुष में भेद यह है कि प्रथम का मस्तिष्क दूसरे के मस्तिष्क से ज्यादा  संवेदनशील  होता है । **


** थकावट दो प्रकार की होती है ।
1.मानसिक थकावट - यह काम आरंभ से पहले और काम का ढेर को देखकर ।
2. दूसरा शारीरिक थकावट - यह काम की समाप्ति पर या अधिक काम करने से ।
प्रथम शारीरिक परिश्रम से दूर होता है , जबकि दूसरा आराम से । **


** भ्रम मोह उपजाता है , मोह संवेदना और संवेदना आंसू । तथा इन सब पर जो विजय पाए वही कर्मवीर है। **


** पति पत्नी का रिश्ता बड़े ही नाजुक डोर से बंधा होता है , जिसे विश्वास करते हैं । यदि इसमें दरार पड़ गई तो पुनः नहीं जुटती । **


** धैर्य के साथ समय का इंतजार राजनीति कूटनीति एवं सफलता का पहला मंत्र है । **


** विषम परिस्थिति में संयम न खोना सफलता का लक्षण है । **


** एक को मिलाना और दूसरे को लड़ाना , राजनीति और कूटनीति का मूल है । **


**  चाहे जैसे हो जनता को विश्वास में लेकर चलना ही राजनीति तथा कूटनीति का मूल आधार है ।**



** जब जैसा तब तैसा राजनीति और कूटनीति का सार है । **


**************क्रमश:***************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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रविवार, 29 मई 2022

अरबी , फारसी में हिन्दू का अर्थ चोर क्यों है ?

इंजीनियर पशुपतिनाथ अनुसंधानशाला में


कविता
शीर्षक - अरबी और फारसी में हिन्दू का अर्थ चोर क्यों है ?
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

एक बात अजब हम पाते हैं ,
सब लोगों को बतलाते हैं ।

बिना पैर जो सब जगह ,
वह सर्वव्यापी में आते हैं ,
एक पैर रख नहीं चले ,
वे जड़ पादप कहलाते हैं ,
चार पैर रख कर के भी
पशु दूर नहीं जा पाते हैं ,
दो पैरों का मानव जन
कहां से कहां चले जाते हैं ,
एक बात अजब हम .... ।

इसी तरह पश्चिम के मानव
सिंधु पार कर आते थे ,
कुछ चोरों के द्वारा अपना
धन मान गवांते थे ,
अपने वतन लौट कर के
जब ये बातें बतलाते थे ,
सिंधु शब्द का अर्थ वहां
सब मानव चोर लगाते थे ,
एक बात अजब ..... ।

( पश्चिम के मानव = अरब/ गल्फ से )

कालक्रम में यही शब्द
अपभ्रंश हुआ है हिंदू में ,
कुछ दुष्टों के कारण इसमें
दाग है जैसे इंदु में ,
यहां की बातें ऐसी कि
लोग नहीं रुक पाते हैं ,
यहां की जलवायु मिट्टी 
से खींचे चले आते हैं ,
एक बात अजब ..... ।

बड़े-बड़े शूरमा आए ,
पर टिक नहीं यहां पाए ,
हीरा मोती रत्न ले गए ,
फिर भी नाश नहीं लाए ,
ग्रंथ यहां के ले जाकर भी
यह परिवेश नहीं पाए ,
शुभ्र बहुत बातें यहां है ,
कितना यहां बतलाए ,
एक बात अजब ...... ।

आज यह धरती एक शब्द में
हिंदुस्तान कहलाती है ,
मन उद्गार यहां का भाई
हिंदी ही बतलाती है ,
हिंदी आज राजभाषा है ,
यह कविता भी हिंदी में ,
भारत में हिन्दी वैसी है
जैसे नारी बिंदी में ,
एक बात अजब ...... ।

******************************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शनिवार, 28 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 18 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास के विषय के ज्ञान का उपदेश देते हुए

आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब प्रभो हम युद्ध करूंगा।

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 18
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास विषय के ज्ञान का उपदेश दिया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - हे भगवान !
मुझ पर कृपा करें कृपा निधान ,
त्याग और संन्यास का ज्ञान ,
इनका तत्त्व कहें श्रीमान ,
पृथक पृथक इनको बतलाएं ,
इनका तत्त्व प्रभो समझाएं  ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो पार्थ हे वीर महान !
सभी कर्मफल त्याग जो करते ,
त्यागी उनको विज्ञ हैं कहते ,
काम्य कर्म का त्याग जो करते ,
उनको संन्यासी सब कहते ।
( काम्य कर्म = भौतिक इच्छाओं पर आधारित कर्म )

कुछ ऐसा भी हैं विद्वान ,
कर्म ही दोषी कहे सुजान ,
इसका त्याग कहे उत्तम ,
और न दूजा सर्वोत्तम ,
कुछ ऐसा भी है विद्वान ,
यज्ञ दान तप पर दे ध्यान ।

अब मेरा मत सुन तू पार्थ ,
त्याग किसे कहते हैं आर्य ?
गुण त्रय से हूं समझाता ,
सत रज तम से हूं बतलाता ।
( गुण त्रय = सत रज तम )

यज्ञ दान तप कर्म उन्नत ,
नहीं त्याग योग्य मेरा मत ,
क्योंकि ए मानव सुकर्म ,
सज्ञ विज्ञ का यही धर्म ।

यज्ञ दान तप आदि कर्म को ,
और सभी कर्तव्य कर्म को ,
बिन फल चिंता आसक्ति हीन ,
शांत चित्त और भय विहीन ,
करना ही धर्म सम्मत है ,
और हमारा भी यह मत है।

नियत कर्म का त्याग न अच्छा ,
मोह वश हो त्यागे जो ,
तामस त्याग है यह कहलाता ,
तामस ही करता है सो ।

तन क्लेश और कष्ट के कारण ,
नियत कर्म को त्यागे जो ,
राजस गुण यह त्याग कहाए ,
नहीं त्याग का फल वह पाए ।

शास्त्र विहित कर्म है उचित ,
आसक्ति हीन कर्म है उचित ,
फल भय त्याग कर्म है उचित ,
इसके सिवा सब कर्म अनुचित,
सत गुण त्याग है यह कहलाए ,
सात्त्विक जन के मन को भाए ।

न घृणा हो अशुभ कर्म से ,
अकुशल से वैर न जिनको ,
शुभ और कुशल कर्मों से
नहीं मोह आसक्ति जिनको ,
सात्त्विक त्यागी यह कहलाता ,
सत कर्म सब शास्त्र बताता ।

देहधारी किसी प्राणी हेतु
सभी कर्म का त्याग असंभव,
पर जो कर्म फल को त्यागे ,
सच्चा त्यागी मुझको लागे ।

तीन प्रकार का कार्यों का फल ,
अच्छा बुरा और मिश्रित फल ,
मृत्यु बाद प्राप्त है करता ,
जो नहीं त्यागी कर्मक कर्त्ता  ,
पर संन्यासी कर्मक कर्त्ता
को ए फल सब नहीं सताता ।

सब कर्मों की सिद्धि हेतु
कारण पांच है अर्जुन जानो ,
सांख्य शास्त्र में सब है वर्णित ,
जिसे सुनाता इसको मानो ।

अधिष्ठान , कर्त्ता  और कारण ,
भिन्न-भिन्न चेष्टाएं जानो ,
परमात्मा पांचवा है आता ,
भली-भांति इसको तू मानो ।
( अधिष्ठान = आश्रय , स्थान । कारण = इंद्रियां, साधन )

मन वाणी और शरीर से ,
शास्त्र सम्मत अथवा विपरीत ,
जो कुछ कर्म है करता भू जन
ए पांचों ही बनते साधन ।

इन उपरोक्त पांच कारणों को ,
नहीं माने मनुज कुबुद्धि ,
अपने को कहता कर्त्ता है ,
समझ न पाता बात सुबुद्धि ।

मैं हूं कर्त्ता अहं नहीं  यह
जिसके मन में  होता पार्थ ,
भौतिक कर्म से लिप्त नहीं जो ,
नहीं आकर्षित करता स्वार्थ ,
सब लोगों को मार के अर्जुन ,
वास्तव में नहीं मरता वह ,
और नहीं पापी कहलाता ,
महावीर पद धरता वह ।

ज्ञाता , ज्ञान , ज्ञेय ए तीनों
कर्म प्रेरणा है कहलता ,
कर्त्ता ,क्रिया , कारण तीनों ,
कर्म संग्रह में है आता ।

सत रज तम प्रकृति के गुण
इन गुणों के ही अनुसार ,
ज्ञान ,कर्म, कर्त्ता भी तीन है ,
जिनको कहता हूं सुन यार ।

अनंत रूप  विभक्त जीवो में
एक ही आत्मा माने जो जन ,
सम भाव से स्थित देखे ,
नहीं है अंतर पता जो मन ,
ऐसा ज्ञान सात्त्विक कहलाता,
विज्ञ सभी ऐसा बतलाता ।

भिन्न-भिन्न  जीवों में अर्जुन ,
नाना भाव व आत्मा देखे ,
ऐसा ज्ञान राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र ऐसा बतलाता ।

सत्य रहित ,तुच्छ व वर्जित
कार्य से जो जन करता प्यार ,
अपना समय वह व्यर्थ में खोता ,
तामस ज्ञान कहाता यार ।

राग द्वेष आसक्ति हीन
कर्म फल इच्छा विहीन ,
नियमित शास्त्र विधि अनुसार ,
कार्य कहाता सत्त्विक यार ।

इच्छा पूर्ति हेतु कार्य
जिसमें मिथ्या हो अहंकार ,
कठिन परिश्रम से हो पूर्ण ,
राजस कार्य कहाता यार ।

पर दुखदाई शास्त्र विहीन 
हिंसा हानि व अज्ञान ,
शक्ति से बाहर सब कार्य ,
तमस कार्य कहाता आर्य ।

अहं हीन संकल्प से पूर्ण  ,
धैर्य युक्त उत्साहित कार्य ,
हर्ष शोक रहित सुकर्म ,
बिन संगत जो करता आर्य ,
सात्त्विक कर्त्ता यह कहलाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ।

पर दुखदाई लोभी आसक्त
कर्म फल की इच्छा वाला ,
अशुद्ध आचार हो जिसका
हर्ष शोक में हो मतवाला ,
कर्त्ता यह राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र यह बात बताता।

धूर्त घमंडी शिक्षा हीन ,
दीर्घसूत्री आलसी आदि ,
पर जीविका के नर नाशक ,
शोक से विह्वल इत्यादि,
सदा खिन्नता अयुक्ति भाता ,
कर्त्ता यह तामस कहलाता।

अर्जुन से बोला भगवान ,
ध्यान देकर सुन अब यह ज्ञान ,
बुद्धि , धृति का तीन भेद ,
जिसे बताता वेद पुराण ।
( धृति = धैर्य )

प्रवृत्ति  निवृत्ति आदि
कार्य- अकार्य , भय-अभय इत्यादि ,
बंधन-मोक्ष में भेद बताती ,
सात्त्विक बुद्धि है कहलाती ।
( प्रवृत्ति = कर्म , निवृत्ति = अकर्म )

ना कर्तव्य- अकर्तव्य ही जाने ,
ना धर्म-अधर्म पहचाने ,
यह बुद्धि राजस कहलाती ,
राजन जन को खूब सुहाती ।

धर्म है कहती जो अधर्म को ,
सभी चीज विपरीत बताती ,
अर्थ को अनर्थ बताती ,
अनर्थ को सार्थक सिखलाती ,
ऐसी बुद्धि त्याज कहाती ,
तामस बुद्धि यह कहलाती ।

अचल नित्य अभ्यास के द्वारा
अटूट अनुशासित विश्वास ,
मन प्राण सभी कार्यकलाप
पर वश करना जो सिखलाए,
सुनो पार्थ तू ध्यान लगाकर,
सात्त्विक धृति  है कहलाए ।

फल की इच्छा हेतु व्याकुल ,
धर्म अर्थ और काम में आकुल ,
ए आसक्ति जिसे लुभाए ,
राजस धृति  है कहलाए ।

निद्रा भय चिंता व दुख में ,
उदंडता उन्मत्तता आदि ,
दुष्टता नीचता कुकर्म में
बधा हुआ घूमे बर्बादी ,
ऐसी धारणा शक्ति पार्थ ,
तामसी धृति कहते आर्य ।

पुनः बोले केशव श्रीमान ,
सुनो पार्थ तीन सुख महान ,
अभ्यास से भोगता प्राणी ,
जीव का जीवन , मन की वाणी,
दुखों का अंत कहते ज्ञानी ,
जिसे बताया सब विज्ञानी ।

शुरू में विष  अंत में अमृत
आत्मा बुद्धि से जन्मा जो,
आत्म तुष्टि का बोध कराता ,
सात्त्विक सुख है यह कहलाता ।

विषय इंद्रियों के सहयोग से
प्राप्त सुख राजस कहलाता ,
पहले अमृत सा लगता है ,
अंत में विष जीवन दे जाता।

निद्रा मोह कलह से आता ,
आलस में जन को उलझाता ,
आत्मा बुद्धि को ढक जाता ,
शुरू अंत  विष को बो जाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ,
ऐसा सुख तामस कहलाता ।

देवलोक या स्वर्ग लोक हो ,
अथवा भू का जिंदा जीवन ,
नहीं जगह कोई ब्रह्मांड में
ए त्रिगुण से खाली अर्जुन ,
प्रकृति के इन त्रिगुण  को ,
अपने अंदर ढूंढ के रख लो ।

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र के
कर्म जन्म से है नहीं मानो ,
गुण स्वभाव द्वारा विभक्त यह ,
परंतप अर्जुन तू जानो ।

शौच तपस्या आत्मसंयम व
शांति प्रियता व धार्मिकता ,
ज्ञान और विज्ञान वगैरह
सत्य निष्ठा  सहिष्णुता  ,
स्वभाव से जन्म है पाते
ब्राह्मण कर्म हैं ए कहलाते ,
जो जन ऐसा कर्म है करता ,
ए जन ब्राह्मण है कहलाते ।

शूरवीरता तेज धैर्य व
रण में धीर चतुरता आदि ,
स्वामी भाव नेतृत्व वगैरह
दान उदरता गुण इत्यादि ,
क्षत्रिय गुण ए सब कहलाते ,
क्षत्रिय नर को मन को भाते ।

खेती गोपालन क्रय-विक्रय ,
सत्य आचरण सत्य व्यवहार ,
जीवन देश समाज के हेतु
निर्भय हो करना व्यापार ,
यह सब कर्म जो जन है करता ,
वैश्य महाजन पद को धरता ,
सेवा कर्म है जिनको भाता ,
शुद्र पुरुष नर है कहलाता ।

अपने अपने स्वाभाविक
कर्मों को करता प्राणी अर्जुन ,
भगवत प्राप्ति कैसे करता ,
इसे बताता अब सुन अर्जुन।

सब जीवो का जनक कहाता ,
सर्वव्यापी सर्वज्ञ गिनाता ,
अपने स्वाभाविक कर्मों बल
से मानव उसको पा जाता ।

दूजा धर्म से श्रेष्ठ है अपना ,
क्यों नहीं गुण रहित हो अर्जुन ,
स्वभाव से नियत धर्म कर्म
से नहीं पाप है होता अर्जुन।

किसी न किसी दोष युक्त है ,
सभी कर्म सुन तू अर्जुन ,
अग्नि धुंआ युक्त  है जैसे ,
दोष सभी कर्म ढकता वैसे ,
स्वभाव से नियत कर्म को
कर्मठ कर सफल है होते ,
चाहे दोष युक्त ही क्यों नहीं ,
नहीं इसे छोड़ कर हट जाते ।

स्पृहा आसक्ति रहित
अंतः करण पर वश का कर्त्ता ,
सांख्य योग के द्वारा अर्जुन ,
निष्कर्म सिद्धि है करता ।
( स्पृहा = इच्छा/कामना , सांख्य योग = आत्म योग )

परम ज्ञान को प्राप्त है करके
ब्रह्म की प्राप्ति होती कैसे ?
उस सिद्धि को सुन बतलाता ,
जिसे समझ नर धन्य हो जाता ।

राग द्वेष को त्याग है कर के
शुद्ध बुद्धि व धैर्य से मंडित ,
सात्त्विक नियमित हल्का भोजन ,
करे नियंत्रण  विषय अखंडित ।

एकांत सेवी , वैरागी नर ,
तन मन वाणी पर नियंत्रण ,
रहे सदा समाधि लीन ,
पूर्ण स्वतंत्र नहीं पराधीन ।

मिध्या अहं काम क्रोध व
मिथ्या गर्व से मुक्त है जो जन ,
मिथ्या स्वामित्व शांत विरल मन ,
भौतिकता से मुक्त है जो  तन ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म को पाता ,
उच्च कोटि में गिना जाता ।

ऐसा जन प्रसन्न है रहता ,
नहीं किसी हेतु शोक है करता ,
नहीं आकांक्षा करे किसी से ,
सम भाव वह रखे सभी पे ,
मेरे परम भक्ति को पाता ,
नहीं लौट फिर भू पर आता ।

मुझ भगवान के यथारूप को
सिर्फ भक्ति से जाना जाता ,
मेरे तत्त्व स्वरूप को अर्जुन ,
भक्ति से पहचाना जाता ,
जो मुझ में विश्वास है लाता ,
वह बैकुंठ जगत में जाता।

मेरे परायण कर्म योगी सुन ,
अपने कर्मों को है करता ,
मेरी कृपा से हे अर्जुन !
परम पद अविनाशी धरता ।

मुझ में मन तू अर्पित कर ,
सभी कर्म समर्पित कर ,
सम बुद्धि योग का ले सहारा ,
मेरे परायण है नहीं हारा ।

मानो पार्थ तू मेरी बात ,
अपना मन मुझमें तू लगा ,
सब संकट करेगा पार,
और न दूजा है व्यवहार ,
अहंकार वश होकर तू ,
मेरी बात नहीं मानेगा,
नष्ट भ्रष्ट हो करके तू ,
अंत में तू पछतायेगा।

अहंकार के कारण तू,
युद्ध से मुंह है मोड़ रहा ,
मिथ्या निश्चय यह तेरा ,
जिस पर तू है दौड़ रहा ,
अंत में युद्ध करेगा तू ,
कायर पद धरेगा तू ।

जिस कर्म को तू अर्जुन  ,
मोह वश नहीं करता तू ,
उसी युद्ध को तू अर्जुन ,
पर वश हो लड़ेगा तू ,
अपना गुण स्वभाव को जानो ,
कर मन स्थिर खुद पहचानो ।

अर्जुन से बोला भगवान ,
सुनो पार्थ तू देकर ध्यान ,
सब प्राणी के शरीर यंत्र में ,
जीवो के मन सिर तंत्र में ,
परमेश्वर का वास है जानो ,
उनकी माया को पहचानो ,
कठपुतली की भांति की नाईं ,
सबहि नचावत राम गोसाईं ।

सुनो पार्थ साहस दिखलाओ ,
परमात्मा की शरण में जाओ ,
परम शांति को पाओगे ,
धाम सनातन में जाओगे ।

अति गोपनीय ज्ञान यह अर्जुन ,
जिसे बताया ध्यान दे अर्जुन ,
इस पर मन से करो विचार ,
तदनुसार रखो आचार ।

अति गोपनीय से गोपनीय
परम रहस्यमय अनुकरणीय ,
फिर बतलाता हूं दे ध्यान ,
मेरा परम प्रिय विद्वान ्

कहा कृष्ण अर्जुन याद रखना ,
मुझ में मन लगाओ अपना ,
मुझ में भक्ति श्रद्धा लाओ ,
मेरा पूजन कर सुख पाओ ,
मुझे नमन प्रणाम करो ,
मुझे प्राप्त कर विजय धरो ,
मेरा सत्य वचन यह  जानो ,
मेरा प्रिय तू इसको मानो ।

सब धर्मों का त्याग करो तू ,
किसी भय से नहीं डरो तू ,
मेरी शरण में तू आ जाओ ,
सुनो पार्थ तू ना घबराओ ,
मैं तेरा उद्धार करूंगा ,
तेरा मैं पतवार बनूंगा ।

न संयमी नहीं एकनिष्ठ जो ,
ना भक्ति व द्वेषी मेरा ,
गुप्त ज्ञान यह नहीं  बताना ,
यह कर्तव्य है बनता तेरा ।

मुझ में प्रीति रखता जो जन,
मेरी भक्ति करता जो मन ,
गीता के इस गूढ़ रहस्य को
जानने का अधिकारी वह तन ,
मेरे भक्तों में वह कहेगा ,
भवसागर के पार बसेगा ।

इस संसार में ऐसा प्राणी
मेरा सबसे प्रिय बनेगा ,
और न दूजा इस जगत में
जिससे मेरा प्रेम रहेगा।

मेरा तेरा इस संवाद को
इस गीता में जो पढ़ेगा ,
अथवा भक्ति श्रद्धापूर्वक
शांत चित्त से ध्यान करेगा ,
भक्ति ज्ञान योग से वह नर
भवसागर को पार करेगा ।

द्वेष रहित व श्रद्धा युक्त हो ,
जो नर इसका श्रवण करेगा ,
सब पापों से मुक्ति पाकर
उत्तम कर्मों को वो करेगा ,
श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा,
श्रेष्ठों में गिना जाएगा ।

अर्जुन से पूछे भगवान ,
कहो धनंजय वीर महान ,
इस शास्त्र का सुना ज्ञान ,
बोलो वीर बोलो विद्वान ,
क्या अभी शेष तेरा अज्ञान ?
सत्य बोलो हे वीर महान !

अर्जुन उवाच-
बोला अर्जुन वीर महान ,
दूर हुआ मेरा अज्ञान ,
मेरा मोह हटा श्रीमान ,
संशय मिटा ,पाया ज्ञान ,
भय हटा स्मृति आई ,
आपकी कृपा एकाग्रता लाई ,
आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब मैं प्रभो युद्ध करूंगा ।

संजय उवाच-
संजय बोला हे श्रीमान!
सब उपदेश और बातचीत ,
बासुदेव व पार्थ के बीच ,
सुनकर वर्णन किया नाचीज़ ।

व्यास कृपा से हे श्रीमान !
दिव्य दृष्टि पाया  महान ,
यह पवित्र गोपनीय योग ,
प्रभु मुख से सुना श्रीमान ।

मंगलमय अद्भुत संवाद
गोपनीय पवित्र है आर्य ,
जिसे सुना और देखा नाथ,
जिसे बताया आपके साथ ,
पुनः पुनः स्मरण में आता ,
बार बार मन हर्ष समाता ।

उस अत्यंत विलक्षण रूप का
पुनः पुनः कर करके याद ,
मेरा चित्त निर्मल हो जाता ,
मन का मिटा सभी विषाद ।

जहां योगेश्वर कृपा विराजे ,
वहीं गांडीवधारी राजे ,
वहीं विजय विभूति आकर
सदा विराजे प्रभु को पाकर ,
राजन! यह सच शत प्रतिशत है ,
शास्त्र सम्मत यह मेरा मत है ।




***********समाप्त*****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शुक्रवार, 27 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 17 )

श्रृद्धा के तीन प्रकार और इसका गुण तथा दोष अर्जुन को बताते भगवान श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 17
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रद्धा त्रय यानी श्रद्धा के तीन प्रकार और उसके गुण-दोष तथा लाभ-हानि इत्यादि के बारे में बताया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच -
शास्त्र विधि को त्याग है करके
श्रद्धा से है करता पूजन ,
हाथ जोड़कर बोला अर्जुन
इसे बताएं हे मधुसूदन !
किस कोटि का है यह मानस ?
सात्त्विक , राजस अथवा तामस ।

भगवान उवाच-
तीन तरह की होती श्रद्धा
स्वभाव से जन्मी जानो ,
सात्त्विक , राजस और तामस ,
बोला केशव इसको मानो ।

कुछ की श्रद्धा होती अर्जुन ,
सत्त्व अनुसार ,
जिसकी जैसी श्रद्धा होती
वैसा कर्म से करता प्यार ,
अंतःकरण है जिनका जैसा
जाना जाता है वह वैसा ।

सात्त्विक जन-मन पूजे देवता ,
राजस पूजते राक्षस यक्ष को ,
भूत प्रेत का करता अर्चन ,
मनुज कहाता यह तामस जन ।

शास्त्र विधि हीन श्रद्धा मंडित
घोर तपस्या ,
दंभ , कामना ,राग , अंहं
संयुक्त हो जाता ।

तन में स्थित जीव और
मन स्थित मुझको ,
ए तामस गुण  कृश और
अदृश्य बनाता ।

तीन तरह का होता भोजन ,
जिनके मन को जैसा भाता ,
यज्ञ , तप और दान भी तीन है ,
इसे सुन मैं हूं बतलाता ।

आयु , बुद्धि, बल ,आरोग्य सुख
और प्रीति को देने वाला ,
सरस मुलायम व मनभावन
बहुत काल तक रहने वाला ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
सात्त्विक जन है वह कहलाता ।

बहुत गर्म नमकीन व तीखे ,
दाहक कड़वे खट्टे रूखे ,
दुख चिंता और रोग उपजाए ,
ऐसा भोजन जिनको भाए ,
ऐसा जन राजस कहलाते ,
मध्यम जन में गिने जाते ।

रसहीन , दुर्गंध और बासी ,
कच्चा ,गंदा ,जूठा नाशी ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
तामस जन है वह कहलाता ।

शास्त्र विधि से नियत यज्ञ
मानव कर्तव्य कहता है ,
बिन फल इच्छा शुद्ध मन से
जन द्वारा किया जाता है ,
ऐसा यज्ञ सात्त्विक कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ से मान है पाता ।

दंभ आडंबर युक्त
और फल की दृष्टि से ,
ऐसा करता यज्ञ जगत में
जो जन मानस ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
ध्यान लगाकर ,
शास्त्र सभी ऐसा यज्ञ को
कहता है तामस ।

बिना दक्षिणा , बिना मंत्र व
शास्त्र विधि विहीन ,
बिन भक्ति के , बिन श्रद्धा व
अन्न दान से हीन ,
ऐसा यज्ञ कहाता तामस ,
इसको करते तामस मानस ।

गुरु , देवता , ब्राह्मण  ,यज्ञ
पूजन इत्यादि ,
शौच , सरलता ,ब्रह्मचर्य ,
अहिंसा आदि ,
तप शारीरिक ए कहलाए ,
विज्ञ पुरुष के मन को भाए

सत्य प्रिय , हित कारक व उद्वेग रहित ,
स्वाध्याय अभ्यास पूर्ण जो है बोली ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
वांग्मय तप है यह  हमजोली।
( वांग्मय तप = वचन संबंधित )

मन प्रसन्नता , शांत , सौम्यता ,
मौन ,आत्म संयम,
अंतः करण के भाव की शुद्धि ,
मन के तप में देते सिद्धि ।

तीन प्रकार के उपरोक्त तप ए
सात्त्विक तप कहलाता है ,
फल आकांक्षा रहित श्रद्धा से
विज्ञ पुरुष अपनाता है।

पूजा मान व सत्कार हेतु
दंभ से तप जो होता है ,
क्षणिक अनिश्चित फलदायक है
राजस तप कहलाता है।

आत्म पीड़ा से पर दुख हेतु
जो तप करता तामस जन ,
ऐसा तप तामस कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ के मन नहीं भाता।

देश काल व पात्र समझ कर
अपकारक को दान है वर्जित ,
जो सुपात्र को दान है देता ,
सात्त्विक दान सा है यह चर्चित ।

क्लेश पूर्वक या  फल हेतु
जो जन ऐसा दान है करता ,
ऐसा दान राजस कहलाता ,
मध्यम कोटि में गिना जाता ।

बिन सत्कार व तिरस्कार कर ,
दान जो करता है अपात्र को ,
ऐसा दान तामस कहलाता ,
अज्ञ कहाता देता है जो ।

ओम तत् सत् तीन नाम यह
  परब्रह्म का नाम कहाता ,
ब्राह्मण वेद यज्ञ इत्यादि
इन तीनों से रचा जाता ।

इस कारण से यज्ञ दान तप
मंत्र ओम से शुरू होता ,
परब्रह्म के नाम सनातन
यही सबका गुरु होता है ।

परमात्मा के इष्ट शरीर को
तत् निरूपित करता भाई ,
यज्ञ दान तप की क्रियाएं
इससे बनती है सुखदाई ।

परमात्मा के श्रेष्ठ भाव और
सत्य भाव को ,
सत्  निरूपित है करता
यह अर्जुन जानो ,
उत्तम कर्म में इसे प्रयोग
करें जन मानस ,
जीवन को करते सुखमय
यह सत्य है मानो ।

यज्ञ दान तप की स्थिति भी
सत् कहलाता है ,
परमात्मा के लिए कर्म भी
सत् रूप जाना जाता है ।

हवन दान तप शुभ कर्म सब ,
बिन श्रद्धा के असत् कहाता ,
ना फल देता इस लोक में ,
मरने पर भी व्यर्थ हो जाता ।

*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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गुरुवार, 26 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 16 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैव पुरुष और असुर पुरुष का गुण-दोष का ज्ञान बताते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 16
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैव पुरुष  और असुर पुरुष के गुण-दोष इत्यादि के ज्ञान का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सत्त्व , ज्ञान , योग, अभय ,व्यवस्था ,
निर्मलता ,शुद्धि ,आचार ,
दान ,दम ,यज्ञ व तप के संग
स्वाध्याय जिनका विचार।

त्याग , सत्य , अक्रोध ,अहिंसा ,
चित्त चंचलता का अभाव ,
अहंकार हीन , शांत  ,दयालु ,
परनिंदा नहीं जहां सुभाव ,
अनासक्ति आचार सुसज्जित ,
दुष्कर्मों पर जो है लज्जित।

तेज , शौच , क्षमा , धृति व
शांति धन है जिस नर मन का ,
स्वपूजन अभिमान से वंचित ,
ए सब लक्षण दैवमय जन का ।

दम्भ , दर्प , अभिमान ,क्रोध ,
अज्ञान , पारुष्य हैं करते कर्षण ,
ए संपदा हैं असुर पुरुष की
असुर पुरुष के ए सब लक्षण ।

दैव संपदा है मुक्ति हेतु ,
असुर संपदा है माया बंधन ,
अत: शोक मत कर तू अर्जुन ,
दैवी मय तू जन्मा नंदन ।

भूतों की इस सृष्टि में हम ,
दो प्रकार का जीव हैं पाते ,
एक दैवी प्रकृति मंडित ,
दूजा आसुरी युक्त कहाते ,
पहला का विस्तार सुना तू ,
दूजा का सुन जिसे बताते ।

ना प्रवृत्ति ना निवृत्ति में
अंतर हैं पाते ए जन  ,
नहीं शौच ,आचार , सत्य में
ही रमता है इनका तन- मन ।

बिन आश्रय व बिना सत्य के ,
बिन ईश्वर संपन्न हुआ है ,
नर-नारी संयोग मात्र से
स्वत; जगत उत्पन्न हुआ है ,
केवल काम अतः है कारण ,
जिससे जीव जगत में धारण ,
इसके सिवा और क्या कैसा ?
असुर पुरुष बतलाते ऐसा ।

ऐसा मिथ्या ज्ञान के कारण
क्रूर कर्म करते हैं धारण ,
स्व आत्मा को मरण किया है ,
कर्म कुकर्म को वरण किया है ।

दंभ , मान व मद से मंडित ,
दुष्प्राप्य चाहत ए करते ,
भ्रष्ट आचार, मिथ्या सिद्धांत 
ग्रहण करके ए सदा विचरते ।

असंख्य चिंताओं से बद्ध
मृत्यु तक कुकर्म हैं करते ,
काम भोग हीं परम सुख है ,
ऐसा ए जन माना करते ।

आशा की कोटी माया से बद्ध
काम क्रोध तत्पर ए जन ,
संग्रह करते काम भोग हेतु
अधर्म से कैसा भी धन।

सोचे आज धन प्राप्त किया यह
कल कर लूंगा इष्ट सिद्धि से ,
कितना धन संग्रह में आया ,
पुनः धन हो किसी विधि से ।

इस अरि को मारा है मैंने ,
अन्य का भी हर लूं प्राण ,
मैं ही ईश्वर , मैं ही भोगी ,
सिद्ध , सुखी मैं हूं बलवान ।

मुझ सा धनी , ना मुझ सा कुटुंबी ,
ना मुझ सा भू पर है जन ,
यज्ञ दान आमोद के कर्त्ता
ना कोई मुझ सा जन मन ।

भ्रमित चित्त व मोह जाल से
खुद ए  समावृत हो जाते ,
विषय भोग आसक्त ए दुर्जन
सीधे नर्क लोक को जाते ।

अपने आप को श्रेष्ठ मानते ,
धन मान मद युक्त घमंडी ,
नाम मात्र के यज्ञ भी करते ,
शास्त्र विधि हीन ए पाखंडी ।

अहंकार , बल ,दर्प ,काम ,क्रोध
से मदांध ए निदंक दुर्जन ,
स्व आत्मा परमात्मा स्थित
मुझ परमात्मा का वैरी जन ।

क्रूर कर्मी पापाचारी ऐसा द्वेषी
नराधम जन को ,
असुर योनी में जन्म मैं देता
दु:साध्य फिर पाना मुझको ।

जन्म जन्म तक आसुरी योनि
को पाते व भोगे ए जन ,
अधोगमन कर , घोर नरक धर ,
मुझसे दूर रहे ए दुर्जन ।

काम ,क्रोध व लोभ तीन ए
नरक द्वार के बनते साधन ,
आत्म नाश ए करने वाले ,
अधोगति के ए प्रसाधन ,
इन तीनों का त्याग करे जो
पाता है वह परम गति को ।

तम द्वार के ए तीन अवगुण से
जो नर विमुक्त हो जाता ,
आत्मा का कल्याण है करता ,
परम गति को वह पा जाता ।

शास्त्र  न माने , काम लिप्त जो ,
ना माने आचार नीति को ,
ऐसा पापी दुराचारी
प्राप्त न करता परम गति को ,
सब सिद्धि उसको ठुकराए ,
जीवन भर वह सुख नहीं पाए ।

शास्त्र जो कहता वह कर्तव्य है ,
जो नहीं कहता त्याज है मानो ,
शास्त्र विधि से नियत कर्म ही
करने योग्य है ऐसा जानो ,
जब जब विमूढ़ समय है आए ,
सत्त्व शास्त्र रास्ता दिखलाइए ।

*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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बुधवार, 25 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 15 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग का उपदेश देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 15
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में उपदेश किए हैं ।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
यह ब्रह्मांड है उल्टा पीपल
उर्ध्व मूल परमेश्वर रूप ,
पत्ते जिसके वेद छंद हैं
अध: शाखा ब्रह्मा स्वरूप ,
इसके तत्त्व ज्ञान जो जाने ,
वेद विज्ञ जग उसको माने ।

ऊपर नीचे सभी जगह में
बढ़ा हुआ यह ब्रह्म पेड़ है ,
विषय युक्त व गुण से मंडित
इसका शाखा तना व धड़ है ,
इस मूल तरु से निकला नोक
नीचे जा रचा नृलोक ,
कर्म बद्ध रहते नर नारी ,
सिर्फ कर्म के वे अधिकारी ।
( नृलोक = संसार , भूलोक )

उपयुक्त है परम कल्पना
परब्रह्म की ,
ऐसा भौतिक रूप नहीं
मिलता देखन में ,
नहीं आदि , नहीं अंत ,नहीं
रूप इसका कोई ,
वर्णित है यह महाग्रंथ श्रुति
के लेखन में ,
परम ज्ञान व दिव्य चक्षु के
शस्त्रो द्वारा ,
इस संसार वृक्ष का मूल
जो करता भेदन ,
परमेश्वर के परमधाम को
खोज निकाले ,
अहंता ममता काम को
करता छेदन ।
( श्रुति = वेद )

जिनके परम धाम में आकर ,
जिनके निर्मल पद को पाकर ,
पुनः जन्म नहीं लेता है नर,
पुनः नहीं लौटा वह भू पर ,
आदि पुरुष वह परम सनातन ,
जिनकी महिमा परम पुरातन।

मोह ,आसक्ति ,मान ,काम
पर विजय किया जो ,
नित्य निरंतर अध्यात्म में
रत रहता जो ,
सुख-दुख द्वंदों से विमुक्त
है ज्ञानी जन वो ,
प्राप्त है करता अविनाशी
परम पद को ।

जिसे न पावक ,नहीं सूर्य शशि ,
आभा देने में सक्षम है ,
जिसे प्राप्त कर जन्म न ले नर
वहीं मेरा धाम परम है ।।

इस लोक में देख रहे हो
जो जन्मे हैं जीव सनातन ,
मेरे आत्म अंश से जीवित
माने इसको ग्रंथ पुरातन ,
छठी इंद्रिय मन के द्वारा
प्रकृति के पांच आकर्षण ,
रूप गंध स्पर्श शब्द रस
इत्यादि को करते कर्षण ।

एक क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में
वायु गंध ले जाती जैसे ,
देह त्याग पर जीव आत्मा
मन ढोकर ले जाता वैसे ,,
प्राप्त है करता जैसे तन ,
उस तन का यह पहला मन।

श्रोत्र ,चक्षु , त्वचा ,रसना व घ्राण से 
निर्मित कर मानव मन ,
जीव आत्मा मन के द्वारा
विषय स्वाद को करता सेवन।

आत्मा सूक्ष्म कहते हैं सब
तन छोड़ के यह जाता है जब ,
विषय भोगता रहता है तब
तन में स्थित रहता है जब ,
देख न पाये मूढ़ अज्ञानी ,
ज्ञान नेत्र से देखे ज्ञानी ।

अंतःकरण शुद्ध है जिनका
आत्म तत्त्व समझे वह ज्ञानी ,
अंत:करण अशुद्ध है जिनका
समझ ना पाता है अज्ञानी ।

जग प्रकाशित होता जिससे
देख रहा रवि तेज अनल ,
चंद्र तेज व अग्नि ज्योति
मान सभी को मेरा बल ।

अपनी शक्ति से बन धारा
धारण करता सब भूतों को ,
अमृत बनकर चारु चंद्रमा
करता पालन सब पादप को ।

जठराग्नि व प्राण अपान हो
जन-मन अंदर स्थित रहता  ,
भोज्य , चोष्य ,भक्ष्य व लेहा
चार भोजन का पाचक बनता ।
( अपान= निम्नगामी वायु , भोज्य = निगलना जैसे दूध आदि , चोष्य = चूसना जैसे ईख , भक्ष्य = चबाना जैसे रोटी आदि , लेहा = चाटना जैसे चटनी आदि । ये हैं भोजन के चार प्रकार )

ज्ञान , अपोहन स्मृति आदि
सबमें स्थित मुझको जान ,
वेद वेदांत का कर्त्ता ज्ञाता
वेद भी कहता मुझको मान ।
( अपोहन = शंका संदेह का निराकरण )

नाशवान अविनाशी दो ही
पाए जाते इस भूतल पर ,
सूक्ष्म आत्मा रहता अक्षर
सब कहते तन स्थूल है क्षर ।

इन दोनों से भी है उत्तम
परमात्मा है तू यह जान ,
सर्व व्याप्त है सभी लोक में
जग संचालक ईश्वर मान ।

नाशवान स्थूल से उत्तम ,
अक्षर आत्मा से सर्वोत्तम ,
सब लोक में , सब वेदों में ,
जाना जाता मैं पुरुषोत्तम ।

इस प्रकार तत्त्व से मुझको
पुरुषोत्तम माना जो ज्ञानी ,
सभी प्रकार से भजे वह मुझको ,
करे उन्नति ऐसा प्राणी ।

इस प्रकार मैं तुझे बताया
अति अनामय गुप्त शास्त्र यह,
बुद्धि से नर जिसे जानकर
धन्य धन्य हो जाता है वह ।
( अनामय = दोषरहित , सदगुण युक्त )

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