बुधवार, 25 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 15 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग का उपदेश देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 15
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में उपदेश किए हैं ।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
यह ब्रह्मांड है उल्टा पीपल
उर्ध्व मूल परमेश्वर रूप ,
पत्ते जिसके वेद छंद हैं
अध: शाखा ब्रह्मा स्वरूप ,
इसके तत्त्व ज्ञान जो जाने ,
वेद विज्ञ जग उसको माने ।

ऊपर नीचे सभी जगह में
बढ़ा हुआ यह ब्रह्म पेड़ है ,
विषय युक्त व गुण से मंडित
इसका शाखा तना व धड़ है ,
इस मूल तरु से निकला नोक
नीचे जा रचा नृलोक ,
कर्म बद्ध रहते नर नारी ,
सिर्फ कर्म के वे अधिकारी ।
( नृलोक = संसार , भूलोक )

उपयुक्त है परम कल्पना
परब्रह्म की ,
ऐसा भौतिक रूप नहीं
मिलता देखन में ,
नहीं आदि , नहीं अंत ,नहीं
रूप इसका कोई ,
वर्णित है यह महाग्रंथ श्रुति
के लेखन में ,
परम ज्ञान व दिव्य चक्षु के
शस्त्रो द्वारा ,
इस संसार वृक्ष का मूल
जो करता भेदन ,
परमेश्वर के परमधाम को
खोज निकाले ,
अहंता ममता काम को
करता छेदन ।
( श्रुति = वेद )

जिनके परम धाम में आकर ,
जिनके निर्मल पद को पाकर ,
पुनः जन्म नहीं लेता है नर,
पुनः नहीं लौटा वह भू पर ,
आदि पुरुष वह परम सनातन ,
जिनकी महिमा परम पुरातन।

मोह ,आसक्ति ,मान ,काम
पर विजय किया जो ,
नित्य निरंतर अध्यात्म में
रत रहता जो ,
सुख-दुख द्वंदों से विमुक्त
है ज्ञानी जन वो ,
प्राप्त है करता अविनाशी
परम पद को ।

जिसे न पावक ,नहीं सूर्य शशि ,
आभा देने में सक्षम है ,
जिसे प्राप्त कर जन्म न ले नर
वहीं मेरा धाम परम है ।।

इस लोक में देख रहे हो
जो जन्मे हैं जीव सनातन ,
मेरे आत्म अंश से जीवित
माने इसको ग्रंथ पुरातन ,
छठी इंद्रिय मन के द्वारा
प्रकृति के पांच आकर्षण ,
रूप गंध स्पर्श शब्द रस
इत्यादि को करते कर्षण ।

एक क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में
वायु गंध ले जाती जैसे ,
देह त्याग पर जीव आत्मा
मन ढोकर ले जाता वैसे ,,
प्राप्त है करता जैसे तन ,
उस तन का यह पहला मन।

श्रोत्र ,चक्षु , त्वचा ,रसना व घ्राण से 
निर्मित कर मानव मन ,
जीव आत्मा मन के द्वारा
विषय स्वाद को करता सेवन।

आत्मा सूक्ष्म कहते हैं सब
तन छोड़ के यह जाता है जब ,
विषय भोगता रहता है तब
तन में स्थित रहता है जब ,
देख न पाये मूढ़ अज्ञानी ,
ज्ञान नेत्र से देखे ज्ञानी ।

अंतःकरण शुद्ध है जिनका
आत्म तत्त्व समझे वह ज्ञानी ,
अंत:करण अशुद्ध है जिनका
समझ ना पाता है अज्ञानी ।

जग प्रकाशित होता जिससे
देख रहा रवि तेज अनल ,
चंद्र तेज व अग्नि ज्योति
मान सभी को मेरा बल ।

अपनी शक्ति से बन धारा
धारण करता सब भूतों को ,
अमृत बनकर चारु चंद्रमा
करता पालन सब पादप को ।

जठराग्नि व प्राण अपान हो
जन-मन अंदर स्थित रहता  ,
भोज्य , चोष्य ,भक्ष्य व लेहा
चार भोजन का पाचक बनता ।
( अपान= निम्नगामी वायु , भोज्य = निगलना जैसे दूध आदि , चोष्य = चूसना जैसे ईख , भक्ष्य = चबाना जैसे रोटी आदि , लेहा = चाटना जैसे चटनी आदि । ये हैं भोजन के चार प्रकार )

ज्ञान , अपोहन स्मृति आदि
सबमें स्थित मुझको जान ,
वेद वेदांत का कर्त्ता ज्ञाता
वेद भी कहता मुझको मान ।
( अपोहन = शंका संदेह का निराकरण )

नाशवान अविनाशी दो ही
पाए जाते इस भूतल पर ,
सूक्ष्म आत्मा रहता अक्षर
सब कहते तन स्थूल है क्षर ।

इन दोनों से भी है उत्तम
परमात्मा है तू यह जान ,
सर्व व्याप्त है सभी लोक में
जग संचालक ईश्वर मान ।

नाशवान स्थूल से उत्तम ,
अक्षर आत्मा से सर्वोत्तम ,
सब लोक में , सब वेदों में ,
जाना जाता मैं पुरुषोत्तम ।

इस प्रकार तत्त्व से मुझको
पुरुषोत्तम माना जो ज्ञानी ,
सभी प्रकार से भजे वह मुझको ,
करे उन्नति ऐसा प्राणी ।

इस प्रकार मैं तुझे बताया
अति अनामय गुप्त शास्त्र यह,
बुद्धि से नर जिसे जानकर
धन्य धन्य हो जाता है वह ।
( अनामय = दोषरहित , सदगुण युक्त )

*************समाप्त******************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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