भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गुण त्रय यानी सत्त्व रज तम का ज्ञान का उपदेश देते हुए कविता भगवान उवाच- इस ज्ञान को जो अपनाए , महत् ब्रह्म है मेरी योनि इस ब्रह्मांड की सब योनियों से प्रकृति से जन्म हैं लेकर निर्मल शुभ्र और प्रकाशक रजोगुण है राग आकर्षण , तमोगुण सम्मोहित करता सत्व गुण सुख में रत करता , रजो तमो को दाब ज्योंहि ज्ञान विवेक चेतना रजोगुण के बढ़ने पर मन मानव का अप्रकाश व अप्रवृत्ति , मोह ,प्रमाद सत्त्व गुण के वृद्धि काल में रजोगुण के वृद्धि काल में श्रेष्ठ कर्म का कर्त्ता मानव रजोगुण से लोभ है आता , सत्त्व गुण संपन्न पुरुष है इन गुणों से परे न देखो जन्म का हेतु सत रज तम को भगवान उवाच- इन गुणों से न विचलित हो जो है स्थित आत्म भाव में जिन्हें मान नहीं हर्षित करता , अव्यभिचारी भक्त योग से परम ब्रह्म व अमृत अव्यय ********समाप्त************** My blog URL ******* ******* ***** |
मैं इंजीनियर , रिसर्चर और लेखक हूं। मैं गांव रोआरी , जिला-पश्चिम चम्पारण ,बिहार ,भारत का निवासी हूं। मेरी रचनाएं जो रोचक कविता , काव्यानुवाद , गीत , व्यंग , लेख , कोटेशन इत्यादि भिन्न भिन्न विषयों पर है आप यहां पढ़कर उसका आनंद उठा सकते हैं। I am engineer , researcher and writer. I live at village Roari , via - Lauria, District- champaran, Bihar, India. Blog url -Pashupati57.blogspot.com , Contact-- Er. Pashupatinath prasad , E-mail- er.pashupati57@gmail.com , Mobile 6201400759
मंगलवार, 24 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 14 )
सोमवार, 23 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 13 )
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रेत्र और श्रेत्रज्ञ के विषय में ज्ञान देते हुए |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 13
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में बताया है।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
भगवान उवाच- उपरोक्त दो था अनजान , इन दो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को बहु विधि इन तत्त्वों को पांच महाभूत ,अहंकार व इच्छा , द्वेष , सुख-दुख , धृति , दंभहीन ,अभिमानहीन स्थिर मन लौकिक परलौकिक आसक्ति , पत्नी पुत्र गृह व धन संग शुद्ध देश एकांत प्रिय हो , अध्यात्म ज्ञान तत्त्व नित्य बखाने , सुनो पार्थ अब ज्ञेय बताता , हाथ, पैर व नेत्र , सिर व निर्गुण है पर गुण सब भोगे , सब भूतों के बाहर भीतर अविभक्त होने पर भी वह ब्रह्मा रूप सबका पिता वह ज्योति की ज्योति बोधगम्य वह क्षेत्र ज्ञान व ज्ञेय बताया पुरुष और प्रकृति दो ही प्रकृति उत्पन्न है करती त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ जिसे पुरुष प्रकृति में स्थित हो इस शरीर में एक और है पुरुष और प्रकृति गुणों को परमात्मा के परम रूप को मंदबुद्धि कुछ ऐसे भू पर स्थावर जंगम सब प्राणी सभी चराचर भूत नाश को सभी जगह दिखे विद्यमान , सभी कर्म निष्पादित होता पृथक-पृथक भूतों के अनादि निर्गुण अविनाशी सर्व व्याप्त सूक्ष्म आकाश एक रवि संपूर्ण ब्रह्मांड को ज्ञान चक्षु से क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ व **********समाप्त*******************. इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL ******* ********* ********* |
रविवार, 22 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 12 )
अर्जुन को भक्ति की महिमा का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 12
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्ति की श्रेष्ठता का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अर्जुन उवाच- भगवान उवाच- निराकार अविनाशी अचल भजता जो नर ऐसे ब्रह्म को , उपर्युक्त इस निर्गुण ब्रह्म को मेरे परायण रहने वाले सभी भक्तजन, जिनका चित्त मुझ में रमता है , तन मन बुद्धि गर अर्पित कर अपना मन मुझमें स्थिर गर उपर्युक्त अभ्यास योग में उपरोक्त कर्म करने में लक्ष्य हीन व दिशा हीन द्वेष भाव से हीन दयालु तुष्ट निरंतर जो योगी हो , जिनका कर्म नहीं किसी रहता शुद्ध जो तन से मन से हर्ष द्वेष शोक कामना शत्रु- मित्र ,अपमान-मान में सर्वतुष्ट व मौनी चिंतक उपरोक्त धर्ममय अमृत ************समाप्त******************** My blog URL *********** ********** ********* |
शनिवार, 21 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 11 )
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 11
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप दर्शन यानी विराट रूप का परिचय कराया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अर्जुन उवाच-
मुझ पर परम अनुग्रह करके
परम गुप्त अध्यात्म बताया ,
जिसे सुन मन-मोह कुबुद्धि
नष्ट हुआ व ज्ञान समाया।
सब भूतों व प्रलय काल का
सुना मैं तू जनक कहाए ,
अविनाशी महिमा से मंडित
तुम्हें सदा है जगत बताए ।
जैसा तूने तू को बतलाया ,
देखना चाहूं वैसा तुझको ,
ज्ञान ऐश्वर्य तेज बल शक्ति
युक्त तुम्हारे ईश्वर रूप को ।
यदि है संभव देख पाना
तेरे उस अविनाशी रूप को ,
हे योगेश्वर ! देव दयामय !
मुझे दिखाओ उस स्वरूप को।
भगवान उवाच-
कोटि-कोटि व नाना विधि के ,
नाना वर्ण , आकृति वाला ,
अलौकिक रूपों को मेरे
देख पार्थ कहा जग रखवाला ।
आठ वसु व रूद्र ग्यारह ,
पुत्र अदिति देख तू बारह ,
उनचास मरुतगण को भी देखो ,
अश्विनी दो ए अद्भुत पेखो ।
पूर्ण जगत को और चराचर
देख एकत्रित मेरे तन में ,
गुडाकेश ! सब कुछ देखो तू ,
जो इच्छा है तेरे मन में ।
अपने इन नेत्रों के द्वारा
देख नहीं सकता है मुझको ,
दिव्य रूप दर्शन के हेतु
दिव्य दृष्टि देता हूं तुझको ।
अविनाशी योगेश्वर हरि ने
ऐसा कह निज रूप बढ़ाया ,
परम अलौकिक वृहद डरावन
योगशक्ति दिव्य रूप दिखाया ।
अनेक मुख और नैन बहुत सा ,
देखने में यह अद्भुत लगता ,
दिव्य आभूषण , दिव्य अस्त्र से ,
दिव्य रूप यह अद्भुत जचता ।
दिव्य मालाएं, दिव्य वस्त्र से ,
दिव्य गंध से वासित तन है ,
अनंत दिशा में मुख सभी ओर ,
अद्भुत दिखता रूप परम है ।
कोटि-कोटि उदित सूर्य से
नहीं तेज होता है उतना ,
तेज पुंज चमक ज्वाला से
दिव्य रूप प्रकाशित जितना ।
पृथक- पृथक व तरह-तरह का
पूर्ण और संपूर्ण जगत को ,
केशव के तन में अर्जुन ने
देखा सत को और असत को ।
विश्वरूप इस परम ब्रह्म का
देख चकित व पुलकित होकर ,
परम भक्ति से हाथ जोड़कर
बोला अर्जुन तन- मन खोकर ।
अर्जुन उवाच -
ब्रह्मा शिव सभी ऋषियों को
सब भूतों के दल को पाता ,
दिव्य सर्प सब देव महादेव
तेरे तन में मुझे सुहाता ।
अनेक भुजा ,पेट , मुख , नेत्रों से
युक्त अनंत सा देखूं तुझको ,
नहीं आदि न अंत न मध्यम
विश्वरूप में दिखता मुझको।
मुकुट युक्त ,गदा ,चक्र मंडित
तेजपुंज से दीप्त अखंडित ,
सूरज की प्रदीप्त ज्योति हो ,
ऐसा अद्भुत दिखता मुझको ।
परम अक्षर तू वेत्ता वेदित
तुम में आस्था धाम पुरातन,
तुम्ही अनादि धर्म के रक्षक
तू अविनाशी पुरुष सनातन।
( वेत्ता = जानने वाला / ज्ञाता ,
वेदित = ज्ञापित/ जाना हुआ )
आदि अंत व मध्य रहित है ,
अनंत शक्ति से मुख प्रज्वलित है ,
शशि सूर्य सा चक्षु हस्त है ,
दीप्त तेज से विश्व तप्त है ।
स्वर्ग और भू के बीच का
संपूर्ण अकाश व सभी दिशाएं ,
एक आपसे पूर्ण व्याप्त हो
भोग रहा संताप व्यथाएं ।
देवों का दल घुस रहा है ,
कुछ भयभीत खड़ा नतमस्तक ,
नाम गुण की गान करें कुछ ,
स्वस्ति कहता ऋषि दल मस्तक।
(स्वस्ति = कल्याण हो )
सिद्ध वसु ,आदित्य , रूद्र गण ,
विश्वदेव , मरूत व पितर ,
राक्षस , यक्ष, गंधर्व ,अश्विनी ,
देख रहे सब विस्मित होकर।
बहुत मुख, हस्त, नेत्र व जंघा ,
पैर ,उदर विकराल दंत को ,
जग व्याकुल है , मैं भी आकुल ,
दर्शन कर इस महानंत को ।
नभ को छूता विविध वर्ण युक्त
विशाल चक्षु , दीप्त वृहद मुख ,
अवलोकन कर भय खाता हूं ,
धैर्य न शांति को पाता हूं।
विकराल दंत ,प्रज्वलित अग्नि मुख
प्रलय काल की वेला जैसे ,
दिग्भ्रमित कर श्रीहीन कर दे ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पे ।
धृतराष्ट्र के पुत्र सभी सब
घुस रहे राजाओं संग में ,
भीष्म , द्रोण व कर्ण इत्यादि
दिख रहे हैं तेरे अंग में ।
मेरे पक्ष के वीर सभी सब
आप के मुख में दौड़ दौड़ कर ,
चूर्ण बने विशाल दंत से
पीस रहे हैं कौर बनकर ।
प्रबल जलधारा से सरिता
सागर में जा मिलती जैसे ,
आपके प्रज्वलित वृहद मुख में
वीर जगत के घुस रहे वैसे।
मोहित हो प्रज्वलित अग्नि से
नाश पतंगा पाते जैसे ,
आप के मुख में नाश के हेतु
पूर्ण जगत है दिखता वैसे ।
प्रज्वलित मुख व लपलप जीभ से
बना ग्रास संपूर्ण लोक है ,
उग्र प्रकाश तेज से तपता
पूर्ण जगत में शोच शोक है।
देव श्रेष्ठ है नमन हमारा ,
कौन आप इस उग्र रूप में ?
नहीं प्रवृति ज्ञात तुम्हारी
मुझे बताएं बृहद रूप में ।
भगवान उवाच-
इन लोगों के नाश के हेतु
बढ़ा प्रवृत्त मैं महाकाल रब ,
युद्ध करो या नहीं करो तुम ,
नहीं बचेंगे ए योद्धा सब ।
पहले ही मैं मार चुका हूं ,
देख रहा शूरवीर यहां पर ,
धन यश और राज्य को भोगों ,
निमित्त मात्र बन इन्हें जीतकर।
द्रोण भीष्म , जयद्रथ, कर्ण सा
और बहुत शूरवीर संहारा ,
तू भी मार , न भय कर अर्जुन ,
जीतेगा सुपात्र न हारा।
वचन कृष्ण का ऐसा सुनकर
हाथ जोड़ अर्जुन मुख खोला ,
कुछ भयभीत हो नमस्कार कर
गदगद वाणी से वह बोला ।
अर्जुन उवाच-
स्थानों में ऋषिकेश तू ,
जग हर्षित है पौरूष तेरा ,
राक्षस भाग रहे भय आकुल ,
साधु डाल रहे हैं फेरा ।
ब्रह्मा के भी आदिकर्त्ता
नमन तुझे है हे सर्वोत्तम !
अनंत देवेश ,हे जगन्निवास!
असत सत अक्षर तू उत्तम ।
आदिदेव तू पुरुष पौराणिक
परम निधि है आस्था तुझ में ,
परमधाम यह मान्य विश्वरूप
पूजनीय है दिव्य स्वरूप में।
हवा अनल यम वरुण चंद्र तू ,
ब्रह्मा ब्रह्मा के पिता भी ,
कोटि-कोटि है नमन हमारा ,
पुनः नमन स्वीकार करो भी ।
सर्व रूप में व्याप्त जगत में ,
बल विक्रम की अतुल धारा ,
अग्रभाग व पृष्ठ भाग से
सभी ओर से नमन हमारा ।
तेरी महिमा से अपरिचित
प्रेम युक्त या भ्रांत युक्त चित्त,
सखा मान मैं यह कहता हूं ,
हे यादव कृष्ण ! परम सखा तू।
मेरे शय्या , आसन ,भोजन
व बिहार के लिए प्रभु तू ,
कष्ट और अपमान सहा है ,
हे अचिंत्य ! सब क्षमा करो तू ।
जगत पिता तू , गुरु ना तुम सा
पूज्य चराचर में नहीं पाएं ,
और न कोई तुम सा दूजा
किसी लोक में मुझे सुहाए।
पिता-पुत्र को , सखा सखा को ,
प्रिय प्रियतमा क्षमा करें ज्यों ,
स्तुति नमन निवेदन करता ,
कृपा करके क्षमा करें त्यों।
अपूर्व अद्भुत इस दर्शन से
मन हर्षित है , भय भी खाए ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पर
रूप चतुर्भुज फिर अपनाएं ।
मुकुट गदा चक्र युक्त स्वरूप में
देखना चाहूं फिर से तुझको ,
अतः हे माधव! रूप चतुर्भुज
में दर्शन दें फिर से मुझको।
भगवान उवाच-
परम तेज सा विश्वरूप यह
आत्म योग से तुझे दिखाया ,
तेरे सिवा और नहीं दूजा
देखा इसको स्वयं बताया ।
नहीं यज्ञ अध्ययन वेदों से ,
नहीं दान , नहीं उग्र तपों से ,
नहीं क्रिया से इस नृलोक में ,
देखा यह रूप है त्रिलोक में।
देख इस विकराल रूप को
नहीं विमूढ़ हो ,ना हो आकुल ,
रूप चतुर्भुज देख पुन: तू ,
अभय बनो , न बन तू व्याकुल।
ऐसा कह कर रूप चतुर्भुज
पुनः दिखाया वासुदेव ने ,
सौम्य मूर्ति बन धैर्य दिलाया ,
अर्जुन को श्रीकृष्ण देव ने ।
अर्जुन उवाच-
सौम्य शांत इस मनुज रूप को
देख के स्थिर चित्त को पाया ,
स्वभाविक स्थिति को पाकर
मेरे मन में मोद समाया।
भगवान उवाच-
रूप चतुर्भुज जो तू देखा
बड़ा ही दुर्लभ दर्शन इसका ,
करें आकांक्षा देव सदा से
पाने को है दर्शन जिसका ।
नहीं वेद यज्ञ दान और तप से
मुझको देखा कोई वैसा ,
सब्यसाची हे भक्त धनंजय!
मुझको देखा है तू जैसा।
अनन्य भक्ति के द्वारा मैं
दर्शन को प्रत्यक्ष रूप में ,
प्राप्त तत्त्व से जानने हेतु
भी संभव मैं अनेक रूप में ।
मेरी भक्ति मेरा परायण ,
मेरे लिए कर्म करता जो ,
वैर भाव आसक्ति हीन नर
मुझे प्राप्त हो जाता है वो।
*************समाप्त*********
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन 845453
E-mail er.pashupati57@gmail.com
Mobile 6201400759
My blog URL
Pashupati57.blogspot.com ( इस पर click करके आप मेरी और सभी रचनाएं पढ़ सकते हैं।)
******** ******* *********
शुक्रवार, 20 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 10 )
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी आत्म विभूतियों का परिचय कराते |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 10
इस अध्याय में अपनी आत्म विभूतियों का परिचय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताएं हैं।
( विभूति = ऐश्वर्य , वैभव , महत्ता इत्यादि )
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
भगवान उवाच- नहीं देवता ,नहीं महर्षि , मेरा अजन्मा व अनादि बुद्धि ज्ञान सम्मोहन शम दम , तप संतोष दान यश अपयश , चौदह मनु ,सनकादि पुरातन , मेरे इस विभूति योग के सबका मन प्रभाव है मुझसे , शुद्ध चित्त और शुद्ध प्राण से मेरा चिंतन करता है जो परम अनुग्रह करने हेतु अर्जुन उवाच- असित , व्यास ,नारद व देवल जो कुछ कहते मेरे प्रति तू , स्वयं स्वयं को स्वयं तू जाने , अपनी आत्म विभूतियों को किस प्रकार से नित्य निरंतर अपनी योग विभूतियों को भगवान उवाच- सब भूतो के ह्रदय स्थित अदिति पुत्रों में मैं विष्णु , वेदों में मैं सामवेद हूं , पर्वतों में मेरु पर्वत , बृहस्पति हूं पुरोहितों में , महर्षियों में भृगु मुनि मैं , देवर्षियों में नारद मुनि मैं , हाथियों में ऐरावत हूं , गायों में मैं कामधेनु हूं , नागों में मैं शेषनाग हूं, दैत्यों में प्रहलाद आज हूं , पवित्र करता वायु मैं हूं , अध्यात्म यानी ब्रह्मविद्या अक्षरों में अकार भी मैं हूं , सबका नाश ,मृत्यु व उद्भव श्रुतियों में मैं वृहद साम हूं , छलों में मैं द्यूत जूआ हूं , वृष्णिवंशो में वासुदेव मैं , दुष्ट दमन का दंड सान हूं , सब भूतों का जन्म मुझी से , मेरी दिव्य विभूतियों का ऐश्वर्य , कांति और शक्ति अपनी योगशक्ति के कारण *************समाप्त******************** इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL ************* ***** ********** |
गुरुवार, 19 मई 2022
गीता काव्यानुवाद (अध्याय 9 )
अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण राजविद्या इत्यादि का उपदेश दे रहे हैं |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 9
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को राजविद्या इत्यादि विषय पर उपदेश किए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
भगवान उवाच- विज्ञान युक्त है यह ज्ञान , इसमें जो विश्वास न करते , अव्यक्त रूप मेरा नभ से जन्मा चंचल वायु , कल्प अंत में सभी पूर्ण प्रकृति मेरे अंदर किसी कर्म का लोभ आकर्षण मेरी अध्यक्षता में प्रकृति नहीं मूढ़ है मुझको माने , व्यर्थ की आशा व्यर्थ कर्म व दैवी प्रकृति में आश्रित जन दृढ़ संकल्प के साथ नित्य ए द्वैत भाव ,एकांत भाव मैं हूं यज्ञ ,मंत्र हूं मैं ही , ऋग , यजुर व साम भी मैं ही, मैं ही लक्ष्य ,पालक व साक्षी तपता मैं हूं सूरज बनकर, सोमप व वेदज्ञ गुणी जन वृहद स्वर्ग का भोग को करके श्रद्धा पूर्वक अन्य देवता मुझे सभी यज्ञों का भोक्ता देवता पूजता जो है व्यक्ति , पुष्प पत्र फल जल इत्यादि अपना कर्म दान तप भोजन , इस प्रकार तू कर्म के बंधन , सभी भूतों में व्याप्त हूं मैं पक्षपात ना करूं किसी से , पाप कर्म ,जघन्य कर्म के धर्मात्मा में वह है आता , वैश्य , शुद्र , नीच या त्रिया , राजर्षि ,भक्त व ब्राह्मण अपना मन मुझमें अर्पण कर , *************समाप्त************* इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL |
बुधवार, 18 मई 2022
गीता काव्यानुवाद (अध्याय 8 )
अर्जुन को अक्षर ब्रह्म, अधिदैव ,अधिभूत और अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण |
कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 8
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अक्षर ब्रह्म , अधिदैव , अधिभूत , अधियज्ञ इत्यादि का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
अर्जुन उवाच- अधियज्ञ क्या ,कहां है स्थित ? भगवान उवाच- जिनका हो उत्पति-नाश अंत समय में जो जन मुझको अंत समय में जो जो भाव मुझ में मन तन अर्पित कर स्थिर चित्त अभ्यास योग से जो सर्वज्ञ अनादि नियंता भक्ति युक्त ऐसा नर मन का जिसे वेदज्ञ कहे अविनाशी , सब इंद्रियों को निरुद्ध कर, एकाक्षर ब्रह्म ओम उच्चारे, अनन्य चित्त से नित्य निरंतर परम सिद्धि को प्राप्त जो करता , मुझे प्राप्त कर लेता है जो ब्रह्मा के एक दिन में ब्रह्मा के एक दिन के होते ही पैदा होकर भूत समूह यह उपर्युक्त अव्यक्त भाव से परम गति कहते हैं सब जन , सर्वभूत जिनके अंतर्गत , जिस मार्ग से गए साधु जन जिस मार्ग से ज्योतिर्मय जिस मार्ग में धूम अभिमानी शुक्ल ( देवयान ) और कृष्ण ( पितृयान ) इन मार्गों को तत्त्व से वेद यज्ञ व तप दान में , ************समाप्त************* My blog URL |
मंगलवार, 17 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 7 )
अर्जुन को ज्ञान और विज्ञान का उपदेश करते भगवान श्रीकृष्ण कविता भगवान उवाच- आगे बोले फिर भगवान मेरी चाहत करे अनेक , पृथ्वी ,जल ,बुद्धि ,वायु व अपरा जड़ ए आठ कहाते , इन दो प्रकृतियों के कारण मोती गुंथे धागा में जैसे , नभ में शब्द ,जल में रस हूं, पृथ्वी में पवित्र गंध मैं , बीज सनातन सब भूतों का , कामना ,इच्छा ,आशक्ति हीन सतो रजो तमो गुण भाव सात्त्विक राजस तामस भाव त्रिगुणमयी अद्भुत इस माया निपट मूर्ख अधम मनुज व जिज्ञासु , आर्त और ज्ञानी , इन चारों में मुझको जो भाता , और तीन उदार स्वरूप , बहुत जन्म जन्मों के बाद भोग कामना के कारण , जिसके मन में श्रद्धा आए , इस श्रद्धा विश्वास के कारण , पर यह फल नहीं टिक पाता , बुद्धिहीन पुरुष अनजान , योगमाया अच्छादित अपनी भूत ,भविष्य और वर्तमान इच्छा द्वेष घृणा उत्पन्न , पूर्व जन्म और इस जन्म में जरा मृत्यु से चाहे मुक्ति अधिदैव ,अधियज्ञ , अधिभूत ***************समाप्त******************** My blog URL
|
सोमवार, 16 मई 2022
मन
शांत मन से योग रत लड़की |
प्रसन्न मन व्यक्ति कविता सभी कार्य और सभी कर्म, विभिन्न कलाएं , सब विद्याएं , बाइबल , गीता और कुरान , इस ब्रह्मांड का एक एक कण , अगर न तन में रहता मन , विश्व आकर्षण यही मन , योगी होता ध्यान मग्न , मन हेतु सब कार्यकलाप, नियमित क्रिया कार्यकलाप , नहीं ज्ञान का है दर्शन , घूमते ए जन पागल बन , अच्छी बातें सीख नहीं पाते , *********समाप्त*********** इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL ******* ******** ******** |
रविवार, 15 मई 2022
गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 6 )
आत्म संयम और योगी विषय पर उपदेश अर्जुन को देते श्रीकृष्ण कविता भगवान उवाच- जिसको कहते हैं संन्यास , नव साधक अष्टांग योगी हेतु भौतिक सब इच्छाओं को त्याग मन के कारण अधोगति जिसने मन पर किया वश , सर्दी -गर्मी , सुख -दुख आदि , ज्ञान और विज्ञान से तृप्त जन , पापी ,वैरी , द्वेषी आदि इंद्रियों और मन पर तन पे , योगाभ्यास का सुनो बयान , उस पर बैठकर योगी तन तन ,गर्दन और सिर को , इस प्रकार वह मन को रोककर जिस योगी का मन हो नियंत्रित , अति भोजन या नहीं भोजन , नियत कर्म और नियमित भोजन , मानसिक कार्यकलापों पे कस , हवा रहित स्थान में दीपक योग के अभ्यास से इंद्रियों से परे अति सूक्ष्म विशुद्ध परम आत्मा की प्राप्ति दुख रूपी संसार है भोग , संकल्प और श्रद्धा के साथ धीरे-धीरे दृढ़ता से चंचल मन नहीं रहता स्थिर , शांत चित्त और मन हो जिसका , पाप रहित मानव निरंतर सभी भूत स्थित आत्मा में , सब भूतों को आत्म रूप में परमात्मा और मुझे नहीं अपनी भांति सब भूतों को अर्जुन उवाच- मन है चंचल, मन है हठी , भगवान उवाच- जिनका मन वश में नहीं जानो, अर्जुन उवाच- छिन्न-भिन्न मेघों की भांति अर्जुन बोला- हे श्रीमान ! भगवान उवाच - योग भ्रष्ट भी योगी जन , नहीं नीच कुल को है पाता , पुनर्जन्म के पुण्यों से पूर्व जन्म के चेतना ज्ञान पर सत् कर्मक इसी जन्म में , तपस्वियों से श्रेष्ठ है योगी योगियों में भी श्रद्धावान ****************समाप्त**************** इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL |
शनिवार, 14 मई 2022
आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि की रचना की
![]() |
आदिशक्ति महेश ,आदिशक्ति , विष्णु और ब्रह्मा ( बाएं से दाएं ) |
कविता
शीर्षक- आदिशक्ति ने कैसे सृष्टि उत्पन्न की
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
पराग सदृश एक तेजस्वी का प्रभा युक्त इस चंद्रशेखर की एक शक्ति सिर्फ बच जाती है , जब चलता पवन है मंद मंद ग्रीष्म ऋतु में प्रायः हम दूध दही का जनक रहा, विगत दिनों की यादों में शाल्मली का लाल पुष्प प्रतिक्रिया के कारण ही इसी आदिशक्ति ने पहले नकारात्मक उत्तर कारण नकारात्मक उत्तर से तब तू जननी मैं सुत तेरा स्वर्गीय भ्राता जिंदा हो **********समाप्त**************** इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद My blog URL |