शनिवार, 28 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 18 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास के विषय के ज्ञान का उपदेश देते हुए

आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब प्रभो हम युद्ध करूंगा।

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 18
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष और संन्यास विषय के ज्ञान का उपदेश दिया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
अर्जुन बोला - हे भगवान !
मुझ पर कृपा करें कृपा निधान ,
त्याग और संन्यास का ज्ञान ,
इनका तत्त्व कहें श्रीमान ,
पृथक पृथक इनको बतलाएं ,
इनका तत्त्व प्रभो समझाएं  ।

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान ,
सुनो पार्थ हे वीर महान !
सभी कर्मफल त्याग जो करते ,
त्यागी उनको विज्ञ हैं कहते ,
काम्य कर्म का त्याग जो करते ,
उनको संन्यासी सब कहते ।
( काम्य कर्म = भौतिक इच्छाओं पर आधारित कर्म )

कुछ ऐसा भी हैं विद्वान ,
कर्म ही दोषी कहे सुजान ,
इसका त्याग कहे उत्तम ,
और न दूजा सर्वोत्तम ,
कुछ ऐसा भी है विद्वान ,
यज्ञ दान तप पर दे ध्यान ।

अब मेरा मत सुन तू पार्थ ,
त्याग किसे कहते हैं आर्य ?
गुण त्रय से हूं समझाता ,
सत रज तम से हूं बतलाता ।
( गुण त्रय = सत रज तम )

यज्ञ दान तप कर्म उन्नत ,
नहीं त्याग योग्य मेरा मत ,
क्योंकि ए मानव सुकर्म ,
सज्ञ विज्ञ का यही धर्म ।

यज्ञ दान तप आदि कर्म को ,
और सभी कर्तव्य कर्म को ,
बिन फल चिंता आसक्ति हीन ,
शांत चित्त और भय विहीन ,
करना ही धर्म सम्मत है ,
और हमारा भी यह मत है।

नियत कर्म का त्याग न अच्छा ,
मोह वश हो त्यागे जो ,
तामस त्याग है यह कहलाता ,
तामस ही करता है सो ।

तन क्लेश और कष्ट के कारण ,
नियत कर्म को त्यागे जो ,
राजस गुण यह त्याग कहाए ,
नहीं त्याग का फल वह पाए ।

शास्त्र विहित कर्म है उचित ,
आसक्ति हीन कर्म है उचित ,
फल भय त्याग कर्म है उचित ,
इसके सिवा सब कर्म अनुचित,
सत गुण त्याग है यह कहलाए ,
सात्त्विक जन के मन को भाए ।

न घृणा हो अशुभ कर्म से ,
अकुशल से वैर न जिनको ,
शुभ और कुशल कर्मों से
नहीं मोह आसक्ति जिनको ,
सात्त्विक त्यागी यह कहलाता ,
सत कर्म सब शास्त्र बताता ।

देहधारी किसी प्राणी हेतु
सभी कर्म का त्याग असंभव,
पर जो कर्म फल को त्यागे ,
सच्चा त्यागी मुझको लागे ।

तीन प्रकार का कार्यों का फल ,
अच्छा बुरा और मिश्रित फल ,
मृत्यु बाद प्राप्त है करता ,
जो नहीं त्यागी कर्मक कर्त्ता  ,
पर संन्यासी कर्मक कर्त्ता
को ए फल सब नहीं सताता ।

सब कर्मों की सिद्धि हेतु
कारण पांच है अर्जुन जानो ,
सांख्य शास्त्र में सब है वर्णित ,
जिसे सुनाता इसको मानो ।

अधिष्ठान , कर्त्ता  और कारण ,
भिन्न-भिन्न चेष्टाएं जानो ,
परमात्मा पांचवा है आता ,
भली-भांति इसको तू मानो ।
( अधिष्ठान = आश्रय , स्थान । कारण = इंद्रियां, साधन )

मन वाणी और शरीर से ,
शास्त्र सम्मत अथवा विपरीत ,
जो कुछ कर्म है करता भू जन
ए पांचों ही बनते साधन ।

इन उपरोक्त पांच कारणों को ,
नहीं माने मनुज कुबुद्धि ,
अपने को कहता कर्त्ता है ,
समझ न पाता बात सुबुद्धि ।

मैं हूं कर्त्ता अहं नहीं  यह
जिसके मन में  होता पार्थ ,
भौतिक कर्म से लिप्त नहीं जो ,
नहीं आकर्षित करता स्वार्थ ,
सब लोगों को मार के अर्जुन ,
वास्तव में नहीं मरता वह ,
और नहीं पापी कहलाता ,
महावीर पद धरता वह ।

ज्ञाता , ज्ञान , ज्ञेय ए तीनों
कर्म प्रेरणा है कहलता ,
कर्त्ता ,क्रिया , कारण तीनों ,
कर्म संग्रह में है आता ।

सत रज तम प्रकृति के गुण
इन गुणों के ही अनुसार ,
ज्ञान ,कर्म, कर्त्ता भी तीन है ,
जिनको कहता हूं सुन यार ।

अनंत रूप  विभक्त जीवो में
एक ही आत्मा माने जो जन ,
सम भाव से स्थित देखे ,
नहीं है अंतर पता जो मन ,
ऐसा ज्ञान सात्त्विक कहलाता,
विज्ञ सभी ऐसा बतलाता ।

भिन्न-भिन्न  जीवों में अर्जुन ,
नाना भाव व आत्मा देखे ,
ऐसा ज्ञान राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र ऐसा बतलाता ।

सत्य रहित ,तुच्छ व वर्जित
कार्य से जो जन करता प्यार ,
अपना समय वह व्यर्थ में खोता ,
तामस ज्ञान कहाता यार ।

राग द्वेष आसक्ति हीन
कर्म फल इच्छा विहीन ,
नियमित शास्त्र विधि अनुसार ,
कार्य कहाता सत्त्विक यार ।

इच्छा पूर्ति हेतु कार्य
जिसमें मिथ्या हो अहंकार ,
कठिन परिश्रम से हो पूर्ण ,
राजस कार्य कहाता यार ।

पर दुखदाई शास्त्र विहीन 
हिंसा हानि व अज्ञान ,
शक्ति से बाहर सब कार्य ,
तमस कार्य कहाता आर्य ।

अहं हीन संकल्प से पूर्ण  ,
धैर्य युक्त उत्साहित कार्य ,
हर्ष शोक रहित सुकर्म ,
बिन संगत जो करता आर्य ,
सात्त्विक कर्त्ता यह कहलाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ।

पर दुखदाई लोभी आसक्त
कर्म फल की इच्छा वाला ,
अशुद्ध आचार हो जिसका
हर्ष शोक में हो मतवाला ,
कर्त्ता यह राजस कहलाता ,
सभी शास्त्र यह बात बताता।

धूर्त घमंडी शिक्षा हीन ,
दीर्घसूत्री आलसी आदि ,
पर जीविका के नर नाशक ,
शोक से विह्वल इत्यादि,
सदा खिन्नता अयुक्ति भाता ,
कर्त्ता यह तामस कहलाता।

अर्जुन से बोला भगवान ,
ध्यान देकर सुन अब यह ज्ञान ,
बुद्धि , धृति का तीन भेद ,
जिसे बताता वेद पुराण ।
( धृति = धैर्य )

प्रवृत्ति  निवृत्ति आदि
कार्य- अकार्य , भय-अभय इत्यादि ,
बंधन-मोक्ष में भेद बताती ,
सात्त्विक बुद्धि है कहलाती ।
( प्रवृत्ति = कर्म , निवृत्ति = अकर्म )

ना कर्तव्य- अकर्तव्य ही जाने ,
ना धर्म-अधर्म पहचाने ,
यह बुद्धि राजस कहलाती ,
राजन जन को खूब सुहाती ।

धर्म है कहती जो अधर्म को ,
सभी चीज विपरीत बताती ,
अर्थ को अनर्थ बताती ,
अनर्थ को सार्थक सिखलाती ,
ऐसी बुद्धि त्याज कहाती ,
तामस बुद्धि यह कहलाती ।

अचल नित्य अभ्यास के द्वारा
अटूट अनुशासित विश्वास ,
मन प्राण सभी कार्यकलाप
पर वश करना जो सिखलाए,
सुनो पार्थ तू ध्यान लगाकर,
सात्त्विक धृति  है कहलाए ।

फल की इच्छा हेतु व्याकुल ,
धर्म अर्थ और काम में आकुल ,
ए आसक्ति जिसे लुभाए ,
राजस धृति  है कहलाए ।

निद्रा भय चिंता व दुख में ,
उदंडता उन्मत्तता आदि ,
दुष्टता नीचता कुकर्म में
बधा हुआ घूमे बर्बादी ,
ऐसी धारणा शक्ति पार्थ ,
तामसी धृति कहते आर्य ।

पुनः बोले केशव श्रीमान ,
सुनो पार्थ तीन सुख महान ,
अभ्यास से भोगता प्राणी ,
जीव का जीवन , मन की वाणी,
दुखों का अंत कहते ज्ञानी ,
जिसे बताया सब विज्ञानी ।

शुरू में विष  अंत में अमृत
आत्मा बुद्धि से जन्मा जो,
आत्म तुष्टि का बोध कराता ,
सात्त्विक सुख है यह कहलाता ।

विषय इंद्रियों के सहयोग से
प्राप्त सुख राजस कहलाता ,
पहले अमृत सा लगता है ,
अंत में विष जीवन दे जाता।

निद्रा मोह कलह से आता ,
आलस में जन को उलझाता ,
आत्मा बुद्धि को ढक जाता ,
शुरू अंत  विष को बो जाता ,
सभी शास्त्र यह सीख सिखाता ,
ऐसा सुख तामस कहलाता ।

देवलोक या स्वर्ग लोक हो ,
अथवा भू का जिंदा जीवन ,
नहीं जगह कोई ब्रह्मांड में
ए त्रिगुण से खाली अर्जुन ,
प्रकृति के इन त्रिगुण  को ,
अपने अंदर ढूंढ के रख लो ।

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र के
कर्म जन्म से है नहीं मानो ,
गुण स्वभाव द्वारा विभक्त यह ,
परंतप अर्जुन तू जानो ।

शौच तपस्या आत्मसंयम व
शांति प्रियता व धार्मिकता ,
ज्ञान और विज्ञान वगैरह
सत्य निष्ठा  सहिष्णुता  ,
स्वभाव से जन्म है पाते
ब्राह्मण कर्म हैं ए कहलाते ,
जो जन ऐसा कर्म है करता ,
ए जन ब्राह्मण है कहलाते ।

शूरवीरता तेज धैर्य व
रण में धीर चतुरता आदि ,
स्वामी भाव नेतृत्व वगैरह
दान उदरता गुण इत्यादि ,
क्षत्रिय गुण ए सब कहलाते ,
क्षत्रिय नर को मन को भाते ।

खेती गोपालन क्रय-विक्रय ,
सत्य आचरण सत्य व्यवहार ,
जीवन देश समाज के हेतु
निर्भय हो करना व्यापार ,
यह सब कर्म जो जन है करता ,
वैश्य महाजन पद को धरता ,
सेवा कर्म है जिनको भाता ,
शुद्र पुरुष नर है कहलाता ।

अपने अपने स्वाभाविक
कर्मों को करता प्राणी अर्जुन ,
भगवत प्राप्ति कैसे करता ,
इसे बताता अब सुन अर्जुन।

सब जीवो का जनक कहाता ,
सर्वव्यापी सर्वज्ञ गिनाता ,
अपने स्वाभाविक कर्मों बल
से मानव उसको पा जाता ।

दूजा धर्म से श्रेष्ठ है अपना ,
क्यों नहीं गुण रहित हो अर्जुन ,
स्वभाव से नियत धर्म कर्म
से नहीं पाप है होता अर्जुन।

किसी न किसी दोष युक्त है ,
सभी कर्म सुन तू अर्जुन ,
अग्नि धुंआ युक्त  है जैसे ,
दोष सभी कर्म ढकता वैसे ,
स्वभाव से नियत कर्म को
कर्मठ कर सफल है होते ,
चाहे दोष युक्त ही क्यों नहीं ,
नहीं इसे छोड़ कर हट जाते ।

स्पृहा आसक्ति रहित
अंतः करण पर वश का कर्त्ता ,
सांख्य योग के द्वारा अर्जुन ,
निष्कर्म सिद्धि है करता ।
( स्पृहा = इच्छा/कामना , सांख्य योग = आत्म योग )

परम ज्ञान को प्राप्त है करके
ब्रह्म की प्राप्ति होती कैसे ?
उस सिद्धि को सुन बतलाता ,
जिसे समझ नर धन्य हो जाता ।

राग द्वेष को त्याग है कर के
शुद्ध बुद्धि व धैर्य से मंडित ,
सात्त्विक नियमित हल्का भोजन ,
करे नियंत्रण  विषय अखंडित ।

एकांत सेवी , वैरागी नर ,
तन मन वाणी पर नियंत्रण ,
रहे सदा समाधि लीन ,
पूर्ण स्वतंत्र नहीं पराधीन ।

मिध्या अहं काम क्रोध व
मिथ्या गर्व से मुक्त है जो जन ,
मिथ्या स्वामित्व शांत विरल मन ,
भौतिकता से मुक्त है जो  तन ,
सच्चिदानंद घन ब्रह्म को पाता ,
उच्च कोटि में गिना जाता ।

ऐसा जन प्रसन्न है रहता ,
नहीं किसी हेतु शोक है करता ,
नहीं आकांक्षा करे किसी से ,
सम भाव वह रखे सभी पे ,
मेरे परम भक्ति को पाता ,
नहीं लौट फिर भू पर आता ।

मुझ भगवान के यथारूप को
सिर्फ भक्ति से जाना जाता ,
मेरे तत्त्व स्वरूप को अर्जुन ,
भक्ति से पहचाना जाता ,
जो मुझ में विश्वास है लाता ,
वह बैकुंठ जगत में जाता।

मेरे परायण कर्म योगी सुन ,
अपने कर्मों को है करता ,
मेरी कृपा से हे अर्जुन !
परम पद अविनाशी धरता ।

मुझ में मन तू अर्पित कर ,
सभी कर्म समर्पित कर ,
सम बुद्धि योग का ले सहारा ,
मेरे परायण है नहीं हारा ।

मानो पार्थ तू मेरी बात ,
अपना मन मुझमें तू लगा ,
सब संकट करेगा पार,
और न दूजा है व्यवहार ,
अहंकार वश होकर तू ,
मेरी बात नहीं मानेगा,
नष्ट भ्रष्ट हो करके तू ,
अंत में तू पछतायेगा।

अहंकार के कारण तू,
युद्ध से मुंह है मोड़ रहा ,
मिथ्या निश्चय यह तेरा ,
जिस पर तू है दौड़ रहा ,
अंत में युद्ध करेगा तू ,
कायर पद धरेगा तू ।

जिस कर्म को तू अर्जुन  ,
मोह वश नहीं करता तू ,
उसी युद्ध को तू अर्जुन ,
पर वश हो लड़ेगा तू ,
अपना गुण स्वभाव को जानो ,
कर मन स्थिर खुद पहचानो ।

अर्जुन से बोला भगवान ,
सुनो पार्थ तू देकर ध्यान ,
सब प्राणी के शरीर यंत्र में ,
जीवो के मन सिर तंत्र में ,
परमेश्वर का वास है जानो ,
उनकी माया को पहचानो ,
कठपुतली की भांति की नाईं ,
सबहि नचावत राम गोसाईं ।

सुनो पार्थ साहस दिखलाओ ,
परमात्मा की शरण में जाओ ,
परम शांति को पाओगे ,
धाम सनातन में जाओगे ।

अति गोपनीय ज्ञान यह अर्जुन ,
जिसे बताया ध्यान दे अर्जुन ,
इस पर मन से करो विचार ,
तदनुसार रखो आचार ।

अति गोपनीय से गोपनीय
परम रहस्यमय अनुकरणीय ,
फिर बतलाता हूं दे ध्यान ,
मेरा परम प्रिय विद्वान ्

कहा कृष्ण अर्जुन याद रखना ,
मुझ में मन लगाओ अपना ,
मुझ में भक्ति श्रद्धा लाओ ,
मेरा पूजन कर सुख पाओ ,
मुझे नमन प्रणाम करो ,
मुझे प्राप्त कर विजय धरो ,
मेरा सत्य वचन यह  जानो ,
मेरा प्रिय तू इसको मानो ।

सब धर्मों का त्याग करो तू ,
किसी भय से नहीं डरो तू ,
मेरी शरण में तू आ जाओ ,
सुनो पार्थ तू ना घबराओ ,
मैं तेरा उद्धार करूंगा ,
तेरा मैं पतवार बनूंगा ।

न संयमी नहीं एकनिष्ठ जो ,
ना भक्ति व द्वेषी मेरा ,
गुप्त ज्ञान यह नहीं  बताना ,
यह कर्तव्य है बनता तेरा ।

मुझ में प्रीति रखता जो जन,
मेरी भक्ति करता जो मन ,
गीता के इस गूढ़ रहस्य को
जानने का अधिकारी वह तन ,
मेरे भक्तों में वह कहेगा ,
भवसागर के पार बसेगा ।

इस संसार में ऐसा प्राणी
मेरा सबसे प्रिय बनेगा ,
और न दूजा इस जगत में
जिससे मेरा प्रेम रहेगा।

मेरा तेरा इस संवाद को
इस गीता में जो पढ़ेगा ,
अथवा भक्ति श्रद्धापूर्वक
शांत चित्त से ध्यान करेगा ,
भक्ति ज्ञान योग से वह नर
भवसागर को पार करेगा ।

द्वेष रहित व श्रद्धा युक्त हो ,
जो नर इसका श्रवण करेगा ,
सब पापों से मुक्ति पाकर
उत्तम कर्मों को वो करेगा ,
श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा,
श्रेष्ठों में गिना जाएगा ।

अर्जुन से पूछे भगवान ,
कहो धनंजय वीर महान ,
इस शास्त्र का सुना ज्ञान ,
बोलो वीर बोलो विद्वान ,
क्या अभी शेष तेरा अज्ञान ?
सत्य बोलो हे वीर महान !

अर्जुन उवाच-
बोला अर्जुन वीर महान ,
दूर हुआ मेरा अज्ञान ,
मेरा मोह हटा श्रीमान ,
संशय मिटा ,पाया ज्ञान ,
भय हटा स्मृति आई ,
आपकी कृपा एकाग्रता लाई ,
आपकी आज्ञा सिर धरूंगा ,
अब मैं प्रभो युद्ध करूंगा ।

संजय उवाच-
संजय बोला हे श्रीमान!
सब उपदेश और बातचीत ,
बासुदेव व पार्थ के बीच ,
सुनकर वर्णन किया नाचीज़ ।

व्यास कृपा से हे श्रीमान !
दिव्य दृष्टि पाया  महान ,
यह पवित्र गोपनीय योग ,
प्रभु मुख से सुना श्रीमान ।

मंगलमय अद्भुत संवाद
गोपनीय पवित्र है आर्य ,
जिसे सुना और देखा नाथ,
जिसे बताया आपके साथ ,
पुनः पुनः स्मरण में आता ,
बार बार मन हर्ष समाता ।

उस अत्यंत विलक्षण रूप का
पुनः पुनः कर करके याद ,
मेरा चित्त निर्मल हो जाता ,
मन का मिटा सभी विषाद ।

जहां योगेश्वर कृपा विराजे ,
वहीं गांडीवधारी राजे ,
वहीं विजय विभूति आकर
सदा विराजे प्रभु को पाकर ,
राजन! यह सच शत प्रतिशत है ,
शास्त्र सम्मत यह मेरा मत है ।




***********समाप्त*****************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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शुक्रवार, 27 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 17 )

श्रृद्धा के तीन प्रकार और इसका गुण तथा दोष अर्जुन को बताते भगवान श्रीकृष्ण

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 17
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रद्धा त्रय यानी श्रद्धा के तीन प्रकार और उसके गुण-दोष तथा लाभ-हानि इत्यादि के बारे में बताया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच -
शास्त्र विधि को त्याग है करके
श्रद्धा से है करता पूजन ,
हाथ जोड़कर बोला अर्जुन
इसे बताएं हे मधुसूदन !
किस कोटि का है यह मानस ?
सात्त्विक , राजस अथवा तामस ।

भगवान उवाच-
तीन तरह की होती श्रद्धा
स्वभाव से जन्मी जानो ,
सात्त्विक , राजस और तामस ,
बोला केशव इसको मानो ।

कुछ की श्रद्धा होती अर्जुन ,
सत्त्व अनुसार ,
जिसकी जैसी श्रद्धा होती
वैसा कर्म से करता प्यार ,
अंतःकरण है जिनका जैसा
जाना जाता है वह वैसा ।

सात्त्विक जन-मन पूजे देवता ,
राजस पूजते राक्षस यक्ष को ,
भूत प्रेत का करता अर्चन ,
मनुज कहाता यह तामस जन ।

शास्त्र विधि हीन श्रद्धा मंडित
घोर तपस्या ,
दंभ , कामना ,राग , अंहं
संयुक्त हो जाता ।

तन में स्थित जीव और
मन स्थित मुझको ,
ए तामस गुण  कृश और
अदृश्य बनाता ।

तीन तरह का होता भोजन ,
जिनके मन को जैसा भाता ,
यज्ञ , तप और दान भी तीन है ,
इसे सुन मैं हूं बतलाता ।

आयु , बुद्धि, बल ,आरोग्य सुख
और प्रीति को देने वाला ,
सरस मुलायम व मनभावन
बहुत काल तक रहने वाला ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
सात्त्विक जन है वह कहलाता ।

बहुत गर्म नमकीन व तीखे ,
दाहक कड़वे खट्टे रूखे ,
दुख चिंता और रोग उपजाए ,
ऐसा भोजन जिनको भाए ,
ऐसा जन राजस कहलाते ,
मध्यम जन में गिने जाते ।

रसहीन , दुर्गंध और बासी ,
कच्चा ,गंदा ,जूठा नाशी ,
ऐसा भोजन जिनको भाता ,
तामस जन है वह कहलाता ।

शास्त्र विधि से नियत यज्ञ
मानव कर्तव्य कहता है ,
बिन फल इच्छा शुद्ध मन से
जन द्वारा किया जाता है ,
ऐसा यज्ञ सात्त्विक कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ से मान है पाता ।

दंभ आडंबर युक्त
और फल की दृष्टि से ,
ऐसा करता यज्ञ जगत में
जो जन मानस ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
ध्यान लगाकर ,
शास्त्र सभी ऐसा यज्ञ को
कहता है तामस ।

बिना दक्षिणा , बिना मंत्र व
शास्त्र विधि विहीन ,
बिन भक्ति के , बिन श्रद्धा व
अन्न दान से हीन ,
ऐसा यज्ञ कहाता तामस ,
इसको करते तामस मानस ।

गुरु , देवता , ब्राह्मण  ,यज्ञ
पूजन इत्यादि ,
शौच , सरलता ,ब्रह्मचर्य ,
अहिंसा आदि ,
तप शारीरिक ए कहलाए ,
विज्ञ पुरुष के मन को भाए

सत्य प्रिय , हित कारक व उद्वेग रहित ,
स्वाध्याय अभ्यास पूर्ण जो है बोली ,
कहते कृष्ण सुनो हे अर्जुन !
वांग्मय तप है यह  हमजोली।
( वांग्मय तप = वचन संबंधित )

मन प्रसन्नता , शांत , सौम्यता ,
मौन ,आत्म संयम,
अंतः करण के भाव की शुद्धि ,
मन के तप में देते सिद्धि ।

तीन प्रकार के उपरोक्त तप ए
सात्त्विक तप कहलाता है ,
फल आकांक्षा रहित श्रद्धा से
विज्ञ पुरुष अपनाता है।

पूजा मान व सत्कार हेतु
दंभ से तप जो होता है ,
क्षणिक अनिश्चित फलदायक है
राजस तप कहलाता है।

आत्म पीड़ा से पर दुख हेतु
जो तप करता तामस जन ,
ऐसा तप तामस कहलाता ,
सज्ञ विज्ञ के मन नहीं भाता।

देश काल व पात्र समझ कर
अपकारक को दान है वर्जित ,
जो सुपात्र को दान है देता ,
सात्त्विक दान सा है यह चर्चित ।

क्लेश पूर्वक या  फल हेतु
जो जन ऐसा दान है करता ,
ऐसा दान राजस कहलाता ,
मध्यम कोटि में गिना जाता ।

बिन सत्कार व तिरस्कार कर ,
दान जो करता है अपात्र को ,
ऐसा दान तामस कहलाता ,
अज्ञ कहाता देता है जो ।

ओम तत् सत् तीन नाम यह
  परब्रह्म का नाम कहाता ,
ब्राह्मण वेद यज्ञ इत्यादि
इन तीनों से रचा जाता ।

इस कारण से यज्ञ दान तप
मंत्र ओम से शुरू होता ,
परब्रह्म के नाम सनातन
यही सबका गुरु होता है ।

परमात्मा के इष्ट शरीर को
तत् निरूपित करता भाई ,
यज्ञ दान तप की क्रियाएं
इससे बनती है सुखदाई ।

परमात्मा के श्रेष्ठ भाव और
सत्य भाव को ,
सत्  निरूपित है करता
यह अर्जुन जानो ,
उत्तम कर्म में इसे प्रयोग
करें जन मानस ,
जीवन को करते सुखमय
यह सत्य है मानो ।

यज्ञ दान तप की स्थिति भी
सत् कहलाता है ,
परमात्मा के लिए कर्म भी
सत् रूप जाना जाता है ।

हवन दान तप शुभ कर्म सब ,
बिन श्रद्धा के असत् कहाता ,
ना फल देता इस लोक में ,
मरने पर भी व्यर्थ हो जाता ।

*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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गुरुवार, 26 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 16 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैव पुरुष और असुर पुरुष का गुण-दोष का ज्ञान बताते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 16
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैव पुरुष  और असुर पुरुष के गुण-दोष इत्यादि के ज्ञान का उपदेश दिए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सत्त्व , ज्ञान , योग, अभय ,व्यवस्था ,
निर्मलता ,शुद्धि ,आचार ,
दान ,दम ,यज्ञ व तप के संग
स्वाध्याय जिनका विचार।

त्याग , सत्य , अक्रोध ,अहिंसा ,
चित्त चंचलता का अभाव ,
अहंकार हीन , शांत  ,दयालु ,
परनिंदा नहीं जहां सुभाव ,
अनासक्ति आचार सुसज्जित ,
दुष्कर्मों पर जो है लज्जित।

तेज , शौच , क्षमा , धृति व
शांति धन है जिस नर मन का ,
स्वपूजन अभिमान से वंचित ,
ए सब लक्षण दैवमय जन का ।

दम्भ , दर्प , अभिमान ,क्रोध ,
अज्ञान , पारुष्य हैं करते कर्षण ,
ए संपदा हैं असुर पुरुष की
असुर पुरुष के ए सब लक्षण ।

दैव संपदा है मुक्ति हेतु ,
असुर संपदा है माया बंधन ,
अत: शोक मत कर तू अर्जुन ,
दैवी मय तू जन्मा नंदन ।

भूतों की इस सृष्टि में हम ,
दो प्रकार का जीव हैं पाते ,
एक दैवी प्रकृति मंडित ,
दूजा आसुरी युक्त कहाते ,
पहला का विस्तार सुना तू ,
दूजा का सुन जिसे बताते ।

ना प्रवृत्ति ना निवृत्ति में
अंतर हैं पाते ए जन  ,
नहीं शौच ,आचार , सत्य में
ही रमता है इनका तन- मन ।

बिन आश्रय व बिना सत्य के ,
बिन ईश्वर संपन्न हुआ है ,
नर-नारी संयोग मात्र से
स्वत; जगत उत्पन्न हुआ है ,
केवल काम अतः है कारण ,
जिससे जीव जगत में धारण ,
इसके सिवा और क्या कैसा ?
असुर पुरुष बतलाते ऐसा ।

ऐसा मिथ्या ज्ञान के कारण
क्रूर कर्म करते हैं धारण ,
स्व आत्मा को मरण किया है ,
कर्म कुकर्म को वरण किया है ।

दंभ , मान व मद से मंडित ,
दुष्प्राप्य चाहत ए करते ,
भ्रष्ट आचार, मिथ्या सिद्धांत 
ग्रहण करके ए सदा विचरते ।

असंख्य चिंताओं से बद्ध
मृत्यु तक कुकर्म हैं करते ,
काम भोग हीं परम सुख है ,
ऐसा ए जन माना करते ।

आशा की कोटी माया से बद्ध
काम क्रोध तत्पर ए जन ,
संग्रह करते काम भोग हेतु
अधर्म से कैसा भी धन।

सोचे आज धन प्राप्त किया यह
कल कर लूंगा इष्ट सिद्धि से ,
कितना धन संग्रह में आया ,
पुनः धन हो किसी विधि से ।

इस अरि को मारा है मैंने ,
अन्य का भी हर लूं प्राण ,
मैं ही ईश्वर , मैं ही भोगी ,
सिद्ध , सुखी मैं हूं बलवान ।

मुझ सा धनी , ना मुझ सा कुटुंबी ,
ना मुझ सा भू पर है जन ,
यज्ञ दान आमोद के कर्त्ता
ना कोई मुझ सा जन मन ।

भ्रमित चित्त व मोह जाल से
खुद ए  समावृत हो जाते ,
विषय भोग आसक्त ए दुर्जन
सीधे नर्क लोक को जाते ।

अपने आप को श्रेष्ठ मानते ,
धन मान मद युक्त घमंडी ,
नाम मात्र के यज्ञ भी करते ,
शास्त्र विधि हीन ए पाखंडी ।

अहंकार , बल ,दर्प ,काम ,क्रोध
से मदांध ए निदंक दुर्जन ,
स्व आत्मा परमात्मा स्थित
मुझ परमात्मा का वैरी जन ।

क्रूर कर्मी पापाचारी ऐसा द्वेषी
नराधम जन को ,
असुर योनी में जन्म मैं देता
दु:साध्य फिर पाना मुझको ।

जन्म जन्म तक आसुरी योनि
को पाते व भोगे ए जन ,
अधोगमन कर , घोर नरक धर ,
मुझसे दूर रहे ए दुर्जन ।

काम ,क्रोध व लोभ तीन ए
नरक द्वार के बनते साधन ,
आत्म नाश ए करने वाले ,
अधोगति के ए प्रसाधन ,
इन तीनों का त्याग करे जो
पाता है वह परम गति को ।

तम द्वार के ए तीन अवगुण से
जो नर विमुक्त हो जाता ,
आत्मा का कल्याण है करता ,
परम गति को वह पा जाता ।

शास्त्र  न माने , काम लिप्त जो ,
ना माने आचार नीति को ,
ऐसा पापी दुराचारी
प्राप्त न करता परम गति को ,
सब सिद्धि उसको ठुकराए ,
जीवन भर वह सुख नहीं पाए ।

शास्त्र जो कहता वह कर्तव्य है ,
जो नहीं कहता त्याज है मानो ,
शास्त्र विधि से नियत कर्म ही
करने योग्य है ऐसा जानो ,
जब जब विमूढ़ समय है आए ,
सत्त्व शास्त्र रास्ता दिखलाइए ।

*********समाप्त************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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बुधवार, 25 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 15 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग का उपदेश देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 15
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में उपदेश किए हैं ।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
यह ब्रह्मांड है उल्टा पीपल
उर्ध्व मूल परमेश्वर रूप ,
पत्ते जिसके वेद छंद हैं
अध: शाखा ब्रह्मा स्वरूप ,
इसके तत्त्व ज्ञान जो जाने ,
वेद विज्ञ जग उसको माने ।

ऊपर नीचे सभी जगह में
बढ़ा हुआ यह ब्रह्म पेड़ है ,
विषय युक्त व गुण से मंडित
इसका शाखा तना व धड़ है ,
इस मूल तरु से निकला नोक
नीचे जा रचा नृलोक ,
कर्म बद्ध रहते नर नारी ,
सिर्फ कर्म के वे अधिकारी ।
( नृलोक = संसार , भूलोक )

उपयुक्त है परम कल्पना
परब्रह्म की ,
ऐसा भौतिक रूप नहीं
मिलता देखन में ,
नहीं आदि , नहीं अंत ,नहीं
रूप इसका कोई ,
वर्णित है यह महाग्रंथ श्रुति
के लेखन में ,
परम ज्ञान व दिव्य चक्षु के
शस्त्रो द्वारा ,
इस संसार वृक्ष का मूल
जो करता भेदन ,
परमेश्वर के परमधाम को
खोज निकाले ,
अहंता ममता काम को
करता छेदन ।
( श्रुति = वेद )

जिनके परम धाम में आकर ,
जिनके निर्मल पद को पाकर ,
पुनः जन्म नहीं लेता है नर,
पुनः नहीं लौटा वह भू पर ,
आदि पुरुष वह परम सनातन ,
जिनकी महिमा परम पुरातन।

मोह ,आसक्ति ,मान ,काम
पर विजय किया जो ,
नित्य निरंतर अध्यात्म में
रत रहता जो ,
सुख-दुख द्वंदों से विमुक्त
है ज्ञानी जन वो ,
प्राप्त है करता अविनाशी
परम पद को ।

जिसे न पावक ,नहीं सूर्य शशि ,
आभा देने में सक्षम है ,
जिसे प्राप्त कर जन्म न ले नर
वहीं मेरा धाम परम है ।।

इस लोक में देख रहे हो
जो जन्मे हैं जीव सनातन ,
मेरे आत्म अंश से जीवित
माने इसको ग्रंथ पुरातन ,
छठी इंद्रिय मन के द्वारा
प्रकृति के पांच आकर्षण ,
रूप गंध स्पर्श शब्द रस
इत्यादि को करते कर्षण ।

एक क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में
वायु गंध ले जाती जैसे ,
देह त्याग पर जीव आत्मा
मन ढोकर ले जाता वैसे ,,
प्राप्त है करता जैसे तन ,
उस तन का यह पहला मन।

श्रोत्र ,चक्षु , त्वचा ,रसना व घ्राण से 
निर्मित कर मानव मन ,
जीव आत्मा मन के द्वारा
विषय स्वाद को करता सेवन।

आत्मा सूक्ष्म कहते हैं सब
तन छोड़ के यह जाता है जब ,
विषय भोगता रहता है तब
तन में स्थित रहता है जब ,
देख न पाये मूढ़ अज्ञानी ,
ज्ञान नेत्र से देखे ज्ञानी ।

अंतःकरण शुद्ध है जिनका
आत्म तत्त्व समझे वह ज्ञानी ,
अंत:करण अशुद्ध है जिनका
समझ ना पाता है अज्ञानी ।

जग प्रकाशित होता जिससे
देख रहा रवि तेज अनल ,
चंद्र तेज व अग्नि ज्योति
मान सभी को मेरा बल ।

अपनी शक्ति से बन धारा
धारण करता सब भूतों को ,
अमृत बनकर चारु चंद्रमा
करता पालन सब पादप को ।

जठराग्नि व प्राण अपान हो
जन-मन अंदर स्थित रहता  ,
भोज्य , चोष्य ,भक्ष्य व लेहा
चार भोजन का पाचक बनता ।
( अपान= निम्नगामी वायु , भोज्य = निगलना जैसे दूध आदि , चोष्य = चूसना जैसे ईख , भक्ष्य = चबाना जैसे रोटी आदि , लेहा = चाटना जैसे चटनी आदि । ये हैं भोजन के चार प्रकार )

ज्ञान , अपोहन स्मृति आदि
सबमें स्थित मुझको जान ,
वेद वेदांत का कर्त्ता ज्ञाता
वेद भी कहता मुझको मान ।
( अपोहन = शंका संदेह का निराकरण )

नाशवान अविनाशी दो ही
पाए जाते इस भूतल पर ,
सूक्ष्म आत्मा रहता अक्षर
सब कहते तन स्थूल है क्षर ।

इन दोनों से भी है उत्तम
परमात्मा है तू यह जान ,
सर्व व्याप्त है सभी लोक में
जग संचालक ईश्वर मान ।

नाशवान स्थूल से उत्तम ,
अक्षर आत्मा से सर्वोत्तम ,
सब लोक में , सब वेदों में ,
जाना जाता मैं पुरुषोत्तम ।

इस प्रकार तत्त्व से मुझको
पुरुषोत्तम माना जो ज्ञानी ,
सभी प्रकार से भजे वह मुझको ,
करे उन्नति ऐसा प्राणी ।

इस प्रकार मैं तुझे बताया
अति अनामय गुप्त शास्त्र यह,
बुद्धि से नर जिसे जानकर
धन्य धन्य हो जाता है वह ।
( अनामय = दोषरहित , सदगुण युक्त )

*************समाप्त******************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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मंगलवार, 24 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 14 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गुण त्रय यानी सत्त्व रज तम का ज्ञान का उपदेश देते हुए 

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 14
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण गुण त्रय यानी सत्त्व , रज और तमो गुण का ज्ञान अर्जुन को कराएं हैं।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
ज्ञानों में भी जो सर्वोत्तम
परम ज्ञान है पुनः सुनाते ,
जिसे समझकर मुक्ति पाकर
मुनि जन सिद्ध हो जाते ।

इस ज्ञान को जो अपनाए ,
पुनः जन्म लेकर नहीं आए ,
प्रलय काल में न अकुलाए ,
परम ब्रह्म पद को पा जाए ।

महत् ब्रह्म है मेरी योनि
उसमें गर्भ करूं स्थापन ,
सब भूतों का जन्म इसी से ,
और न दूजा जन्म किसी से।

इस ब्रह्मांड की सब योनियों से
जितना जीवन जन्म है पाता ,
प्रकृति उनकी है माता ,
मैं हीं सबका जनक कहाता ।

प्रकृति से जन्म हैं लेकर
तीनों गुण ए सत्व ,रज , तम ,
अक्षर आत्मा को शरीर से
बांध के रखते इनके ही क्रम।

निर्मल शुभ्र और प्रकाशक
सभी तरह विकार रहित है ,
सुख के संग व ज्ञान के संग में ,
बंधा सत्त्वगुण सदा नित्य है ।

रजोगुण है राग आकर्षण ,
तृष्णा से उत्पन्न है जान ,
कर्म संग बांधे शरीर यह
सबसे कर्म कराता जान ।

तमोगुण सम्मोहित करता
अज्ञान से जन्मा जान ,
आलस्य ,निद्रा व प्रमाद में
आत्मा को यह बांधे मान ।

सत्व गुण सुख में रत करता ,
रजोगुण है कर्म कराता ,
ज्ञान को ढक कर तमोगुण
प्रमाद इत्यादि में उलझाता ।

रजो तमो  को दाब
सत्त्वगुण वृद्धि करता ,
सत्त्व तमो को दाब
रजोगुण वृद्धि करता ,
सत्त्व रजो को दाब
तमोगुण आगे बढ़ता ,
इसी तरह से ए तीनों
है बढ़ता घटता ।

ज्योंहि ज्ञान विवेक चेतना
मन में आए,
विद्या में वृद्धि करके व
तन में छाए ,
समझो सत्त्व गुण बढ़कर
है वृद्धि पाया ,
अतः मन व इंद्रियों में
सद्गुण छाया ।

रजोगुण के बढ़ने पर मन मानव का
अशांत हो जाए ,
विषय वासना लोभ प्रवृत्ति स्वार्थ
इत्यादि मन को भाए ।

अप्रकाश व अप्रवृत्ति , मोह ,प्रमाद
जब मन को भाए ,
तमोगुण के बढ़ने से ही ए सब
लक्षण मन में आए ।

सत्त्व गुण के वृद्धि काल में
जब नर मृत्यु को है पाता ,
उत्तम कर्म करने वालों के
दिव्य लोक को प्राप्त हो जाता।

रजोगुण के वृद्धि काल में
जब नर मृत्यु को है पाए,
कर्म आसक्ति वाले नर में
पुनः जन्म लेकर है आए ,
तमोगुणो के वृद्धि काल में
मरा मनुष्य मूढ़ योनि पाता ,
पशु कीट आदि योनियों में
पुनः जन्म लेकर है आता।

श्रेष्ठ कर्म का कर्त्ता मानव
सात्त्विक निर्मल फल है पाता ,
राजस कर्म के कर्त्ता का है
दुख में सारा जीवन जाता ,
तामस कर्म का फल अज्ञान ,
इसे कहा है सभी महान ।

रजोगुण से लोभ है आता ,
सत्त्व गुण देता है ज्ञान ,
तमोगुण प्रमाद मोह द्वेष
पैदा करता है अज्ञान ।

सत्त्व गुण संपन्न पुरुष है
स्वर्ग लोक को सीधे जाता ,
राजो गुण से युक्त पुरुष है
मृत्युलोक को लौट के आता,
तमोगुण संपन्न पुरुष सब
नरक लोक को सीधे जाता ,
ऊपर मध्य और नीचे में
ए तीनों हैं बंटकर  आता ।

इन गुणों से परे न देखो
और किसी को ,
इनके परे अगर देखो तो
देख मुझी को ,
प्राप्त मैं होता ऐसा जन को,
सदा विराजूं ऐसा मन को।

जन्म का हेतु सत रज तम को
करे उल्लंघन जो ब्रह्मज्ञानी ,
जन्म मृत्यु बुढापा दुख से
मुक्त हो जाए ऐसा प्राणी ।

अर्जुन उवाच-
इन गुणों से अलग पुरुष का
क्या कार्य है ?
क्या है लक्षण , क्या आचार
और क्या प्रकार है ?
कौन उपाय मनुज अपनाए ,
इन गुणों से पार पा जाए ?

भगवान उवाच-
मन प्रकाश मोह और प्रवृत्ति
के प्रवृत्त पर द्वेष न करता ,
न निवृत्त पर करे आकांक्षा
ऐसा जन अर्जुन है तरता ।

इन गुणों से न विचलित हो
नित्य उदासीन रहता जो जन ,
त्रिगुण आकर्षित है करता
ऐसा सोचे जिनका तन मन ।

जो है स्थित आत्म भाव में
सुख दुख पर न देता ध्यान ,
प्रिय-अप्रिय के भेद न माने
निंदा-स्तुति एक समान ,
मिट्टी पत्थर स्वर्ण एक सा
ए सब पर नहीं देता जान ।

जिन्हें मान नहीं हर्षित करता ,
नहीं दुखी करता अपमान ,
हम हैं कर्त्ता , हम हैं सब कुछ ,
जिन्हें नहीं ऐसा अभिमान ,
शत्रु- मित्र में एक समान ,
गुणातीत यह पुरुष महान ।

अव्यभिचारी भक्त योग से
भजता मुझको जो है तन ,
इन गुणों को पार है करके
परम ब्रह्म पाता वह जन ।
( अव्यभिचारी - स्वार्थ अभिमान रहित )

परम ब्रह्म व अमृत अव्यय
शाश्वत धर्म और सुख सारे ,
सबका आश्रय मुझसे समझो ,
ए सब अर्जुन नाम हमारे ।

********समाप्त**************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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सोमवार, 23 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 13 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को श्रेत्र और श्रेत्रज्ञ के विषय में ज्ञान देते हुए

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 13
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में बताया है।
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
अर्जुन से बोले भगवान
सुनो शरीर यह क्षेत्र कहाता ,
इसे तत्त्व से है जो जाने ,
वह क्षेत्रज्ञ है माना जाता ।

उपरोक्त दो था अनजान ,
इसे बताया तत्त्व से ज्ञान ,
सबका श्रेय तू मुझको जान ,
मेरा मत है इसको मान ।

इन दो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को
सुनो मैं कहता कर विस्तार ,
गुण-दोष , कारण व हेतु
व प्रभाव सुने संसार ।

बहु विधि इन तत्त्वों को
ऋषियों ने बतलाया है ,
गीत, छंद व ब्रह्मसूत्र पद
में भरकर दर्शाया है ।
( ब्रह्मसूत्र पद = वेद )

पांच महाभूत ,अहंकार व
बुद्धि , अव्यक्त प्रकृति आदि ,
पांच इंद्रियां विषय , एक मन ,
दस इंद्रियां सुन इत्यादि ।
( पंच महाभूत = क्षिति , जल ,पावक,
गगन , समीर )

इच्छा , द्वेष , सुख-दुख , धृति ,
देह चेतना क्षेत्र कहाए ,
विकारों संग उक्त क्षेत्र सब
मूल रूप में तुझे बताए ।

दंभहीन ,अभिमानहीन स्थिर मन
सेवा क्षमा शुद्धता ,
आत्मनिग्रह , अहिंसा व
सरल चित्त और सरल सरलता ,
गुरु की सेवा , तन की शुद्धि ,
आत्म संयम और मन की शुद्धि।

लौकिक परलौकिक आसक्ति ,
अहंकार अभाव ,
जन्म- मरण और रोग जरा में
धैर्य और सुभाव ।

पत्नी पुत्र गृह व धन संग
आसक्ति अभाव ,
मोह हीन प्रिय व अप्रिय संग 
समता का हो भाव ।

शुद्ध देश  एकांत प्रिय हो ,
बुरे जनों संग प्रेम न करता ,
परम पुरुष मुझ परमेश्वर में
परम भक्ति का भाव है धरता ।

अध्यात्म ज्ञान तत्त्व नित्य बखाने ,
तत्त्व ज्ञान का अर्थ है जाने ,
उपरोक्त सुन सब है ज्ञान ,
उल्टा  इनके है अज्ञान ।

सुनो पार्थ अब ज्ञेय बताता ,
जान जिसे जन ब्रह्म पा जाता ,
अनादि परम ब्रह्म नहीं सत् ,
न कभी रहता  असत्
( ज्ञेय = अनुकरणीय , जानने योग्य )

हाथ, पैर व नेत्र , सिर व
मुख , कान है चारो ओर ,
सभी जगह है व्याप्त जगत में
नहीं खाली है कोई छोर ।

निर्गुण है पर गुण सब भोगे ,
बिन इंद्रियों के इंद्रिय सुख ,
नहीं आसक्ति रखे जगत से
फिर भी हरता है सबका दुख ।

सब भूतों के बाहर भीतर
चर अचर में करता वास,
सूक्ष्म होने से अज्ञेय वह
दूर समीप अति करे निवास ।

अविभक्त होने पर भी वह 
सब भूतों में है विभक्त ,
पालनकर्त्ता  विष्णु सा वह
रूद्र रूप संहार सशक्त ।

ब्रह्मा रूप सबका पिता वह
जानने योग्य वह पिता परम ,
उसके सिवा नहीं कोई दूजा
सुनो पार्थ कहे सभी धरम।

ज्योति की ज्योति बोधगम्य वह
माया से परे कहा जाता ,
सब ह्रदय मे स्थित वह है,
विज्ञ तत्त्व से वश है लाता ,
जानने योग्य सरल उसे पाना ,
आदिकाल से पूजे जमाना ।

क्षेत्र ज्ञान  व ज्ञेय बताया
इस प्रकार संक्षिप्त रूप में ,
भक्त मेरे हैं इसे समझ कर
आ जाते मेरे स्वरूप में ।

पुरुष और प्रकृति दो ही
अनादि है ऐसा तू जान ,
त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ को
प्रकृति से जन्मा मान ,
राग द्वेश आदि विकार भी
प्रकृति ने किया उत्पन्न ,
सुनो पार्थ इसे ध्यान लगाकर
स्थिर करके अपना मन।
( त्रिगुणात्मक - सत , रज ,तम )

प्रकृति उत्पन्न है करती
कार्य और कारण ,
जिससे सुख-दुख जीवात्मा
भोग है करता ,
सुनो पार्थ प्रकृति कारक
विज्ञ बताते ,
जीवात्मा उसके अधीन
सब है समझाते ।

त्रिगुणात्मक सभी पदार्थ जिसे
प्रकृति ने उत्पन्न किया ,
प्रकृति में स्थित पुरुष जिसे
सदियों से है भोग किया ,
इन गुणों के संग के कारण
जीवात्मा बनता है चारण ,
अच्छी बुरी योनी में जाकर
पुनर्जन्म लेता है आकर ।

पुरुष प्रकृति में स्थित हो
प्रकृति गुण भोग है करता ,
प्रकृति संग के कारण
सत् असत् योनी है धरता ,
रूचता जिसको गुण है जैसा ,
योनी धरता है वह वैसा।

इस शरीर में एक और है
परम पुरुष विद्यमान ,
जो है ईश्वर परम स्वामी
परमात्मा समान ,
साक्षी और अनुभूति कर्त्ता ,
जिसकी विज्ञ हैं करते चर्चा ।

पुरुष और प्रकृति गुणों को
जो मनुष्य तत्त्व से जाने ,
करता हुआ सभी कार्यों को
अपना शुभ कर्तव्य को माने,
पुन: नहीं जन्म को पाता ,
वह सीधे मुक्त हो जाता।

परमात्मा के परम रूप को
कुछ ने देखा करके ध्यान ,
आत्म मनन व चिंतन से कुछ
व कुछ करके अर्जित ज्ञान ,
कर्म योग कर्तव्य भी करके
सहज प्राप्त उसको कुछ करते ।

मंदबुद्धि कुछ ऐसे  भू पर
उपरोक्त व्यक्तियों से सुन कर ,
इन तत्त्वों को मन में धरते ,
परमब्रह्म पा वे भी तरते।

स्थावर जंगम सब प्राणी
धारा पर जन्म है पाता ,
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ  संयोग से
जन्म है लेकर भू पर आता ।

सभी चराचर भूत नाश को
पाए एक दिन,
इनमें स्थित परमेश्वर सिर्फ
अजर अमर है ,
विज्ञ पुरुष जो करता है
ऐसा अवलोकन ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
करता लोकन ।

सभी जगह दिखे विद्यमान ,
सब जीवों में एक समान ,
स्वयं स्वयं को करे न नाश ,
परम में करता है निवास ।

सभी कर्म निष्पादित होता
प्रकृति से ,
आत्मा इसमें अकर्त्ता रहता
है हरदम ,
ज्ञान चक्षु है जिन पुरुषों का
ऐसा देखे ,
सुनो पार्थ वही यथार्थ में
ऐसा पेखे।

पृथक-पृथक भूतों के
सुनो पृथक भाव को ,
एक परम पिता में सुनो
जो जन माने ,
यह विचार है मन में जिनके
ज्योंहि आए ,
परम ब्रह्म को समझो त्योंहि
प्राप्त हो जाए।

अनादि निर्गुण अविनाशी
परमात्मा है स्थित तन में ,
ना कुछ करता , लिप्त न रहता ,
उत्प्रेरक सा युक्त है रहता।

सर्व व्याप्त सूक्ष्म आकाश
लिप्त नहीं रहता है  जैसे ,
सर्व स्थित निर्गुण आत्मा
तन गुणों से लिप्त न वैसे।

एक रवि संपूर्ण ब्रह्मांड को
प्रकाशित करता है जैसे ,
एक आत्मा पूर्ण क्षेत्र को
प्रकाशित करता है वैसे ।

ज्ञान चक्षु से क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ व
प्रकृति को तत्त्व से जाने ,
परम ब्रह्म को प्राप्त है करता
दुनिया उसको विज्ञ है माने ।

**********समाप्त*******************.

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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रविवार, 22 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 12 )

       अर्जुन को भक्ति की महिमा का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण


कविता 

गीता काव्यानुवाद

अध्याय 12

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्ति की श्रेष्ठता का उपदेश दिए हैं।


रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


अर्जुन उवाच-
भक्ति पूर्वक भजे आप सा
सगुण ब्रह्म ईश्वर साकार ,
और जो दूजा भजे ज्ञान रूप
अविनाशी ब्रह्म नि:आकार ,
इन सज्ञों में श्रेष्ठ कौन है ?
इन विज्ञों में जेष्ठ कौन है ?

भगवान उवाच-
मुझमें मन को करके स्थिर
भजे भक्त वह श्रेष्ठ कहाए ,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को
भजता वह नर जेष्ठ कहाए ।

निराकार अविनाशी अचल
सदा एकरस रहने वाला ,
सर्वव्यापी नित्य व अक्षर
मन बुद्धि से परे विलक्षण ।

भजता जो नर ऐसे ब्रह्म को ,
ऐसा नर भी पाए मुझको ,
ऐसा नर भी श्रेष्ठ कहाए ,
निर्गुण भजकर मुझको पाए ।

उपर्युक्त इस निर्गुण ब्रह्म को
समझ ना पाए सब देहधारी ,
कठिन श्रम व कठिन तप से
सिर्फ समझते विज्ञ आचारी ।

मेरे परायण रहने वाले सभी भक्तजन,
सब कर्मों को मुझ में अर्पित करके जपते ,
ध्यान योग अनन्य भाव से नित्य निरंतर,
सगुण रूप मुझ परमेश्वर को है वे भजते।

जिनका चित्त मुझ में रमता है ,
जिनके मन को मैं हूं भाता ,
मृत्युलोक इस भवसागर से
उन भक्तों को पार लगाता।

तन मन बुद्धि गर अर्पित कर
मेरे मन में वास करेगा,
इसमें कुछ संदेह नहीं है ,
मुझमें ही निवास करेगा।

अपना मन मुझमें स्थिर गर
तू स्थापित ना कर सकता ,
अभ्यास योग से इच्छा कर
उससे भी मैं प्राप्त हो सकता ।

उपर्युक्त अभ्यास योग में
भी तू गर समर्थ नहीं है ,
मेरे परम कर्म को कर तू
उसमें तू असमर्थ नहीं है ,
मेरे निमित्त कर्म जो करता ,
मुझे प्राप्त कर सिद्ध हो बढ़ता।

उपरोक्त कर्म करने में
भी अक्षम है पार्थ अगर तू ,
मन बुद्धि पर विजय प्राप्त कर
फल-चिंता हीन कर्म करो तू।

लक्ष्य हीन व दिशा हीन
अभ्यास कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है ,
बिना ध्यान के ज्ञान न फलता
अतः ज्ञान से ध्यान जेष्ठ है ,
कर्म-फल भय त्याग न जब तक ,
मन में आता ध्यान न तब तक ,
अत: ध्यान से श्रेष्ठ कहाए,
त्याग कर्म फल जेष्ठ काहाए ,
कर्म-फल का भय नहीं जिनमें
परम शांति रमती उनमें ।

द्वेष भाव से हीन दयालु
मित्र भाव रखता जो सबसे ,
निरहंकारी क्षमावान हो
माया ममता निष्फल जिसपे ,
सुख-दुख में सम जो कहलाए ,
ऐसा ही नर मुझको भाए ।

तुष्ट निरंतर जो योगी हो ,
दृढ़ निश्चय है जिनके मन में ,
मन बुद्धि है जिनका रमता
भक्ति भाव से मेरे तन में ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता।

जिनका कर्म नहीं किसी
जीव को कभी सताए,
किसी जीव के कर्मों से
जो भय नहीं खाए,
हर्ष अमर्ष भय व्याकुलता
जिन पर निष्फल ,
ऐसा स्थिर ऐसा त्यागी
ऐसा कर्मठ मुझको भाए।

रहता शुद्ध जो तन से मन से
पक्षपात नहीं करे किसी से ,
निस्वार्थी परित्यागी जन यह
मेरी प्रीति रहे इसी से ,
नहीं दुख जिनको दहलाए ,
कठिन समय में भी मुस्काए,
शुभ कर्म का जनक कहाए
ऐसा विज्ञ ही मुझको भाए ।

हर्ष द्वेष शोक कामना
न जिन पर प्रभाव दिखाए ,
शुभ अशुभ का असर न जिन पर ,
परित्यागी है जो कहलाए ,
भक्तियुक्त ह्रदय है जिनका
ऐसा ही नर मुझको भाए।

शत्रु- मित्र ,अपमान-मान में
रहे एक सा जो नर नारी ,
सुख- दुख ,गर्मी व सर्दी
न विचलित करते जिस प्राणी ,
संग आसक्ति में नहीं खोता ,
मित्र हमारा ए नर होता ।

सर्वतुष्ट व मौनी चिंतक
स्तुति निंदा में जो अविचल ,
स्थिर मति व भक्तिमान जो
गृह माया से है जो अविकल ,
ऐसा ही नर श्रेष्ठ कहाता ,
ऐसा ही जन मुझको भाता ।

उपरोक्त धर्ममय अमृत
उपदेश को पालन करता ,
श्रद्धापूर्वक परम भक्त बन
मुझ में जिसका मन है वसता,
ऐसा ही नर स्वजन हमारा ,
परम सखा यह मुझको प्यारा।

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शनिवार, 21 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 11 )



              अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण विश्वरूप ( विराटरूप ) दिखाते हुए।


कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 11
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप दर्शन यानी विराट रूप का परिचय कराया है।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

अर्जुन उवाच-
मुझ पर परम अनुग्रह करके
परम गुप्त अध्यात्म बताया ,
जिसे सुन मन-मोह कुबुद्धि
नष्ट हुआ व ज्ञान समाया।

सब भूतों व प्रलय काल का
सुना मैं तू जनक कहाए ,
अविनाशी महिमा से मंडित
तुम्हें सदा है जगत बताए  ।

जैसा तूने तू को बतलाया ,
देखना चाहूं वैसा तुझको ,
ज्ञान ऐश्वर्य तेज बल शक्ति
युक्त तुम्हारे ईश्वर रूप को ।

यदि है संभव देख पाना
तेरे उस अविनाशी रूप को ,
हे योगेश्वर ! देव दयामय !
मुझे दिखाओ उस स्वरूप को।

भगवान उवाच-
कोटि-कोटि व नाना विधि के ,
नाना वर्ण , आकृति वाला ,
अलौकिक रूपों को मेरे
देख पार्थ कहा जग रखवाला ।

आठ वसु व रूद्र ग्यारह ,
पुत्र अदिति देख तू  बारह ,
उनचास मरुतगण को भी देखो ,
अश्विनी दो ए अद्भुत पेखो ।

पूर्ण जगत को और चराचर
देख एकत्रित मेरे तन में ,
गुडाकेश ! सब कुछ देखो तू ,
जो इच्छा है तेरे मन में ।

अपने इन नेत्रों के द्वारा
देख नहीं सकता है मुझको ,
दिव्य रूप दर्शन के हेतु
दिव्य दृष्टि देता हूं तुझको ।

अविनाशी योगेश्वर हरि ने
ऐसा कह निज रूप बढ़ाया ,
परम अलौकिक वृहद डरावन
योगशक्ति दिव्य रूप दिखाया ।

अनेक मुख और नैन बहुत सा ,
देखने में यह अद्भुत लगता ,
दिव्य आभूषण , दिव्य अस्त्र से ,
दिव्य रूप यह अद्भुत जचता ।

दिव्य मालाएं, दिव्य वस्त्र से ,
दिव्य गंध से वासित तन है ,
अनंत दिशा में मुख सभी ओर ,
अद्भुत दिखता रूप परम है ।

कोटि-कोटि उदित सूर्य से
नहीं तेज होता है उतना ,
तेज पुंज चमक ज्वाला से
दिव्य रूप प्रकाशित जितना ।

पृथक- पृथक व तरह-तरह का
पूर्ण और संपूर्ण जगत को ,
केशव के तन में अर्जुन ने
देखा सत को और असत को ।

विश्वरूप इस परम ब्रह्म का
देख चकित व पुलकित होकर ,
परम भक्ति से हाथ जोड़कर
बोला अर्जुन तन- मन खोकर ।

अर्जुन उवाच -
ब्रह्मा शिव सभी ऋषियों को
सब भूतों के दल को पाता ,
दिव्य सर्प सब देव महादेव
तेरे तन में मुझे सुहाता ।

अनेक भुजा ,पेट , मुख , नेत्रों से
युक्त अनंत सा देखूं तुझको ,
नहीं आदि न अंत न मध्यम
विश्वरूप में दिखता मुझको।

मुकुट युक्त ,गदा ,चक्र मंडित
तेजपुंज से दीप्त अखंडित ,
सूरज की प्रदीप्त ज्योति हो ,
ऐसा अद्भुत दिखता मुझको ।

परम अक्षर तू वेत्ता वेदित
तुम में आस्था धाम पुरातन,
तुम्ही अनादि धर्म के रक्षक
तू अविनाशी पुरुष सनातन।
( वेत्ता = जानने वाला / ज्ञाता ,
   वेदित = ज्ञापित/ जाना हुआ )

आदि अंत व मध्य रहित है ,
अनंत शक्ति से मुख प्रज्वलित है ,
शशि सूर्य सा चक्षु हस्त है ,
दीप्त तेज से विश्व तप्त है ।

स्वर्ग और भू के बीच का
संपूर्ण अकाश व सभी दिशाएं ,
एक आपसे पूर्ण व्याप्त हो
भोग रहा संताप व्यथाएं ।

देवों का दल घुस रहा है ,
कुछ भयभीत खड़ा नतमस्तक ,
नाम गुण की गान करें कुछ ,
स्वस्ति कहता ऋषि दल मस्तक।
(स्वस्ति = कल्याण हो )

सिद्ध वसु ,आदित्य , रूद्र गण ,
विश्वदेव , मरूत व पितर ,
राक्षस , यक्ष, गंधर्व ,अश्विनी ,
देख रहे सब विस्मित होकर।

बहुत मुख, हस्त, नेत्र व जंघा ,
पैर ,उदर  विकराल दंत को ,
जग व्याकुल है , मैं भी आकुल ,
दर्शन कर इस महानंत को ।

नभ को छूता विविध वर्ण युक्त
विशाल चक्षु , दीप्त वृहद मुख ,
अवलोकन कर भय खाता हूं ,
धैर्य न शांति को पाता हूं।

विकराल दंत ,प्रज्वलित अग्नि मुख
प्रलय काल की वेला जैसे ,
दिग्भ्रमित कर श्रीहीन कर दे ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पे ।

धृतराष्ट्र के पुत्र सभी सब
घुस रहे राजाओं संग में ,
भीष्म , द्रोण व कर्ण इत्यादि 
दिख रहे हैं तेरे अंग में ।

मेरे पक्ष के वीर सभी सब
आप के मुख में दौड़ दौड़ कर ,
चूर्ण बने विशाल दंत से
पीस रहे हैं कौर बनकर ।

प्रबल जलधारा से सरिता
सागर में जा मिलती जैसे ,
आपके प्रज्वलित वृहद मुख में
वीर जगत के घुस रहे वैसे।

मोहित हो प्रज्वलित अग्नि से
नाश पतंगा पाते जैसे ,
आप के मुख में नाश के हेतु
पूर्ण जगत है दिखता वैसे ।

प्रज्वलित मुख व लपलप जीभ से
बना ग्रास संपूर्ण लोक है  ,
उग्र प्रकाश तेज से तपता
पूर्ण जगत में शोच शोक है।

देव श्रेष्ठ है नमन हमारा ,
कौन आप इस उग्र रूप में ?
नहीं प्रवृति ज्ञात तुम्हारी
मुझे बताएं बृहद रूप में ।

भगवान उवाच-
इन लोगों के नाश के हेतु
बढ़ा प्रवृत्त मैं महाकाल रब ,
युद्ध करो या नहीं करो तुम ,
नहीं बचेंगे ए  योद्धा सब ।

पहले ही मैं मार चुका हूं ,
देख रहा शूरवीर यहां पर ,
धन यश और राज्य को भोगों ,
निमित्त मात्र बन इन्हें जीतकर।

द्रोण  भीष्म , जयद्रथ, कर्ण सा
और बहुत शूरवीर संहारा ,
तू भी मार , न भय कर अर्जुन ,
जीतेगा सुपात्र न हारा।

वचन कृष्ण का ऐसा सुनकर
हाथ जोड़ अर्जुन मुख खोला ,
कुछ भयभीत हो नमस्कार कर
गदगद वाणी से वह बोला ।

अर्जुन उवाच-
स्थानों में ऋषिकेश तू ,
जग हर्षित है  पौरूष तेरा ,
राक्षस भाग रहे भय आकुल ,
साधु डाल रहे हैं फेरा ।

ब्रह्मा के भी आदिकर्त्ता
नमन तुझे है हे सर्वोत्तम !
अनंत देवेश ,हे जगन्निवास!
असत सत अक्षर तू उत्तम ।

आदिदेव तू पुरुष पौराणिक
परम निधि है आस्था तुझ में ,
परमधाम यह मान्य विश्वरूप
पूजनीय है दिव्य स्वरूप में।

हवा अनल यम वरुण चंद्र तू ,
ब्रह्मा ब्रह्मा के पिता भी ,
कोटि-कोटि है नमन हमारा ,
पुनः नमन स्वीकार करो भी ।

सर्व रूप में व्याप्त जगत में ,
बल विक्रम की अतुल धारा ,
अग्रभाग व पृष्ठ भाग से
सभी ओर से नमन हमारा ।

तेरी महिमा से अपरिचित
प्रेम युक्त या भ्रांत युक्त चित्त,
सखा मान मैं यह कहता हूं ,
हे यादव कृष्ण ! परम सखा तू।

मेरे शय्या , आसन ,भोजन
व बिहार के लिए प्रभु तू ,
कष्ट और अपमान सहा है ,
हे अचिंत्य !  सब क्षमा करो तू ।

जगत पिता तू , गुरु ना तुम सा
पूज्य चराचर में नहीं पाएं ,
और न कोई तुम सा दूजा
किसी लोक में मुझे सुहाए।

पिता-पुत्र को , सखा सखा को ,
प्रिय प्रियतमा क्षमा करें ज्यों ,
स्तुति नमन निवेदन करता ,
कृपा करके क्षमा करें त्यों।

अपूर्व अद्भुत इस दर्शन से
मन हर्षित है , भय भी खाए ,
अतः देव प्रसन्न हो मुझ पर
रूप चतुर्भुज फिर अपनाएं ।

मुकुट गदा चक्र युक्त स्वरूप में
देखना चाहूं फिर से तुझको ,
अतः हे माधव! रूप चतुर्भुज
में दर्शन दें फिर से मुझको।

भगवान उवाच-
परम तेज सा विश्वरूप यह
आत्म योग से तुझे दिखाया ,
तेरे सिवा और नहीं दूजा
देखा इसको स्वयं बताया ।

नहीं यज्ञ अध्ययन वेदों से ,
नहीं दान , नहीं उग्र तपों से ,
नहीं क्रिया से इस नृलोक में ,
देखा यह रूप है त्रिलोक में।

देख इस विकराल रूप को
नहीं विमूढ़ हो ,ना हो आकुल ,
रूप चतुर्भुज देख पुन: तू ,
अभय बनो , न बन तू व्याकुल।

ऐसा कह कर रूप चतुर्भुज
पुनः दिखाया वासुदेव ने ,
सौम्य मूर्ति बन धैर्य दिलाया  ,
अर्जुन को श्रीकृष्ण देव ने ।

अर्जुन उवाच-
सौम्य शांत इस मनुज रूप को
देख के स्थिर चित्त को पाया ,
स्वभाविक स्थिति को पाकर
मेरे मन में मोद समाया।

भगवान उवाच-
रूप चतुर्भुज जो तू देखा
बड़ा ही दुर्लभ दर्शन इसका ,
करें आकांक्षा देव सदा से
पाने को है दर्शन जिसका ।

नहीं वेद यज्ञ दान और तप से
मुझको देखा कोई वैसा ,
सब्यसाची हे भक्त धनंजय!
मुझको देखा है तू जैसा।

अनन्य भक्ति के द्वारा मैं
दर्शन को प्रत्यक्ष रूप में ,
प्राप्त तत्त्व से जानने हेतु
भी संभव मैं अनेक रूप में ।

मेरी भक्ति मेरा परायण ,
मेरे लिए कर्म करता जो ,
वैर भाव आसक्ति हीन नर
मुझे प्राप्त हो जाता है वो।

*************समाप्त*********
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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शुक्रवार, 20 मई 2022

गीता काव्यानुवाद ( अध्याय 10 )

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी आत्म विभूतियों का परिचय कराते

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 10
इस अध्याय में अपनी आत्म विभूतियों का परिचय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताएं हैं।
( विभूति = ऐश्वर्य , वैभव , महत्ता इत्यादि )
रचनाकार- इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
हे पुरुषोत्तम ! महाबली तू ,
सुनो मेरे परम वचन को ,
जो सुखदायक व है लायक ,
कहता केवल भक्तजनों को ।

नहीं देवता ,नहीं महर्षि ,
जाने मेरे जन्म-मरण को ,
देव महर्षि का मैं आदि ,
पैदा करता मैं ही सबको ।

मेरा अजन्मा व अनादि
लोक महेश्वर तत्व जाने जो,
पाप मुक्त हो जाए वह नर ,
जब मृत्यु को पता है वो ।

बुद्धि ज्ञान सम्मोहन शम दम ,
सत्य क्षमा भी मुझको मान ,
सुख-दुख भय और निडरता ,
भाव अभाव भी मुझको जान ।

तप संतोष दान यश अपयश ,
अहिंसा समता ए नाना ,
सब जीवो में जन्मे मुझसे ,
कहता वेद पुराण जमाना।

चौदह मनु ,सनकादि पुरातन ,
सप्तर्षी जन्में मेरे संकल्प से ,
और सभी जन देख रहा तू ,
जन्मे हैं सब  इन ऋषियों से ।

मेरे इस विभूति योग के
तत्त्व सार को जाने जो जन,
परम विभूति को पाता है ,
अभय निडर होता उनका मन।

सबका मन प्रभाव है मुझसे ,
सब उत्पत्ति है मुझसे पाते ,
ऐसा मान जो भजते ज्ञानी ,
पुनः लौट कर मुझमें आते ।

शुद्ध चित्त और शुद्ध प्राण से
मेरी भक्ति करता जो जन ,
तुष्ट और संतुष्ट होकर
मुझ में रमता है उसका मन।

मेरा चिंतन करता है जो
प्रीति पूर्वक सतत हमेशा ,
बुद्धि योग को प्राप्त करे वह ,
भोगे समृद्धि स्वर्ग के ऐसा ।

परम अनुग्रह करने हेतु
स्थित हो ऐसा जन-मन को ,
हरता तम अज्ञान कुबुद्धि ,
प्रज्वलित करता ज्ञान रतन को।

अर्जुन उवाच-
परम ब्रह्म व परमधाम तू ,
परम पवित्र व पुरुष सनातन ,
आदि देव तू और अजन्मा ,
सर्वव्यापी तू हे रिपुसूदन !

असित , व्यास ,नारद व देवल
आदि ऋषिगण कहते ऐसा ,
स्वयं आप भी कहते ऐसा  ,
फिर क्यों मानूं जैसा तैसा ?

जो कुछ कहते मेरे प्रति तू ,
उन सबको मैं सत्य मानता ,
तेरे लीलामय स्वरूप को
नहीं दनुज , नहीं देव जानता।

स्वयं स्वयं को स्वयं तू जाने ,
हे पुरुषोत्तम ! हे भूतेष !
भूतों का हे सृजन कर्त्ता !
  जगतपति तू , हे देवेश !

अपनी आत्म विभूतियों को
कहे कृपा कर केशव मुझसे ,
सब लोकों में व्याप्त आप हैं ,
और हैं स्थित जिनके बल से ।

किस प्रकार से नित्य निरंतर
चिंतन करके तुमको जानूं,
किन-किन भावों में चिंतन कर ,
हे भगवान ! मैं तुमको मानूं।

अपनी योग विभूतियों को
मुझे सुनाएं , हे जनार्दन !
अमृतमय इन वचनों को
सुन तृप्त नहीं होता है मन।

भगवान उवाच-
अपनी आत्मा विभूतियों को
कहता तुमसे जो अनंत है,
अतः सुन संक्षिप्त रूप में ,
वृहद रूप का नहीं अंत है।

सब भूतो के ह्रदय स्थित
आत्मा हूं तू ऐसा जान ,
आदि, मध्य और अंत सभी का
गुडाकेश तू मुझको मान ।

अदिति पुत्रों में मैं विष्णु ,
ज्योतियों में मैं रवि हूं जान ,
मरुत गणों में स्वयं मरीचि ,
नक्षत्रों में शशि तू मान ।

वेदों में मैं सामवेद हूं ,
इंद्रियों में मन रंजना ,
देवों में मैं इंद्रदेव हूं ,
सब जीवों में हूं चेतना ।

पर्वतों में मेरु पर्वत ,
रूद्रों में तू शंकर जान ,
यक्ष राक्षसों में कुबेर हूं ,
वसुओं में तू अग्नि मान ।

बृहस्पति हूं पुरोहितों में ,
समुद्रों में स्थिर सागर ,
सेनापतियों में स्कंध मैं ,
बोला अर्जुन से नटनागर ।

महर्षियों में भृगु मुनि मैं ,
शब्दों में ओंकार अहम् ,
यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं ,
हिमालय सा अडिग स्वयं।

देवर्षियों में नारद मुनि मैं ,
गंधर्वों में चित्ररथ गुनी ,
सब वृक्षों में पीपल तरु मैं ,
सिद्धों  में कपिल मुनि ।

हाथियों में ऐरावत हूं ,
मनुजों में तू राजा मान ,
अश्वों में हूं उच्चैश्रवा ,
सागर से निकला था जान ।

गायों में मैं कामधेनु हूं ,
शस्त्रो में मैं बज्र कठोर ,
सर्पो में मैं स्वयं वासुकी,
कामदेव मैं काम चकोर ।

नागों में मैं शेषनाग हूं,
जलचरों का वरुण देवता ,
अयर्मा हूं सब पितरो में ,
यमराज सा शासन कर्त्ता ।

दैत्यों में प्रहलाद आज हूं ,
ज्योतिषियों का समय साज हूं ,
पशुओं में मैं मृगराज हूं ,
पक्षियों में मैं गरूड़ ताज हूं ।

पवित्र करता वायु मैं हूं ,
शस्त्र धारियों में मैं राम,
मगर मछलियों में मैं ही हूं ,
नदियों में मैं गंगा धाम ।

अध्यात्म यानी ब्रह्मविद्या
विद्याओं में मुझको जान ,
आदि ,अंत और मध्य सृष्टि का
विवादों ने वाद तू मान ।

अक्षरों में अकार भी मैं हूं ,
कालों में मैं महाकाल ,
समासों में द्वंद समास मैं ,
सबका पालक जग का भाल ।।

सबका नाश ,मृत्यु व उद्भव
और भविष्य हूं सब क्रिया में ,
कृर्ति ,श्री , धृति , स्मृति ,
वाक् , क्षमा ,मेधा त्रिया में ।

श्रुतियों में मैं वृहद साम हूं ,
मासों में मैं  माघ फुहार ,
छंदों में मैं छंद गायत्री ,
ऋतुओं में वसंत बहार।

छलों में मैं द्यूत जूआ हूं ,
तेजवान का तेज अनल ,
सभी उद्योग व विजय भी मुझसे ,
सात्त्विक जन का सात्त्विक बल।

वृष्णिवंशो में वासुदेव मैं ,
मुनियों में मैं व्यास आचार्य ,
पांडवों में मैं स्वयं धनंजय ,
कवियों में मैं शुक्राचार्य ।

दुष्ट दमन का दंड सान हूं ,
जेताओं की नीति- खान हूं ,
गुप्त भावों का मौन ध्यान हूं ,
विज्ञों का मैं तत्त्व ज्ञान हूं।
( सान = धार तेज करने का मशीन )

सब भूतों का जन्म मुझी से ,
अचर भूत हो अथवा चर ,
ना कोई है मुझसे वंचित
देव यक्ष हो अथवा नर।

मेरी दिव्य विभूतियों का
नहीं अंत है ऐसा जान,
कहा तुझे संक्षिप्त रूप में
बृहद रूप अनंत है मान ।

ऐश्वर्य , कांति और शक्ति
सभी विभूतियां मुझसे जान,
मेरे तेज के अंश से संभव
गुडाकेश ! तू ऐसा मान।

अपनी योगशक्ति के कारण
पूर्ण जगत मैं करता धारण ,
बहुत न जानो ,जानो मुझको ,
बने समृद्धि तेरे चारण ।

*************समाप्त********************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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गुरुवार, 19 मई 2022

गीता काव्यानुवाद (अध्याय 9 )

अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण राजविद्या इत्यादि का उपदेश दे रहे हैं

कविता
गीता काव्यानुवाद
अध्याय 9
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को राजविद्या इत्यादि विषय पर उपदेश किए हैं।
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

भगवान उवाच-
सखा सुनो बोले भगवान ,
गोपनीय परम विज्ञान ,
जिसे जान दुख से संसार
कर जाता भवसागर पार।

विज्ञान युक्त है यह ज्ञान ,
विद्याओं का राजा जान ,
गोपनीयों का नृप भी जानो ,
अति उत्तम पवित्र है मानो ,
भौतिक सुख का पादप जानो ,
प्रत्यक्ष फलवाला है मानो ,
धर्म युक्त यह है अविनाशी ,
सुगम सरल यह ज्ञान की राशि ।

इसमें जो विश्वास न करते ,
ऐसा जन मुझे नहीं समझते ,
श्रृद्धाहीन  जन मुझे न पाए ,
जन्म-मरण चक्र में फस जाए।

अव्यक्त रूप मेरा
व्याप्त है पूर्ण जगत में ,
और व्याप्त मैं  अप्रकट में ,
सभी भूत हैं मुझ में स्थित ,
नहीं किसी में मैं हूं स्थित ,
योग शक्ति से जनक कहाता ,
पालनकर्त्ता में मैं आता ।

नभ से जन्मा चंचल वायु ,
नभ में स्थित रहता जैसे ,
मेरे से जन्में सब प्राणी ,
मुझमें स्थित रहते वैसे ।

कल्प अंत में सभी
लीन हो जाते  मुझमें ,
कल्प आदि में सभी
जन्म है मुझसे पाते ,
बंद वक्र पर सभी
बिंदु ज्यों फिर कर आते ,
उसी तरह से सभी भूत
हैं आते-जाते ।

पूर्ण प्रकृति मेरे अंदर
स्वभाव से रचता जानो ,
भूतों का समूह जो दिखता
उनका कर्त्ता भी तू मानो ,
मेरी इच्छा से विनाश ,
मेरी इच्छा के सब दास ।

किसी कर्म का लोभ आकर्षण
मुझे न बांधे ऐसा जानो ,
रहूं तटस्थ मैं इन कर्मों में ,
सब जाने और तुम भी जानो।

मेरी अध्यक्षता में प्रकृति
रचती जड़ को व जंगम को ,
इस प्रकार से वृहद जगत
पाता रहता है अपने ढंग को।
(जगंम = चेतन , सजीव )

नहीं मूढ़ है मुझको माने ,
परम भाव नहीं मेरा जाने ,
कलह मचाए द्वन्द लड़ाए ,
रोकूं तो उपहास उड़ाए।

व्यर्थ की आशा व्यर्थ कर्म व
व्यर्थ ज्ञान के अज्ञानी जन ,
आसुरी राक्षसी मोहनी मन को
धारण कर घूमे इनका तन।

दैवी प्रकृति में आश्रित जन
भजते मुझको आदि मान ,
अविनाशी भी माने मुझको
मोह मुक्त हो ऐसा जान ।

दृढ़ संकल्प के साथ नित्य ए
मेरी महिमा कीर्तन करते ,
भक्ति भाव से पूर्ण समर्पित
होकर के ए जीते मरते ।

द्वैत भाव ,एकांत भाव
या अन्य भाव से,
अथवा पूर्ण जगत में
तुमको दिखती पूजा ,
ज्ञानी लोग या अन्य लोग
जो यज्ञ हैं करते ,
सभी उपासना है मेरी
नहीं और है दूजा ।

मैं हूं यज्ञ ,मंत्र हूं मैं ही ,
मैं ही अग्नि हवन क्रिया ,
क्रतु ,स्वधा ,औषधि भी मैं ही ,
सर्वमंगला सर्वप्रिया ।

ऋग , यजुर व साम भी मैं ही,
ओम और ओंकार अहम् ,
माता-पिता और आश्रय दाता ,
पिता के पिता भी स्वयम् ।

मैं ही लक्ष्य ,पालक व साक्षी
शरण, आश्रय धाम परम ,
ईश्वर , मित्र , बीज व सृष्टि ,
प्रलय ,भूमि व हूं अव्ययम्।

तपता मैं हूं सूरज बनकर,
बरसूं वर्षा बनकर भू पर ,
अमृत-मृत्यु मुझे ही जानो,
सत् -असत् मैं ही हूं मानो ।

सोमप व वेदज्ञ गुणी जन
यज्ञों द्वारा पूजे जानो ,
पाप मुक्त हो इंद्रलोक में
स्वर्ग सुख है भोगे मानो ।

वृहद स्वर्ग का भोग को करके
क्षीण पुण्य पर पृथ्वी पाते ,
धर्म ,अर्थ और काम कर्म कर,
पुण्य पूर्ण कर फिर वहां जाते ,
तीन धर्म मनु ने बनाया ,
गत , आगत , कामकामा कहाया ।
( कामकामा = भौतिक भोग इत्यादि,
गत = मृत्यु , आगत = जन्म )

अनन्य भाव से मेरा चिंतन
व पूजा करता है जो जन ,
आवश्यकता उनकी और सुरक्षा
नित्य निरंतर करता यह तन।

श्रद्धा पूर्वक अन्य देवता
को जो पूजे ,
वास्तव में मेरी पूजा
वह ही है करता ,
विधि-विधान उस पूजा का
है नहीं जानता,
इस प्रकार से समय नष्ट
वह अपना करता।

मुझे सभी यज्ञों का भोक्ता
व स्वामी मानो ,
मेरे दिव्य स्वरुप को अर्जुन
तत्त्व से जानो ,
जो जाने नहीं नीचे गिरता ,
प्राप्त पुनर्जन्म नहीं करता ।

देवता पूजता जो है व्यक्ति ,
देवलोक को प्राप्त है करता ,
पितर पूजन करने वाला
पितृलोक में वास है करता,
भूत जो पूजे भूत में जाता ,
मेरा भक्त है मुझ में आता ,
पुनर्जन्म नहीं है वह पाता ,
भवसागर के पार हो जाता ।

पुष्प पत्र फल जल इत्यादि
भक्ति पूर्वक जो है लाता ,
शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेम से
अर्पण करता तब मैं खाता ।

अपना कर्म दान तप भोजन ,
हवन वगैरह सुन धनंजय!
मुझको अर्पित कर निश्चित हो,
युद्ध करो और प्राप्त करो जय ।

इस प्रकार तू कर्म के बंधन ,
शुभ अशुभ फल भय आदि से
मुक्त हो मेरे लोक आओगे ,
परम सुख फल को पाओगे ।

सभी भूतों में व्याप्त हूं मैं
एक भाव से ,
ना कोई प्रिय , नहीं अप्रिय है
  लगता मुझको ,
जो कोई भक्ति पूर्वक चाहत
करता मेरी ,
प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर के
मिलता उसको ।

पक्षपात ना करूं किसी से ,
नहीं किसी से करता बैर ,
समभाव मैं रखूं सभी से ,
भक्तों का मैं करता खैर ।
भक्ति पूर्वक सेवे मुझको ,
प्रकट रूप में मिलता  उनको ,
मेरी भक्ति जिन्हें न भाए ,
उनके पास नहीं हम जाएं ।

पाप कर्म ,जघन्य कर्म के
भी कर्त्ता गर ,
मेरी भक्ति में  रत रहता
नित्य निरंतर ,
अपने अडिग संकल्प के कारण
भजता मुझको बनके चारण ,
ऐसा को भी साधु जानो ,
मेरी भक्ति की महिमा मानो।

धर्मात्मा में वह है आता ,
परम शांति को पा जाता ,
मेरा भक्त न नष्ट है होता ,
परमानंद में है वह सोता ।

वैश्य , शुद्र , नीच या त्रिया ,
मेरे शरण धाम में आकर ,
परम गति को प्राप्त है करता ,
वसता परमधाम में जाकर।

राजर्षि ,भक्त व ब्राह्मण
धर्मात्मा की बात ही क्या है ?
अतः पार्थ इन पर चिंतन कर ,
मेरा नित्य भजन कीर्तन कर ।

अपना मन मुझमें अर्पण कर ,
भक्त बनो पूजा तर्पण कर ,
नम्र बनो और नमस्कार कर ,
मेरे कण कण से तू प्यार कर ,
मुझको निश्चित प्राप्त करेगा ,
नहीं किसी से कभी डरेगा ।

*************समाप्त*************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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