जहां बसती सुमति रमती रमा वहां,
जहां बसती कुमति बुझे शमा वहां।
जहां एकता का राज
घर हरदम बहाल,
जहां धूर्त चालाक
घर हरदम बेहाल।
जहां ढंग है बेढंग वहां हरदम अकाल ,
मूर्ख त्रिया जहां बसे नर कंकाल।
घर कलह भरा बसे भूत बैताल,
जहां त्रिया कलंक वहां हरदम सवाल।
जहां पूत है कुपूत
वहां हरदम मलाल,
इनकी काया की कालिख
बुझाए मसाल।
जहां कुटिल अनुज वहां उपजे भुजंग,
ऐसे भ्राता मचाते हैं हुल्लड़ हुड़दंग।
जहां पिता कुटिल घर ढूंढे पताल,
जिनकी माता कुटिल उनका जीवन जंजाल।
जिनकी भार्या फ़ूहड़
उनका जीवन हराम ,
जिनके कुटुंब कराल
नहीं वहां आराम।
जिनकी भार्या सुघड़ उनका ज्योति का घर,
जिनका बेटा कुशल मोद मारे लहर।
भारती जैसी मां उनका जीवन अमर,
जमदग्नि पिता पुत्र ढाए कहर।
जिनके भाई भरत
उन्हें चिंता नहीं,
जहां भाई विभीषण हैं
चिंता वहीं।
लक्ष्मण सा सखा वो रहते सबल,
हनुमत सा सुसंग वहां दिग्गज का बल।
जहां शिशु सुसंग वहां बाजे मृदंग,
जहां बूढ़ा जरज वहां दुखद प्रसंग।
जहां तरुणी तरंग
वहां ठुमरी के रंग,
जहां तरुण उमंग
वहां तरुणी प्रसंग।
जहां धन का अभाव वहां मिटता सुभाव,
जहां मिटता सुभाव वहां बढ़ता कुभाव।
जहां बढ़ता कुभाव मिटता आदमी,
जहां मिटता मनुज डूबता आदमी।
यह है किस्सा समाजिक
सुनो आदमी,
खुद अपने को परखो
गुनो आदमी।
इस भू पर ही स्वर्ग व पताल आदमी,
तजो काला कलह का सवाल आदमी।
वश अपने कर्म पर सिर्फ आदमी,
फल इसका न वश में सुनो आदमी।
काम करते अगर हो
सही आदमी,
फल मिलता है इसका
नहीं आदमी।
क्रम गड़बड़ कर्म का कहीं आदमी,
इसे करता सही जो वही आदमी।
फल फिर भी न मिले सही आदमी,
कर्म लाखों करोड़ों यहीं आदमी।
छोड़ पहले से हो जा
बिलग आदमी,
छोड़ पहले से होओ
अलग आदमी।
कर्म शक्ति मुताबिक चुनो आदमी,
फल पाओगे निश्चित सुनो आदमी।
यह जीवन का चरम रहस्य आदमी,
याद रखना हमेशा विवश आदमी।
सत्य सचमुच समझना
गहन आदमी,
कर्म ही सत्य सबका
कथन आदमी।
कर्म छोड़ कर जो करता भजन आदमी,
कृष्ण कहते हैं नर में अधम आदमी।
कर्म भू पर अनेकों सुनो आदमी,
अपने मन के मुताबिक चुनो आदमी।
कर्म हीनता बनाती
गलत आदमी,
कर्मठता ही लाती है
यश आदमी।
क्लांत मन न समझता असल आदमी,
क्लांत मन से है निर्णय गलत आदमी।
छेड़ मन के तरंग बन सुसंग आदमी,
छेड़ मन के भुजंग मत कुसंग आदमी।
मन की तृप्ति पर गाए
ग़ज़ल आदमी,
मन के खातिर बनाए
महल आदमी।
मन से पैदा है होता कलह आदमी,
मन सुलगा तो लाए प्रलय आदमी।
मन हुलसा तो होती सुलह आदमी,
मन के कारण से आंखें सजल आदमी।
मन कारण ही बनता
असल आदमी,
मन कारण ही करता
नकल आदमी।
मन नाचे तो लाए लहर आदमी,
मन में छाए जहर तो कहर आदमी।
ताल लय सुर है मन का उमंग आदमी,
मनोरंजन उदासी से जंग आदमी।
काव्य मन में है भरता
तरंग आदमी,
काव्य मन का जोशीला है
भंग आदमी।
मन तन का अदृश्य एक अंग आदमी,
यह गिरगिट सा बदले रंग आदमी।
मन पर रखता नियंत्रण विरल आदमी,
मन में मैला लगाए गिरल आदमी।
रंग मन का है कैसा
पूछो आदमी ?
रूप मन का है कैसा
सुनो आदमी ?
मन का कैसा बदन है सुनो आदमी ?
मन बसता कहां है सुनो आदमी ?
जैसे नभवाणी ग्राहक हैं यंत्र आदमी,
वैसे मस्तक के तंत्रों में मन आदमी।
प्रकृति तरंगों से
मन आदमी,
ज्ञानेन्द्रिया बनाती है
मन आदमी।
आंख कान नाक मुंह व चर्म आदमी,
प्रतिपल ए पकड़ते तरंग आदमी।
( नभवाणी ग्राहक यंत्र = रेडियो/Radio )
इसको मस्तक बनाता है मन आदमी,
जैसा होता तरंग वैसा मन आदमी।
मन उपजाता है
कर्म आदमी,
और कर्म फिर बनाता है
मन आदमी।
ज्ञान मन और कर्म का पुल आदमी,
इस पुल से सुधरता है भूल आदमी।
मन कर्म को जोड़ता यह पुल आदमी,
इस पुल से है जीवन का मूल आदमी।
जिनमें नहीं यह
पुल आदमी,
मन उनका बना है
शूल आदमी।
यह शूल छेदता उनका मूल आदमी,
मूल खोने पर मिलती धूल आदमी।
जीवन का मूल यही पुल आदमी,
सभी भूल को सुधारे ए पुल आदमी।
विद्या इस पुल का है
जड़ आदमी,
बुद्धि से बनता है
धड़ आदमी।
पुस्तक इस जड़ का है मूल आदमी,
चिंतन इस पुस्तक का मूल आदमी।
मन पानी के जैसा तरल आदमी,
ज्ञान हरता है इसका गरल आदमी।
कर्म इसको बनाता
सरल आदमी,
शठता इसमें भरती
गरल आदमी।
शुभ्र इसको बनाती बुद्धि आदमी,
धार इस पर चढ़ाती शुद्धि आदमी।
विद्या से आता संयम आदमी,
विचलना ही इसका धर्म आदमी।
मन के विचलन से होता
पतन आदमी,
इस पर रखे नियंत्रण
रतन आदमी।
राह खुद ही बनाए समय आदमी,
राह खुद ही सिखाए समय आदमी।
राह खुद ही मिटाए समय आदमी,
राह खुद ही भूलाए समय आदमी।
सोता जगत पर समय
नहीं सोता,
समय के कारण से
सब कुछ होता।
पहचाना समय वह सफल आदमी,
जो भटक गए वो विफल आदमी।
************ समाप्त ********************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन 845453
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