ब्लॉग आर्काइव

गुरुवार, 21 जुलाई 2022

पैसा ( भाग 4 )

पैसा अगर खरा है, सबकुछ संवारा है,
पैसा गर खोटा है सबकुछ छोटा है।


कविता
पैसा ( भाग 4 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

( एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने पैसा पर कहा था -
टका धर्म: टका कर्म: टका हि परमं पदम्,
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते।

कविवर गिरधर अपनी कुंडलियां कविता में लिखते हैं -
साईं इस संसार में मतलब का व्यवहार,
जबतक पैसा हाथ में तबतक ताके यार,
तबतक ताके यार यार संगहि संग डोले,
पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले )

पैसा

जितनी सुंदरता है,जितनी सज्जनता है,
जितनी मानवता है ,जितनी दानवता है,
इसका ही अनुचर हैं , इसका ही सहचर है ,
इसकी ही चेटी है ,इसकी ही बेटी है ।

पैसा चमेली है, पैसा हथेली है,
पैसा पहेली है, पैसा सहेली है,
मन का मनोरथ तू ,सबसे सहोदर तू ,
माया मनोहर तू , धनी धरोहर तू ।

देव देवालय तू , विद्या विद्यालय तू ,
हिम हिमालय तू ,मेघ मेघालय तू ,
तू है इकाई में, तू है दहाई में ,
तू ही सैकड़ा में , तू है सवाई में ।

तू ही खटाई में , तू ही मिठाई में ,
तू ही दवाई में , तू ही विदाई में ,
खपड़ा खपरैल तू , जिन्न और चुड़ैल तू ,
गाय और बैल तू ,हाथों का मैल तू ।

तू ही वियोगी है , साधु है योगी है ,
नफरत वह घृणा भी , फिर भी उपयोगी है ,
तू ही बिरंचि है , तू ही प्रपंची है ,
तू ही प्रदीप्ति है , तुमसे ही तृप्ति है ।

पैसा है खेल में , पैसा है मेल में ,
मानव परिश्रम में , पैसा है तेल में ,
राग और रागिनी तू , जोग और जोगनी तू ,
काली कालिंदी तू , इंदु और बिंदु  तू ।

मुस्लिम और हिंदू तू , सागर और सिंधु तू ,
भ्राता और बंधु तू , स्वयं स्वयंभू तू ,
रस अलंकार तू , कला कलाकार तू ,
स्वर्ण स्वर्णकार तू , अहं अहंकार तू ।

गीत गीतकार तू , हाथ हथियार तू ,
भूख व आहार तू , विरह बिहार तू ,
श्री सिंगार तू , देश सरकार तू ,
शिल्प शिल्पकार तू , भाग्य व लिलार तू ।

लोहा लोहार तू , युद्ध ललकार तू ,
कलम तलवार तू , असर असरदार तू ,
फल फलाहार तू , प्रहरी प्रहार तू ,
द्वार प्रतिहार तू , प्रीत प्रतिकार तू।

झूठा आडंबर तू , नंगा दिगांबर तू ,
पीला पीतांबर तू , श्वेत  श्वेतांबर तू ,


ठकुर सुहाती तू ,
नाता व नाती तू ,
घोड़ा व हाथी तू ,
असमय में साथी तू,
तेरा अकाल जहां
ठनठन गोपाल वहां,
तेरा कमाल जहां
बाजे करताल वहां।.

लोक परलोक तू , खुशी और शोक तू,
खुदरा और थोक तू, कोष और कोप तू ,
चना चबेना तू , दूध व छेना तू ,
बेंत और बेना तू , लेना और देना तू ।

कुष्ठ का निदान तू , क्षत्रिय अभियान तू ,
अत्रि का ध्यान तू, लक्ष्मण स्वाभिमान तू,
पेडा और लड्डू तू , साग और कद्दू तू,
बेल और बूटा तू, सत्तू और भुट्टा तू।

अंडज और इंगला तू, पिंडज और पिंगला तू ,
शून्य निराकार तू , सदा सकार तू ,
तेरी सुंदरता है फूलों के बागों में,
खुशबू तुम्हारी है गुलशन के ख्वाबों में।

काला कलूटा को
सुंदर बनाता तू,
लंगड़ा व लूल्ला को
हिम्मत दिलाता तू ,
कोढ़ी की काया व
अंधा की आंखें तू ,
गूंगा की बोली व
बहरा की बातें तू।

तेरा जन्म ने है लाई सभ्यता को,
तेरी जवानी खिलाई मनुजता को ,
तेरा दुरात्मा तहलका मचाया है,
तेरी ही मदिरा से जन पगलाया है।

दुनिया में करतब तुम्हारे ही कारण है,
विधि विधान सब तेरे ही चारण है ,
लिखे कहानी कौन तेरे गुणगान की ,
नस नस में तू ही है जग व जहान की।

पैसा से खून कर,
पैसा दे शून्य कर,
पैसा नहीं जेल है,
पैसा है बेल है,
पैसा के कारण से
जीवन में रस है,
पैसा के कारण ही
जीवन सरस है।

*********क्रमशः***********

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
Mobile  6201400759

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बुधवार, 20 जुलाई 2022

पैसा ( भाग 3 )

पैसा अगर खरा है, सबकुछ संवारा है,
पैसा गर खोटा है, सबकुछ छोटा है।

कविता
पैसा ( भाग 3 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

( एक बार स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने पैसा पर कहा था -
टका धर्म: टका कर्म: टका हि परमं पदम्,
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते।

कविवर गिरधर अपनी कुंडलियां कविता में लिखते हैं -
साईं इस संसार में मतलब का व्यवहार,
जबतक पैसा गांठ में तबतक ताके यार,
तबतक ताके यार यार संगहि संग डोले,
पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले। )

पैसा

पैसा भुजंग है, पैसा ही जंग है,
पैसा है संग है, नहीं है तंग है,
पैसा से रंग है , नहीं तो बेरंग है,
पैसा खुदाई है, पैसा जुदाई है।

पैसा बधाई है, पैसा हरजाई है,
पैसा जलाता है, पैसा बुलाता है,
पैसा भगाता है, पैसा खटाता है,
पैसा उठाता है, पैसा बिठाता है।

पैसा जंजाल है, नहीं है कंगाल है,
पैसा कठिनता है, पैसा से भिन्नता है,
नहीं है दीनता है, प्यार और खिन्नता है,
पैसा पुरातन से , पैसा सनातन से।

पैसा है बातों से, शादी कर खातून से,
पैसा हिसाब से, पैसा किताब से,
पैसा है ब्याज से, पैसा अनाज से,
पैसा संगीत से , पैसा है गीत से।

पैसा जुआरी का , पैसा मदारी का ,
पैसा बिहारी का , होता जोगाड़ी का ,
पैसा बरात है, नहीं जन्मजात है ,
पैसा मुसमात है , रहने पर तात है।

पैसा से नूर है, पैसा से हूर है,
इससे जो दूर है, लंपट लंगूर है,
पैसा व्यापार से, पैसा व्यवहार से,
पैसा सरकार से, पैसा बेगार से।

पैसा जुटाओ तुम, नंबर मिलाओ तुम,
थाक लगाओ तुम, बात न बनाओ तुम,
वह जो कंगाल है, श्वेत जिसका बाल है,
चिपका सा गाल है , बुरा सा हाल है।

पैसा चमकाएगा, ज्योति ले आएगा,
मोटा बनाएगा, दुर्दिन हटाएगा,
पैसा यदि पास नहीं, जीवन की आस नहीं,
पैसा दौड़ाएगा तन में गर सांस नहीं।

शिशु का पालक है , पैसा से बालक है,
नदी का नीर है, द्रौपदी का चीर है,
गड़बड़ घोटाला क्यों, पैसा का हल्ला क्यों ?
ढोलक पर आल्हा क्यों, रास का रसाला क्यों ?

विश्व संचालक क्या, जगत को पालक क्या ?
मानव आकर्षण क्या, जन-मन के दर्पण क्या?
श्रम के सार क्या, तन के आहार क्या ?
पत्नी के प्यार क्या, माता दुलार क्या ?

निर्धन की आशा क्या, पर्व चौमासा क्या ?
चमचा जुहार क्या, सावन फुहार क्या ?
हवा में उड़े कौन, शिखर को छुए कौन ?
मंद मुस्काए कौन, मीठ गीत गाए कौन ?

मेनका की आभा में, साड़ी के धागा में,
उर्वशी रम्भा में , चोटी में कंघा में,
सीपी के मोती में, साधु लंगोटी में,
खेलों की गोटी में, हीरा की ज्योति में।

सोना और चांदी में, सूती और खादी में,
साहब शहजादी में , अन्न और आबादी में,
रत्न और लाल में, साहू के माल में,
रंग और गुलाल में, टका टकसाल में।

राजा और रानी में, धनी मनी प्राणी में,
रूप की जवानी में, धातु कहानी में,
नाच और बाजा में, मीठा और खाजा में,
गहनों की धागा में, बड़ी बड़ी सभा में।

पैसा ही नाज है, पैसा ही बाज है,
पैसा का राज्य है, पैसा सरताज है,
पैसा की ताकत से मौसम बदलता है,
पैसा की ताकत से ह्रदय मचलता है।

पैसा की ताकत से हांडी बदलती है,
पैसा की ताकत से बुद्धि भी चलती है,
पैसा की ताकत से साधु फिसलता है,
पैसा की ताकत से कपटी उछलता है।

पैसा की गर्मी से निर्बल कड़कता है,
पैसा के कारण कलेजा धड़कता है,
पैसा के आने से सोना चमकता है,
पैसा के जाने से सबकुछ अटकता है।

बुद्धि की बातें भी लक्ष्मी सजाती है,
पैसा की कमी कवित्व भी सुखाती है,
पैसा की मंदी से वेग रुक जाता है ,
पैसा का आश्रय आवेग को बढ़ाता है।

पैसा का करतब जयंती सजाता है,
पैसा का महत महंती बनाता है ,
पैसा का भेदन अचूक कहा जाता है,
पैसा का छेदन संहार मचा जाता है।

पैसा का जोश यदि नाक काट डाला है,
पैसा का नोक उसे पुनः बिठा डाला है,
पैसा के मोद से खोभार महक जाता है,
पैसा के योग से आभार चहक जाता है।

पैसा से जितना तू , घृणा कर उतना तू ,
यही एक शक्ति है, जिसपर सबकी भक्ति है,
इसके आकर्षण से , इसके ही घर्षण से,
जगत मचलता है, धावक बन चलता है।

************* क्रमशः ******************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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बुधवार, 13 जुलाई 2022

पैसा ( भाग 2 )

पैसा अगर खरा है, सबकुछ संवारा है,
पैसा गर खोटा है, सब कुछ छोटा है।

कविता
पैसा ( भाग 2 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

( पैसा पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने कहा था-
टका धर्म: टका कर्म: टका हि परमं पदम् ,
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते

कवि गिरधर अपनी कुंडलियां कविता में लिखते हैं-
साईं इस संसार में मतलब का व्यवहार,
जबतक पैसा हाथ में तबतक ताके यार,
तबतक ताके यार यार संगहि संग बोले,
पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले। )


पैसा 

पैसा अमोद है, पैसा प्रमोद है,
प्रमोद में मिठास है, मिठास से हास्य है,
हास्य में हुड़दंग है, हुड़दंग में हो हल्ला है ,
हल्ला में जोश है, बिना पैसा खामोश है।

पैसा से अन्न है, अन्न से जन है,
जन में मन है , मन में तरंग है,
तरंग में उमंग है, उमंग में विकास है,
ज्यादा उमंग हो तो इससे भी नाश है।

पैसा जवानी है , जवानी दीवानी है,
दीवानी में हानि है , फिर भी सुहानी है,
सुहानी नशीली है, नशीली लाल-पीली है,
लाल उकसाता है, पीला जिलाता है।

पैसा रंगीला है, पैसा छबीला है,
पैसा जोशीला है , नहीं है तो ढीला है,
पैसा दिखाओ मत , जी ललचाओ मत ,
डाकु आ जाएंगे, लूट ले जाएंगे।

पैसा के पैर नहीं ,
करता है सैर कहीं,
लोगों का चैन छीन,
करता बेचैन कहीं,
पैसा हमारा नहीं,
पैसा तुम्हारा नहीं,
कर्मठ जो जितना है,
पाया वह उतना है।

दिल को जलाओ मत , पलकें झुकाओ मत ,
हाथ उठाओ अब , पंजा लगाओ अब,
पैसा मिल जाएगा, स्वर्ग ले आएगा,
चेहरा सजाएगा, स्वाद चखाएगा।

पैसा व्यवस्था है , व्यवस्था बुद्धि से है ,
पैसा की रक्षा पैसा वृद्धि से है ,
पैसा देशाटन है, पैसा तीर्थाटन है,
देशाटन में ज्ञान है, सिर्फ पैसा निदान है।

पैसा से खेती है, खेती से अन्न है,
अन्न से धन है, अन्न से जन है,
जन में किसान है, जन में इंसान है,
जन में बेइमान है, जन में हैवान है।

सबका आधार यह , सबका बहार यह,
जन जन का प्यार यह , द्वेष तकरार यह,
आता है जाता है , जी ललचाता है,
आंख मिचौली का खेल दिखलाता है।

पैसा सुनहला है, पैसा दुपहला है,
पैसा चौकोना है, पैसा छः कोना है,
पैसा है कागज का , पैसा है धातु का ,
पैसा चमत्कारी है , पैसा सरकारी है।

पैसा लड़ाता है, पैसा नाचाता है,
पैसा गिराता है, पैसा उठाता है,
मन को उड़ाओ मत , खर्चा बढ़ाओ मत ,
फिजुल खर्च कर पैसा उड़ाओ मत।

पैसा कोलाहल है , पैसा हलाहल है,
पैसा घोटाला है , सफेद और काला है,
बड़े बड़े का ईमान डोला जाता है,
कभी कभी साधु को चोर बना जाता है।

पैसा पाठशाला है, पैसा चित्रशाला है,
पैसा जोशीला है, धनिकों का कीला है,
पैसा डील डौल है, पैसा सुडौल है,
पैसा है मौल है, पैसा है कौल है।

पैसा से तौल है , पैसा से धौल है,
पैसा सर्वभौम है, जहां नहीं मौन है,
पैसा मतवाला है, पैसा निराला है,
पैसा से नाक है, पैसा से गांठ है ।

पैसा पे कान दे , पैसा पे ध्यान दे,
पैसा पे लगाम दे , पैसा को मान दे,
पैसा से घात है, पैसा ही तात है।

पैसा से गति है, पैसा ही मति है,
पैसा ही नीति है, पैसा सुमति है,
पैसा बहार है, पैसा है प्यार है,
द्वेष का भंडार है , पैसा है यार है।

पैसा है गुलशन है, दुल्हा है दुल्हन है,
पैसा है दुश्मन है, नहीं है शून्य मन है,
पैसा ही सोच है, पैसा है कोच है,
जिनके ए पास नहीं वहां अफसोस है।

विकास का यह केन्द्र है, राजाओं में देवेन्द्र है,
पृथ्वी पर महेंद्र है, योद्धाओं में जितेंद्र है,
देवों में महेश, ज्योतिओं में दिनेश है,
सिद्धिदाता गणेश है , पैसा विशेष है।

पुस्तक में सुवेद है, भेदों में विभेद है,
इससे मतभेद है, पाते वे खेद हैं ,
चाहे पुराण हो , चाहें कुरान हो ,
पैसा नहीं है तो सबकुछ बेजान हो।

पैसा है वाहन है, पैसा है सावन है,
पैसा ही रावन है , पैसा मनभावन है,
हाथ में पैसा गर आनंदित छुट्टी है,
पैसा नहीं है तो छुट्टी से कुट्टी है।

पैसा है ताली है, पैसा है डाली है,
डाली की जाली से कार्य सफल होता है,
डाली नहीं है तो कार्य विफल होता है।
पैसा से कानन है, पैसा ही आनन है।

पैसा ही शिष्ट है , पैसा क्लिष्ट है,
पैसा नरोत्तम है, पैसा सर्वोत्तम है,
पैसा कालांतर है, पैसा समयांतर है,
लोभ और मोह है, अद्भुत आडंबर है।

********** क्रमशः ***************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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मंगलवार, 12 जुलाई 2022

चाणक्य नीति काव्यानुवाद ( अध्याय 1 )

 

चाणक्य नीति का रचनाकार महर्षि चाणक्य 



               चाणक्य नीति

                अध्याय - १

                  काव्यानुवाद

 रचनाकार -इन्जीनियर पशुपति नाथ प्रसाद


                         अध्याय - 1

करता नमन मैं विष्णु प्रभु को ,

सिर मैं झुकाता हूँ त्रिलोकी को ।

राजनीति बतलाता हूँ भू को ,

उद्धृत है सब शास्त्रों से जो ।


योग्य-अयोग्य शुभाशुभ कर्म में ,

शास्त्र ज्ञान से अंतर पाये ।

अर्थशास्त्र का ज्ञान हो जिनको ,

उत्तम नर में गिना जाये ।


लोक भलाई जिसमें है वह बात कहूँगा ,

समझ जिसे मूरख नर भी सर्वज्ञ कहाये ।

जिस कुपात्र के गर्दन पर गर सिर नहीं है ,

ज्ञान कहाँ से उसके सिर में जमने पाये ।


मूरख को उपदेश न देते ,

दुष्टों को नहीं पालन पोषण ।

नहीं साथ रहते दुष्ट के ,

अपनाते ये पंडित सा जन ।


भार्या दुष्टा , शठ से यारी ,

नौकर नकचढा हो जिनका ।

बसता घर में सर्फ जहाँ पे ,

मरा हुआ जीवन है उनका ।


धन का संग्रह बहुत जरूरी ,

अति दुर्दिन में करता रक्षा ।

धन से बढकर त्रिया रक्षा ,

सर्वोत्तम है आत्म सुरक्षा ।


बड़े 2 के पास भी आपत्ति आ जाती है ,

लक्ष्मी तजती , संचित धन भी नष्ट हो जाये ।

अजब विरंची की माया यह सब कुछ करती ,

दुर्दिन हेतु अत: हमेशा धन को बचायें ।


जहाँ निरादर , न जीविका हो ,

न लाभ विद्या , न भाई -बंधु ।

वहाँ कदापि क्षण नहीं रहना ,

रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।


जहाँ न राजा , न वैद्य  सरिता ,

विप्र नहीं वेदपाठी जहाँ पे ।

धनी नहीं जन , जहाँ न ये सब ,

एक दिवस नहीं रहना वहाँ पे ।


न परलोक का भय , नहीं लज्जा ,

नहीं त्याग , सम्मान नहीं है ।

नहीं राजभय , नहीं शीतलता ,

बसने योग्य स्थान नहीं है ।


दुख में परखें भाई -बंधु ,

सेवक सेवा के आने पर ।

संकट में हो मित्र परीक्षा ,

पत्नि वैभव के जाने पर ।


बंघु वही जो साथ निभाये ,

दुख में आतुर जब होता मन ।

श्मशान , दुर्भिक्ष इत्यादि ,

संकट जब रचते शत्रु जन ।

संकट आये राजाकृत ,

बने सहायक वही मित्र ।


जो निश्चित को छोड़ जगत में ,

अनिश्चित की ओर दौड़ता ।

निश्चित बन जाता अनिश्चित ,

अनिश्चित कब का है निश्चित ।


कुरूपा गुणी कन्या संग ,

ब्याह अगर हो वह सर्वोत्तम ।

नीच अवगुणी सुरूपा संग ,

ब्याह कभी भी न है उत्तम ।


त्रिया , राजकुल के लोगों पर ,

नदी , शस्त्र जो रखता है जन ।

नख-सींग वाले जीवों पर ,

कभी न आस्था रखना हे जन !


विष से अमृत , नीच से विद्या  ,

अगर मिले यह भी है उत्तम ।

सोना भी अशुद्ध जगह का ,

ले लेना नीति सर्वोत्तम ।

दुष्ट कुल की त्रिया रत्न भी ,

अपनाने में पाप नहीं है ।

विद्यायुक्त कुशल नारी को ,

अपनाने में शाप नहीं है ।


भोजन दूना करती नारी है पुरुषों से ,

लज्जा चौगुनी , साहस छ: गुना होता ।

बाहर से उनकी आँखों में काम न दिखता ,

काम का वेग मगर उनमें अठगुना होता ।


नोट : - पूरा चाणक्य नीति काव्यानुवाद पढ़ने के लिए वाट्सएप 919351904104 पर संपर्क करें। या http://Www.nayigoonj.com पर क्लिक करें।


          ** समाप्त **


  

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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सोमवार, 11 जुलाई 2022

पैसा ( भाग 1 )

पैसा अगर खरा है, सब कुछ संवारा है,
पैसा गर खोटा है, सब कुछ छोटा है।


कविता
पैसा ( भाग 1 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

( पैसा पर स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने कहा था -
टका धर्म: टका कर्म; टका हि परमं पदम् ,
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते।

कवि गिरधर अपनी कुंडलियां कविता में लिखते हैं-
सांई इस संसार में मतलब का व्यवहार,
जबतक पैसा हाथ में तबतक ताके यार,
तबतक ताके यार यार संगहि संग डोले,
पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले।  )

पैसा अगर खरा है ,
सब कुछ संवारा है,
पैसा गर खोटा है,
सब कुछ छोटा है।

पैसा देशांतर है ,
पैसा विभवांतर है ,
पैसा समानांतर है ,
पैसा युगांतर है ।

पैसा से ज्योति है ,
पैसा है मोती है ,
पैसा में आशा है ,
नहीं तो निराशा है।

पैसा से रिश्ता है,
पैसा में पिश्ता है ,
पैसा है भाई है ,
पैसा ही माई है ।

पैसा ही पिता है ,
पत्नी भी सीता है ,
पैसा है बेटा है ,
नहीं तो नेता है ।

पैसा अटारी है ,
नहीं तो भिखारी है ,
पैसा जमाना है ,
इससे जनाना है ।

पैसा में गाना है ,
पैसा बजाना है ,
पैसा से गीत है ,
पैसा संगीत है ।

पैसा उजाला है,
पैसा में ज्वाला है ,
पैसा सुबाला है,
पैसा रखवाला है।

जितना सोचता हूं
उलझता ही चला जाता हूं,
लोगों की बातों में
क्यों उलझ जाता हूं ?

करें वही जो
दिल की फरमाइश हो,
दुनिया की चीख पर
चीख क्यों मचाता हूं।

चमचम के लालच में
बीत गए दिन सारे,
चोरों की आदत को
श्रेष्ठ माने जाता हूं।

गैरों बेगैरों ,
बेगैरों और गैरों में ,
अपने जीवन को
क्यों दाव पर चढ़ता हूं?

झूठा तो झूठा है,
उससे वफ़ा ही क्या ?
मृग मरीचिका में
आंसू बहाता हूं।

दूध की मक्खी को
फेकें अब नाली में,
पैरों को रखें
सफलता की थाली में।

छिन्न भिन्न कर दें
ज़माने की जाली को ,
पैसा से उसने
बजवाया है ताली को ।

पैसा है पावर और पैसा है ताकत,
युग युग से यही रिवाज चला आया है,
पैसा है अपना और पैसा बेगाना भी ,
पैसा है सबकुछ रह राज चला आया है।

पैसा है जीवन और पैसा है सत्ता भी,
पर पैसा से शबनम की रीत नहीं आयी है,
पैसा ले आए तराना ग़ज़ल में,
पर पैसा से जीवन में जीत नहीं आयी है।

शबनम की रिश्ता है मन के तरंगों से,
शबनम की रिश्ता है सूरज की किरणों से,
शबनम में लाली है, शबनम में चमचम है,
शबनम में शांति है , शबनम में कांति है।

शबनम को तोड़ो मत ,
पर पैसा भी छोड़ो मत ,
पहला से मन है,
दूसरा से तन है।

पैसा से धर्म है,
पैसा से कर्म है,
पैसा ही मर्म है,
पैसा ही शर्म है।

पैसा से ठेला है,
पैसा है केला है ,
पैसा है मेला है,
पैसा अकेला है।

पैसा है भक्ति है,
पैसा में शक्ति है,
पैसा से रेल है,
पैसा अमेल है।

पैसा है खाना है ,
पैसा खजाना है ,
पैसा अरमान है,
पैसा है दान है।

पैसा से जान है,
पैसा है मान है,
पैसा अभिमान है,
पैसा है शान है।

पैसा से गाड़ी है,
पैसा से साड़ी है ,
साड़ी है नारी है,
पैसा है प्यारी है।

पैसा सुगंधी है,
पैसा है मंडी है,
पैसा ही नन्दी है,
पैसा ही चंडी है।

पैसा से रूप है,
पैसा कुरूप है ,
पैसा से क्रांति है,
पैसा में भ्रांति है।

पैसा से शांति है, पैसा में कांति है,
पैसा में आभा है, पैसा ही प्रभा है,
पैसा है होली है, होली ठिठोली है,
पैसा में बोली है, पैसा से गोली है।

पैसा है स्वाद है , नहीं है खाद है,
पैसा आबाद है, नहीं है बर्बाद है,
पैसा से किताब है, किताब में ख्वाब है,
ख्वाब में कवि है , कवि में रवि है।

रवि है प्रकाश है, प्रकाश है आकाश है,
आकाश में वायु है , वायु से आयु है ,
पैसा से तन है , तन में मन है,
पैसा है मन है, मन से जीवन है।

पैसा नहीं रात है, पैसा है बात है,
पैसा है जात है, नहीं है लात है।
पैसा नहीं मात है, पैसा है साथ है,
पैसा है साख है, साख है क्या बात है।

पैसा से विज्ञान है, पैसा से ज्ञान है,
ज्ञानी महान् है , महान् का नाम है,
नाम ही अमरत्व है, अमरत्व का महत्व है,
पैसा है संभव ए , नहीं तो असंभव ए।

************** क्रमशः *******************
इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
E-mail  er.pashupati57@gmail.com
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शनिवार, 2 जुलाई 2022

आदमी ( भाग 4 )

अनुसंधानशाला से आदमी भाग 4 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद


कविता
आदमी ( भाग 4 )
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

जहां बसती सुमति रमती रमा वहां,
जहां बसती कुमति बुझे शमा वहां।
जहां एकता का राज
घर हरदम बहाल,
जहां धूर्त चालाक
घर हरदम बेहाल।
जहां ढंग है बेढंग वहां हरदम अकाल ,
मूर्ख त्रिया जहां बसे नर कंकाल।


घर कलह भरा बसे भूत बैताल,
जहां त्रिया कलंक वहां हरदम सवाल।
जहां पूत है कुपूत
वहां हरदम मलाल,
इनकी काया की कालिख
बुझाए मसाल।
जहां कुटिल अनुज वहां उपजे भुजंग,
ऐसे भ्राता मचाते हैं हुल्लड़ हुड़दंग।


जहां पिता कुटिल घर ढूंढे पताल,
जिनकी माता कुटिल उनका जीवन जंजाल।
जिनकी भार्या फ़ूहड़
उनका जीवन हराम ,
जिनके कुटुंब कराल
नहीं वहां आराम।
जिनकी भार्या सुघड़ उनका ज्योति का घर,
जिनका बेटा कुशल मोद मारे लहर।


भारती जैसी मां उनका जीवन अमर,
जमदग्नि पिता पुत्र ढाए कहर।
जिनके भाई भरत
उन्हें चिंता नहीं,
जहां भाई विभीषण हैं
चिंता वहीं।
लक्ष्मण सा सखा वो रहते सबल,
हनुमत सा सुसंग वहां दिग्गज का बल।


जहां शिशु सुसंग वहां बाजे मृदंग,
जहां बूढ़ा जरज वहां दुखद प्रसंग।
जहां तरुणी तरंग
वहां ठुमरी के रंग,
जहां तरुण उमंग
वहां तरुणी प्रसंग।
जहां धन का अभाव वहां मिटता सुभाव,
जहां मिटता सुभाव वहां बढ़ता कुभाव।


जहां बढ़ता कुभाव मिटता आदमी,
जहां मिटता मनुज डूबता आदमी।
यह है किस्सा समाजिक
सुनो आदमी,
खुद अपने को परखो
गुनो आदमी।
इस भू पर ही स्वर्ग व पताल आदमी,
तजो काला कलह का सवाल आदमी।


वश अपने कर्म पर सिर्फ आदमी,
फल इसका न वश में सुनो आदमी।
काम करते अगर हो
सही आदमी,
फल मिलता है इसका
नहीं आदमी।
क्रम गड़बड़ कर्म का कहीं आदमी,
इसे करता सही जो वही आदमी।


फल फिर भी न मिले सही आदमी,
कर्म लाखों करोड़ों यहीं आदमी।
छोड़ पहले से हो जा
बिलग आदमी,
छोड़ पहले से होओ
अलग आदमी।
कर्म शक्ति मुताबिक चुनो आदमी,
फल पाओगे निश्चित सुनो आदमी।


यह जीवन का चरम रहस्य आदमी,
याद रखना हमेशा विवश आदमी।
सत्य सचमुच समझना
गहन आदमी,
कर्म ही सत्य सबका
कथन आदमी।
कर्म छोड़ कर जो करता भजन आदमी,
कृष्ण कहते हैं नर में अधम आदमी।


कर्म भू पर अनेकों सुनो आदमी,
अपने मन के मुताबिक चुनो आदमी।
कर्म हीनता बनाती
गलत आदमी,
कर्मठता ही लाती है
यश आदमी।
क्लांत मन न समझता असल आदमी,
क्लांत मन से है निर्णय गलत आदमी।


छेड़ मन के तरंग बन सुसंग आदमी,
छेड़ मन के भुजंग मत कुसंग आदमी।
मन की तृप्ति पर गाए
ग़ज़ल आदमी,
मन के खातिर बनाए
महल आदमी।
मन से पैदा है होता कलह आदमी,
मन सुलगा तो लाए प्रलय आदमी।


मन हुलसा तो होती सुलह आदमी,
मन के कारण से आंखें सजल आदमी।
मन कारण ही बनता
असल आदमी,
मन कारण ही करता
नकल आदमी।
मन नाचे तो लाए लहर आदमी,
मन में छाए जहर तो कहर आदमी।


ताल लय सुर है मन का उमंग आदमी,
मनोरंजन उदासी से जंग आदमी।
काव्य मन में है भरता
तरंग आदमी,
काव्य मन का जोशीला है
भंग आदमी।
मन तन का अदृश्य एक अंग आदमी,
यह गिरगिट सा बदले रंग आदमी।


मन पर रखता नियंत्रण विरल आदमी,
मन में मैला लगाए गिरल आदमी।
रंग मन का है कैसा
पूछो आदमी ?
रूप मन का है कैसा
सुनो आदमी ?
मन का कैसा बदन है सुनो आदमी ?
मन बसता कहां है सुनो आदमी ?


जैसे नभवाणी ग्राहक हैं यंत्र आदमी,
वैसे मस्तक के तंत्रों में मन आदमी।
प्रकृति तरंगों से
मन आदमी,
ज्ञानेन्द्रिया बनाती है
मन आदमी।
आंख कान नाक मुंह व चर्म आदमी,
प्रतिपल ए पकड़ते तरंग आदमी।
( नभवाणी ग्राहक यंत्र = रेडियो/Radio  )


इसको मस्तक बनाता है मन आदमी,
जैसा होता तरंग वैसा मन आदमी।
मन उपजाता है
कर्म आदमी,
और कर्म फिर बनाता है
मन आदमी।
ज्ञान मन और कर्म का  पुल आदमी,
इस पुल से सुधरता है भूल आदमी।


मन कर्म को जोड़ता यह पुल आदमी,
इस पुल से है जीवन का मूल आदमी।
जिनमें नहीं यह
पुल आदमी,
मन उनका बना है
शूल आदमी।
यह शूल छेदता उनका मूल आदमी,
मूल खोने पर मिलती धूल आदमी।


जीवन का मूल यही पुल आदमी,
सभी भूल को सुधारे ए पुल आदमी।
विद्या इस पुल का है
जड़ आदमी,
बुद्धि से बनता है
धड़ आदमी।
पुस्तक इस जड़ का है मूल आदमी,
चिंतन इस पुस्तक का मूल आदमी।


मन पानी के जैसा तरल आदमी,
ज्ञान हरता है इसका गरल आदमी।
कर्म इसको बनाता
सरल आदमी,
शठता इसमें भरती
गरल आदमी।
शुभ्र इसको बनाती बुद्धि आदमी,
धार इस पर चढ़ाती शुद्धि आदमी।


विद्या से आता संयम आदमी,
विचलना ही इसका धर्म आदमी।
मन के विचलन से होता
पतन आदमी,
इस पर रखे नियंत्रण
रतन आदमी।
राह खुद ही बनाए समय आदमी,
राह खुद ही सिखाए समय आदमी।


राह खुद ही मिटाए समय आदमी,
राह खुद ही भूलाए समय आदमी।
सोता जगत पर समय
नहीं सोता,
समय के कारण से
सब कुछ होता।
पहचाना समय वह सफल आदमी,
जो भटक गए वो विफल आदमी।


************ समाप्त ********************

इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
रोआरी , प चंपारण , बिहार , भारत , पीन  845453
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

आदमी ( भाग 3 )

अनुसंधानशाला से आदमी भाग 3 प्रस्तुत करते इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद 


कविता
आदमी ( भाग 3 ) 
रचनाकार - इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद

कुछ संगत बनाती सफल आदमी,
कुछ संगत बनाती असल आदमी।
चारु संगत बनाती
अभयआदमी ,
चारु संगत दिलाती है
जय आदमी।
दुष्ट संगत से होता है क्षय आदमी ,
दुष्ट संगत से होता है भय आदमी।


दुष्ट संगत बनती गिरल आदमी,
दुष्ट संगत से लड़ता विरल आदमी।
दुष्ट संगत समाज का
कोढ़ आदमी ,
चारु संगत है इसका
तोड़ आदमी। 
दुष्ट संगत में जाते गिरल आदमी,
चारु संगत सजाते विरल आदमी।


चारु संगत बड़ा ही विरल आदमी,
खोज पाते केवल हैं असल आदमी।
दुष्ट संगत बड़ा ही
सरल आदमी,
जो पाते हैं बनते
गिरल आदमी।
दुष्ट संगत से बचना धर्म आदमी,
धर्म कहता यही है कर्म आदमी।


शठता ही मनुज में शर्म आदमी ,
शठ कारण ही होता भ्रम आदमी।
शठ संगत जगत का
नर्क आदमी,
पाया उसका बेड़ा है
ग़र्क आदमी।
शठ हरदम उगलता गरल आदमी,
शठ हरदम निगलता मरल आदमी।


शठ देखने में लगता सरल आदमी,
शठ अपने को कहता विरल आदमी।
शठ हरदम तलाशे
सरल आदमी,
शठ पर चाबुक लगाए
असल आदमी।
शठ करता है हरदम नकल आदमी,
शठ नाशे मनुज का अक्ल आदमी।


शठता दुष्टता की बहन आदमी,
जनति ए हमेशा जलन आदमी।
दुष्ट कहता है शठ का
अनुज आदमी,
ए दोनो ही खाएं
मनुज आदमी।
विषधर से भयंकर यही आदमी ,
अपनी बुद्धि से बचता सही आदमी।


शठ कारण ही बनता नियम आदमी ,
डंड डर से ही शठ है विनय आदमी।
सभी पूछते हैं शठ है
कौन आदमी ?
मैं तुम या वह जो
मौन आदमी ।
शठ हर युग में होते अलग आदमी ,
जिन्हें देखते ही मुड़े बगल आदमी।


कर्म जिनके उठाए कसक आदमी ,
कर्म जिनके बनाए नर्क आदमी।
मन जिनसे जाए
कड़क आदमी ,
मन जिनसे जाए
भड़क आदमी।
देखते मन में उठे तड़क आदमी,
देखते मन में उठे हड़क आदमी।


सभी तन के अंदर युगल आदमी,
शठ में शठता है ज्यादा उगल आदमी।
जिनके कर्मों को करता
अमल आदमी,
उनके अंदर सज्जनता
भरल आदमी।
कलियुग में शठ भी सफल आदमी,
पर रहता हमेशा नकल आदमी।


शठ निंदित कलह का कलश आदमी,
शठ जिंदा जगत का निरस आदमी।
शठ तीता करैला का
रस आदमी,
शठ के जाने से होता
सरस आदमी।
शठ की बोली लगाए जलन आदमी,
शठ की चुप्पी से होता लल्लन आदमी।


पर शठ भी है जरूरी आदमी,
वरना कैसे नापाते गुणी आदमी।
जब तक जगत में
रहे आदमी,
शठ होगा हमेशा
नहीं आदमी।
काल कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
माल कारण बने कुछ कुटिल आदमी।


हठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
ठाट कारण बने कुछ कुटिल आदमी।
हाट कुछ को बनाते
कुटिल आदमी,
बाट कुछ को बनाते
कुटिल आदमी।
पाठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी,
गांठ कारण बने कुछ कुटिल आदमी।


बात है यह असल शठ कुटिल आदमी,
कर्म इनका बनाए जटिल आदमी।
कर्म सूरज का प्रथम
उदय आदमी,
कर्म यही केवल एक
अभय आदमी।
कर्म रहता सदा यह नियत आदमी।
जग होता कर्म के विवश आदमी।


कर्म यही बनाता दिवस आदमी ,
कर्म यही नियति का रहस्य आदमी।
कर्म यही केवल एक
असल आदमी,
शेष करतब है इसका
नकल आदमी।
कर्म दूसरा धारा का अचल आदमी,
कर्म नियति का केवल असल आदमी।


अस्त सूरज का कर्मों का शेष आदमी,
रात बनता है तब फिर विशेष आदमी।
कर्म बादल का अजब
गजब आदमी,
इस करतब के कारण 
जीवन आदमी।
कर्म वायु के कारण बदन आदमी,
इसके कारण ही शीतल सदन आदमी।


कुछ करतब बनाए मदन आदमी,
कुछ करतब है लाते जलन आदमी।
नित्य नियति सिखाती
सबक आदमी,
काल इसमें सहायक
नियत आदमी।
कर्म खुद ही सिखाए कर्म आदमी,
क्रम खुद ही बनाए कर्म आदमी।


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इंजीनियर पशुपतिनाथ प्रसाद
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